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अमेरिका-भारत: कूटनीति का अफगान कारक

  • 20 Apr 2017
  • 7 min read

सन्दर्भ
हाल ही में अमेरिका ने अफगानिस्‍तान पर अपना सबसे ताकतवर हथियार, गैर-परमाणु बम मोआब गिराया। इस बम का निशाना अफगानिस्‍तान के नागहर प्रांत में स्थित आईएसआईएस की सुरंगे थीं। मोआब यानी मैसिव ऑर्डनेंस एयर बर्स्‍ट बम, जिसे “मदर ऑफ ऑल बम” कहते हैं, अमेरिकी सेना के बेड़े में सबसे खतरनाक हथियार है। दुनिया भर के समाचार-पत्र और न्यूज़ चैनल मोआब की विशेषताओं का वर्णन करने लगे और इस विध्वंसक बम के शोर में इसके सम्भावित भू-राजनैतिक प्रभावों की बातें दब सी गईं। जहाँ बराक ओबामा लगातार अफगानिस्‍तान में अपने सैनिकों की संख्या कम करने पर बल देते रहे वहीं ट्रम्प प्रशासन के शैशवकाल में ही अमेरिका के सबसे बड़े गैर-परमाणु हथियार का अफगानिस्‍तान पर गिराया जाना भू-राजनीतिक महत्त्व की बहुत-सी बातों को समेटे हुए है।

पृष्ठभूमि
गौरतलब है कि भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वर्ष 2009 के अंत में अफगानिस्‍तान के लिये “सर्ज एंड बैक” (surge and back) नीति की घोषणा की थी। इस नीति का शाब्दिक अर्थ यह है कि “हमला करो और लौट आओ” और ओबामा सरकार की इस नीति का उद्देश्य भी यही था। वर्ष 2011 में अफगानिस्‍तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या जहाँ 1 लाख थी वहीं 2014 आते-आते यह संख्या 9 हज़ार हो गई। हालाँकि युद्धग्रस्त अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की पूरी तरह से वापसी का निर्णय लेने का दायित्व ओबामा प्रशासन ने आगामी सरकार के लिये छोड़ दिया था। ट्रम्प ने सैनिकों की संख्या के संबंध में अधिकारिक तौर पर तो कुछ भी नहीं कहा है, लेकिन मोआब का प्रदर्शन कर अमेरिका ने अफगानिस्‍तान से हटने या अपनी भागीदारी को कम करने के तमाम अटकलों पर विरामचिन्ह लगा दिया है।

अमेरिका के रुख में यह परिवर्तन क्यों?
विदित हो कि हाल के कुछ दिनों में युद्धग्रस्त अफगानिस्तान में चीन, पाकिस्तान और रूस एक गठबंधन बनाने के लिये नज़दीक आ रहे हैं, जहाँ तीनों देश आतंकी समूह इस्लामिक स्टेट को एक साझा खतरे के रूप में देखते हैं। उद्देश्यों की बात करें तो अमेरिका भी इस्लामिक स्टेट से अब सख्ती से निपटना चाहता है, लेकिन वह नहीं चाहता की जिस अफगानिस्‍तान में उसके सैकड़ों सैनिक मारे गए, जहाँ एक दशक से अधिक समय से अमेरिका अपने संसाधनों को खर्च करते आ रहा है वह चीन-पाकिस्तान-रूस गठजोड़ के हवाले हो जाए। 

दो दशक से अधिक समय की प्रतिस्पर्द्धा के बाद रणनीतिक गुणा-भाग बदल रहा है। चीन और रूस सहित क्षेत्रीय देशों में सबसे बड़ा डर अफगानिस्तान में आईएसआईएस के उभार का है, गौरतलब है कि हाल ही में आईएस ने पहली बार चीन के खिलाफ अपने खतरनाक मंसूबों को ज़ाहिर किया है वहीं रूस सीरिया में आईएस को लगातार निशाना बनाता आ रहा है। बात यदि पाकिस्तान की करें तो उसे भी रूस और चीन का यह साथ पसंद आ रहा है।

अफगानिस्तान में लंबे समय से चली आ रही अस्थिरता के बीच आईएस की उपस्थिति उसकी प्रगति और स्थिरता को प्रभावित कर सकता है, अतः अमेरिका का अफगानिस्‍तान में आईएस के खिलाफ मोर्चा खोलना निश्चित ही विश्व शांति के हित में है। लेकिन यहाँ सवाल यह उठता है कि जब रूस-चीन-पकिस्तान गठजोड़ भी अफगानिस्‍तान में शांति बहाली के लिये आगे आ रहा है तो केवल अमेरिका का ही यह कदम आतंकवाद मुक्त विश्व के हित में कैसे है?

अमेरिकी दृष्टिकोण सही क्यों?
विदित हो कि अफ़गानिस्तान में आईएस के उभार को रोकने के लिये रूस तालिबान का इस्तेमाल करना चाहता है। ज़हर को ज़हर से काटने की रूस का यह सिद्धांत आतंकवाद के सन्दर्भ में निहायत ही अवांछनीय है। आतंकवाद के विरुद्ध चयनात्मक कार्यवाही का ही नतीज़ा है कि स्वयं पाकिस्तान आज इसका भुक्तभोगी बना हुआ है। ट्रम्प प्रशासन के नेतृत्व में अमेरिका, आतंक के खिलाफ इस लड़ाई में तालिबान और आईएस सहित तमाम आतंकी संगठनों को खत्म करना चाहता है जो भारत सहित समूचे विश्व के हित में है।

निष्कर्ष
गौरतलब है कि भारत अफगानिस्‍तान में लोकतांत्रिक सरकार की बहाली के समय से ही उसे आर्थिक और राजनीतिक सहायता मुहैया कराते आ रहा है। वर्तमान में अफगानिस्‍तान के अवसंरचना विकास में भारत ने उल्लेखनीय निवेश किया है। यदि अमेरिका के हस्तक्षेप से वहाँ शांति बहाल होती है तो निश्चित ही भारत इससे लाभान्वित होगा। रूस-चीन-पाकिस्तान गठजोड़ भी अफगानिस्‍तान में शांति बहाली चाहता है लेकिन साथ में इस बात की पूरी सम्भावना है कि उनकी शर्तों पर अफ़गानिस्तान का विकास भारत के हक में नहीं होगा। अतः अफगानिस्‍तान में अपने दावों की सुरक्षा के लिये भारत को अमेरिका के साथ आगे बढ़ना होगा। हमारे पास माओब जैसा हथियार है या नहीं, यदि नहीं है तो विकसित करना चाहिये, भारत को इन सभी बातों पर नहीं, बल्कि तत्कालीन परिस्थितियों का लाभ उठाने पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

Source title:The Kabul convergence
Source link:http://indianexpress.com/article/opinion/columns/the-kabul-convergence-4617122/

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