अंतर्राष्ट्रीय संबंध
अफगान नीति में परिवर्तन की आवश्यकता
- 18 May 2020
- 15 min read
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में अफगान नीति में परिवर्तन की आवश्यकता व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
हाल ही में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और उनके प्रतिद्वंदी अब्दुल्ला अब्दुल्ला के बीच घोषित शक्ति-साझाकरण समझौते (Power-Sharing Deal) का भारत ने स्वागत किया है। जो कि पिछले वर्ष हुए विवादित राष्ट्रपति पद के चुनाव से उत्पन्न राजनीतिक कलह का अंत माना जा रहा है। विदेश मंत्रालय ने कहा है कि भारत को उम्मीद है कि सुलह के माध्यम से राजनीतिक समझौते और परिषद के गठन से स्थायी शांति और स्थिरता स्थापित करने के लिये नए सिरे से प्रयास किये जाएँगे और अफगानिस्तान में गैर राज्य अभिकर्त्ताओं द्वारा प्रायोजित आतंकवाद और हिंसा पर लगाम लगेगी। दो दशक से युद्ध और हिंसा से जूझ रहे अफगानिस्तान में शांति की उम्मीद जगी है। शक्ति-साझाकरण समझौते से लोग खुश हैं और उन्हें देश में अमन लौटने की आशा है।
यदि बात भारत और अफगानिस्तान संबंधों की करें तो समय के साथ यह बेहद मज़बूत और मधुर होते जा रहे हैं। अफगानिस्तान जितना अपने तात्कालिक पड़ोसी पाकिस्तान के निकट नहीं है, उससे कहीं अधिक निकटता उसकी भारत के साथ है। भारत अफगानिस्तान में अरबों डॉलर लागत वाली कई बड़ी परियोजनाओं को पूरा कर चुका है और कुछ पर अभी भी काम चल रहा है।
इस आलेख में शक्ति-साझाकरण समझौते, शक्ति-साझाकरण समझौते का अमेरिका-तालिबान समझौते पर प्रभाव, तालिबान को लेकर भारत की स्थिति, भारत की अफगान नीति में बदलाव की आवश्यकता पर विमर्श किया जाएगा।
अफगानिस्तान में संघर्ष की पृष्ठभूमि
- अमेरिका के आक्रमण से पूर्व ही अफगानिस्तान लगभग 20 वर्षों तक निरंतर युद्ध की स्थिति में रहा था। अफगानिस्तान संघर्ष की शुरुआत अफगानिस्तान में तख्तापलट के एक वर्ष पश्चात् 1979 में हुई जब सोवियत सेना ने अफगानिस्तान पर अपनी साम्यवादी सरकार का समर्थन करने के लिये आक्रमण कर दिया।
- सोवियत सेना अफगानिस्तान सरकार की ओर से अफगान मुजाहिदीनों के विरुद्ध जंग लड़ रही थी, उस समय इन अफगान मुजाहिदीनों को अमेरिका, पाकिस्तान, चीन और सऊदी अरब जैसे देशों का समर्थन प्राप्त था। युद्ध की शुरुआत के कुछ ही वर्षों में सोवियत सेना ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्ज़ा कर लिया। हालाँकि इस युद्ध में सोवियत सेना के 15000 से भी अधिक सैनिक मारे गए।
- वर्ष 1988 में सोवियत संघ ने कुछ आंतरिक कारणों के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाने का निर्णय लिया और फरवरी 1989 को सोवियत सेना की अंतिम टुकड़ी भी अफगानिस्तान से वापस चली गई। हालाँकि अफगानिस्तान में अभी भी गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई थी।
- 1980 के दशक के अंत में सोवियत संघ के अफगानिस्तान से जाने के बाद वहाँ कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरू हो गया और वहाँ के आम लोग भी मुजाहिदीनों से काफी परेशान थे। ऐसे हालात में जब तालिबान का उदय हुआ था तो अफगान लोगों ने उसका स्वागत किया।
- अफगानिस्तान से सोवियत सेना की वापसी के पश्चात् ही वहाँ तालिबान के उदय की शुरुआत होती है। तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है ‘छात्र’। दरअसल तालिबान का उदय 1990 के दशक में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ, जब सोवियत सेना अफगानिस्तान से वापस जा चुकी थी।
- पश्तूनों के नेतृत्व में उभरा तालिबान, अफगानिस्तान के पटल पर पूर्णरूप से वर्ष 1994 में सामने आया। इससे पहले तालिबान धार्मिक आयोजनों या मदरसों तक सीमित था, जिसे ज़्यादातर धन सऊदी अरब से मिलता था।
- प्रारंभ में तालिबान को इसलिये लोकप्रियता मिली क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई, अव्यवस्था पर अंकुश लगाकर अपने नियंत्रण में आने वाले इलाकों को सुरक्षित बनाया ताकि लोग व्यवसाय कर सकें।
- धीरे-धीरे तालिबान ने अफगानिस्तान में अपना दबदबा बढ़ाना शुरू किया और वर्ष 1996 में बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाकर अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्ज़ा कर लिया। वर्ष 1998 तक लगभग 90 प्रतिशत अफगानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था।
अफगानिस्तान में अमेरिका का प्रवेश
- वर्ष 2001 में न्यूयॉर्क में आतंकी हमले के बाद तालिबान दुनिया की नज़रों में आया। इसी दौरान 7 अक्तूबर 2001 को अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया। अमेरिकी सेना ने तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया।
- हालाँकि, इस हमले के बावजूद तालिबान नेता मुल्ला उमर और अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को पकड़ा नहीं जा सका।
- मई 2011 में पाकिस्तान के एबटाबाद में 9/11 हमलों के मास्टरमाइंड ओसामा-बिन-लादेन को अमेरिकी सेनाओं द्वारा मार गिराया गया।
- ओसामा-बिन-लादेन को मार गिराने के बाद अमेरिकी सुरक्षा बलों का प्राथमिक उद्देश्य पूरा हो चुका था, अतः 2011 में राष्ट्रपति ओबामा ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की सीमित संख्या में वापसी का रोडमैप प्रस्तुत किया।
- जनवरी 2017 में डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद अफगान नीति के संदर्भ में प्रमुख फोकस अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी पर रहा, जिसे मार्च 2020 में अमेरिकी-तालिबान समझौते में मूर्त रूप दिया गया।
- इस समझौते का सफल क्रियान्वयन अफगानिस्तान में राजनैतिक गतिरोध की समाप्ति पर टिका है।
शक्ति-साझाकरण समझौते के प्रमुख बिंदु
- इस समझौते के तहत अशरफ गनी राष्ट्रपति बने रहेंगे जबकि अब्दुल्ला अब्दुल्ला सुलह के लिये गठित राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (High Council of National Reconciliation) के प्रमुख होंगे।
- अब्दुल्ला के पास आंतरिक, आर्थिक, न्याय, श्रम और सोशल अफेयर्स के मंत्रालय रहेंगे।
- अब्दुल्ला अब्दुल्ला, अफगानिस्तान में अशरफ गनी प्रशासन को सरकार चलाने में अपना पूर्ण समर्थन प्रदान करेंगे।
- अमेरिका और तालिबान की शांति वार्ता को तय मुकाम तक पहुँचाने के लिये अफगानिस्तान में सियासी गतिरोध दूर करने के लिये यह समझौता बेहद ज़रूरी था।
अमेरिका के लिये क्यों जरूरी है यह समझौता?
- अमेरिका में वर्ष 2020 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में सुरक्षा बलों की वापसी एक बड़ा मुद्दा है। राष्ट्रपति ट्रंप ने पिछले चुनाव प्रचार में दो दशकों से अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सेना की वापसी को बड़े मुद्दे के रूप में प्रचारित किया था।
- पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप अमेरिकी सैनिकों की वापसी का वादा अभी तक पूरा नहीं कर पाए थे। अब अमेरिका-तालिबान समझौते के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी के मुद्दे से ट्रंप को राष्ट्रपति पद के चुनाव में फायदा हो सकता है।
- लेकिन, अफगानिस्तान में राजनैतिक गतिरोध के कारण अमेरिका-तालिबान समझौता मूर्त रूप नहीं ले पा रहा था। अफगानिस्तान में शक्ति-साझाकरण समझौते से राजनीतिक गतिरोध समाप्त हो गया है, जिससे अब अमेरिका-तालिबान समझौते के अपने मुकाम तक पहुँचने की पूरी संभावना है।
भारत की अफगान नीति में बदलाव क्यों?
- भारत हमेशा से तालिबान शासन का विरोध करता रहा है, भारत का सदैव यह दृष्टिकोण रहा है कि वह तालिबान से संबंधित किसी प्रत्यक्ष वार्ता में संलग्न नहीं होगा। हालाँकि वर्ष 2018 में भारत ने मास्को में तालिबान के साथ आयोजित वार्ता में शामिल होने के लिये गैर-आधिकारिक स्तर पर अपने दो सेवानिवृत्त राजनयिकों को भेजा था।
- मार्च 2020 में अमेरिकी-तालिबान समझौते का भारत ने न केवल पूर्ण समर्थन किया बल्कि इस समझौते में भारत के प्रतिनिधि भी उपस्थित रहे, जो तालिबान के प्रति भारत के बदले रूख को दर्शाता है।
- कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि भारत का तालिबान के साथ खुला संपर्क होना चाहिये क्योंकि तालिबान भी अब अफगानिस्तान की राजनीतिक प्रक्रिया का एक अंग बन गया है।
- भारत को तालिबान से प्रत्यक्ष रूप से वार्ता कर आतंकवाद जैसे विषयों को उसके समक्ष उठाना चाहिये।
- अफगानिस्तान से अमेरिकी सुरक्षा बलों की वापसी के बाद उत्पन्न हुए शून्य को भरने के लिये भारत को तालिबान की आवश्यकता पड़ेगी, इसलिये भारत को संबंध सुधार की दिशा में पहल करना चाहिये।
- अमेरिका-तालिबान समझौते में पाकिस्तान एक प्रमुख भागीदार है। अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद पाकिस्तान, तालिबान का प्रयोग भारत के विरुद्ध कर सकता है। ऐसे में भारत को व्यक्तिगत तौर पर तालिबान से संबंध स्थापित करना चाहिये।
- भारत को वैश्विक महामारी COVID-19 के दौर में सुधारात्मक कूटनीतिक कार्रवाई करने की आवश्यकता है। भारत को तालिबान और देश के सभी राजनीतिक समूहों के साथ खुलकर बात करना शुरू करना चाहिये।
भारत के लिये अफगानिस्तान का महत्त्व
- अफगानिस्तान एशिया के चौराहे पर स्थित होने के कारण रणनीतिक महत्त्व रखता है क्योंकि यह दक्षिण एशिया को मध्य एशिया और मध्य एशिया को पश्चिम एशिया से जोड़ता है।
- भारत का संपर्क ईरान, अज़रबैजान, तुर्कमेनिस्तान तथा उज़्बेकिस्तान के साथ अफगानिस्तान के माध्यम से होता है। इसलिये अफगानिस्तान भारत के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- अफगानिस्तान भू-रणनीतिक दृष्टि से भी भारत के लिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत और मध्य एशिया के बीच स्थित है जो व्यापार की सुविधा भी प्रदान करता है।
- यह देश रणनीतिक रूप से तेल और गैस से समृद्ध मध्य-पूर्व और मध्य एशिया में स्थित है जो इसे एक महत्त्वपूर्ण भू-स्थानिक स्थिति प्रदान करता है।
- अफगानिस्तान पाइपलाइन मार्गों के लिये महत्त्वपूर्ण स्थान बन जाता है। साथ ही अफगानिस्तान कीमती धातुओं और खनिजों जैसे प्राकृतिक संसाधनों से भी समृद्ध है।
आगे की राह
- अमेरिका और तालिबान के मध्य शांति वार्ता के परिणामस्वरूप अमेरिकी सेना की वापसी से अफगानिस्तान पर एक बार फिर से तालिबान का वर्चस्व स्थापित हो सकता है, ऐसे में भारत को लगातार तालिबान के साथ वार्ता करनी चाहिये ताकि पाकिस्तान अपने लाभ के लिये तालिबान का प्रयोग भारत के खिलाफ न कर सके।
- तेज़ी से बदलते अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के दौर में भारत के लिये यह अनिवार्य हो जाता है कि वह अफगानिस्तान के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करे।
- भारत को अपनी सुरक्षा ज़रूरतों की समीक्षा कर भारतीय उपमहाद्वीप की सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए एक निर्णायक भूमिका में आना होगा।
- तालिबान के साथ बातचीत करने के लिये भारत को संवाद का प्रत्यक्ष तंत्र विकसित करना चाहिये।
प्रश्न- ‘बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत को अफगानिस्तान के प्रति अपनी नीति में बदलाव करने की आवश्यकता है।’ इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं तर्क सहित विवेचना कीजिये?