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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

अमेरिका-ईरान तनाव तथा इसके प्रभाव

  • 13 Jul 2019
  • 12 min read

संदर्भ

ईरान ने संवर्द्धित यूरेनियम की सीमा जो वर्ष 2015 के समझौते में तय की गई थी, से आगे बढ़ने की घोषणा की है। ध्यातव्य है कि वर्ष 2015 में ईरान तथा P5+1 देशों (अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्राँस+जर्मनी) के मध्य एक परमाणु समझौता (The Joint Comprehensive Plan of Action-JCPOA) हुआ था। इस समझौते में संवर्द्धित यूरेनियम की सीमा को 3.67 प्रतिशत तय कर दिया गया। इससे पहले भी ईरान JCPOA समझौते में निर्धारित 300 किग्रा. यूरेनियम भंडार की सीमा का हनन कर चुका है जिसकी पुष्टि अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (International Atomic Energy Agency-IAEA) ने भी की है। 

अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी

(International Atomic Energy Agency-IAEA)

  • इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना वर्ष 1957 में परमाणु ऊर्जा तकनीक के बढ़ते उपयोग को ध्यान में रखकर की गई थी।
  • वर्तमान में इसके 171 राष्ट्र सदस्य है तथा इसका मुख्यालय ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में है।
  • इसका प्रमुख उद्देश्य परमाणु ऊर्जा का शांति के लिये उपयोग को बढ़ावा देना है। साथ ही यह परमाणु ऊर्जा के किसी भी ऐसे सैन्य उपयोग का विरोध करती है जिसमें परमाणु हथियार भी शामिल है।

अमेरिकी-ईरान तनाव 

ईरान के इस दृष्टिकोण ने एक जटिल परिस्थिति उत्पन्न कर दी है क्योंकि ईरान का यह कदम अमेरिकी दृष्टिकोण के विपरीत है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि वर्ष 2018 में अमेरिका ईरान परमाणु समझौते से बाहर निकल गया था, किंतु अन्य पक्षकार देश अभी भी इस समझौते को बचाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। इनमें अमेरिका के सहयोगी राष्ट्र ब्रिटेन, फ्राँस तथा जर्मनी जैसे देश शामिल हैं। 

समझौते से बाहर होने के पश्चात् अमेरिका ने धीरे-धीरे ईरान पर प्रतिबंध बढ़ाने शुरू कर दिये। संभवतः इसी का परिणाम है कि हाल के कुछ समय में ईरान-अमेरिका के बीच तनाव में तीव्रता देखने को मिली है। ज्ञात हो कि ईरान द्वारा एक अमेरिकी ड्रोन को होरमुज़ जलसंधि के समीप मार गिराया गया। इसके पश्चात् अमेरिका ने भी ईरान पर सैनिक कार्यवाही की अनुमति दे दी, हालाँकि कुछ समय बाद ही अमेरिका द्वारा अपने इस निर्णय को वापस ले लिया गया।

अमेरिका की माँगे

पिछले कुछ समय से अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों के संबंध में सख्ती देखने को मिल रही है। जहाँ एक ओर अमेरिका ने ईरान के साथ व्यापार करने वाली कंपनियों पर प्रतिबंध लगाए हैं, वहीं ऐसे देश जो ईरान से तेल आयात करते हैं उन पर भी प्रतिबंध आरोपित कर दिये हैं। इससे पहले अमेरिका ने विश्व के 8 देशों (भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, तुर्की, इटली तथा ग्रीस) को ईरान से तेल आयात करने की अस्थायी छूट दी थी। इस छूट को इसी वर्ष अप्रैल में समाप्त कर दिया गया। ध्यान देने योग्य है कि उपर्युक्त सभी ईरान के सबसे बड़े तेल आयातक देश हैं। इस संदर्भ में अमेरिका का दृष्टिकोण यह है कि तेल आयात के संबंध में इस छूट को समाप्त करना इसलिये ज़रुरी था क्योंकि ईरान मुख्यतः कच्चे तेल के निर्यात से ही विदेशी मुद्रा प्राप्त करता है। स्पष्ट है कि अमेरिका आर्थिक प्रतिबंधो के माध्यम से ईरान को अपनी मांगे मानने के लिये विवश करना चाहता है। यहाँ यह जानना ज़रुरी हो जाता है कि वे कौन-सी मांगे हैं जिनके संदर्भ में अमेरिका के रवैये में इतनी तल्खी आई हैं:

  • ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम तथा यूरेनियम संवर्द्धन को बंद करें। इसमें न्यून स्तर के यूरेनियम का इस्तेमाल भी शामिल है, जिसकी सहमति JCPOA में दी गई थी। 
  • ईरान लेबनान के आतंकी संगठन हिज़बुल्ला तथा फिलिस्तीनी आतंकी संगठन हमास, जो गाज़ा में स्थित है, को सहायता देता है। इन संगठनों को अमेरिका ने आतंकवादी घोषित किया है। अमेरिका चाहता है कि ईरान इन संगठनों को सभी प्रकार की सहायता देना बंद करें।
  • अमेरिका फिलहाल सीरिया और ईराक के मामले में उलझा हुआ है तथा अमेरिका के सहयोगी सउदी अरब एवं UAE यमन में हौथी विद्रोहियों से संघर्ष कर रहे हैं। इन देशों के विद्रोहियों को ईरान द्वारा सहायता दी जा रही है जिससे अमेरिका तथा उसके सहयोगियों की स्थिति को नुकसान पहुँच रहा है। अमेरिका की मांग है कि ईरान इन देशों के विद्रोहियों को भी सहायता देना बंद करें। 
  • अमेरिका चाहता है की ईरान अपने बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम जिसमें परमाणु क्षमता संपन्न मिसाइल भी शामिल है, के विकास और परीक्षण कार्य पर भी रोक लगाए।  

ईरान का पक्ष 

ईरान वर्तमान में एक संकटपूर्ण स्थिति का सामना कर रहा है। ईरान समझौते से जुड़े देशों और विश्व को संबोधित करते हुए अपने परमाणु कार्यक्रम को तीव्रता प्रदान कर रहा है ताकि ये देश अमेरिका पर परमाणु समझौते के संबंध में अपने फैसले को बदलने के लिये दबाव बना सकें। साथ ही ईरान की जन भावना भी परमाणु कार्यक्रम तथा मिसाइल कार्यक्रम के अनुरूप है। वहीं दूसरी ओर ईरान को अपनी घरेलू परिस्थितियों से भी जूझना पड़ रहा है। ईरान में विपक्ष तथा इस्लामिक क्रांतिकारी सुरक्षा बल (Islamic Revolutionary Guard Corps) सरकार का विरोध कर रहे हैं। उनका मानना है कि ईरान ने अपने परमाणु हितों को दरकिनार करते हुए वर्ष 2015 में समझौता किया ताकि ईरान को आर्थिक प्रतिबंधों से छूट मिल सके, ईरान के लोगों की स्थिति में सुधार आ सकें, किंतु ऐसा नहीं हो सका। यहाँ इस बात पर भी गौर करने की आवश्यकता है कि ईरान के धर्म गुरु अयातुल्लाह खमेनी ने इस समझौते पर सहमति व्यक्त की थी, जिसने ईरान में इस समझौते के संदर्भ में सर्वसम्मति बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अब ईरान के सर्वोच्च धर्म गुरु भी इस समझौते पर दोबारा लौटने से इंकार कर चुके हैं। इस परिस्थिति में ईरान की वर्तमान सरकार के समक्ष संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है।

तनाव के परिणाम 

यदि यह तनाव सैनिक संघर्ष में तब्दील हो जाता है तो इस तनाव का सबसे अधिक प्रभाव पश्चिम एशिया पर पड़ने की संभावना है। विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका कि सोच सीमित सैनिक संघर्ष के माध्यम से ईरान से अपनी मांगे मनवाने की है जो कि भ्रामक है। यदि अमेरिका ईरान पर कार्यवाही करता है तो संभव है कि ईरान भी जवाबी कार्यवाही करेगा। ज्ञात हो कि इसी प्रकार की स्थिति वियतनाम युद्ध के दौर में देखी गई थी। इस युद्ध में अमेरिका ने यह सोच कर वियतनाम पर कार्यवाही की थी कि वियतनाम की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह जवाबी कार्यवाही कर सकें। लेकिन इतिहास में देखने को मिलता है कि अमेरिका के लिये यह संघर्ष अपमानजनक अंत के साथ समाप्त हुआ। इस युद्ध में अमेरिका को भारी जन-धन की हानि उठानी पड़ी। इसी प्रकार यदि ईरान भी सैनिक कार्यवाही करता है तो वह अमेरिकी सहयोगियों जैसे- सऊदी अरब, UAE तथा अमेरिका के क्षेत्रीय ठिकानों को निशाना बनाएगा। साथ ही वह होरमुज़ जलसंधि को भी बाधित करने का प्रयास करेगा। उपर्युक्त परिस्थिति जहाँ एक ओर अमेरिका को इस क्षेत्र में तीसरे बड़े युद्ध की ओर धकेल सकती है, वहीं मध्य एशिया में तनाव का कारण भी बन सकती है।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि लंबे समय तक ईरान और अमेरिका के मध्य तनाव बना रहता है तो यह विश्व की तेल अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करेगा। इससे तेल की कीमत में वृद्धि होगी जो भारत जैसे विकासशील देशों के लिये संकट उत्पन्न कर सकती है। यदि यह स्थिति सैनिक संघर्ष में बदल जाती है तो विश्व की अर्थव्यवस्था को भी झटका लग सकता है। क्योंकि विश्व विशेष रूप से विकासशील देश ऊर्जा ज़रूरतों के लिये इस क्षेत्र पर सबसे अधिक निर्भर है। 

निष्कर्ष 

अमेरिका एक साथ दोहरी नीति पर कार्य कर रहा है। एक ओर ईरान के संबंध में उसके रुख में सख्ती आ रही है वहीं दूसरी ओर वह यह उम्मीद कर रहा है कि ईरान पूर्व के समझौते पर बने रहकर उसकी अन्य मांगों को स्वीकार करे। ऐसी द्वंद की स्थिति ईरान के लिये चुनौती उत्पन्न कर रही है। एक ओर ईरान का जनमत समझौते पर वापस लौटने पर सहमत नहीं है, वहीं दूसरी ओर अमेरिका JCPOA समझौते से आगे बढ़कर मांग कर रहा है। यह स्थिति अमेरिका-ईरान के मध्य तनावों को कम करने की संभावनाओं को चुनौती दे रही है। जब तक ईरान के लोगों द्वारा सरकार पर समझौते का दबाव नहीं बनाया जाता है एवं अमेरिका अपनी मांगों पर नरम नहीं होता है तो गतिरोध के बने रहने की संभावना है।

प्रश्न: अमेरिका-ईरान तनाव के संदर्भ में ईरान की स्थिति तथा इस तनाव के प्रभावों की चर्चा कीजिये?

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