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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत तथा यूरोपीय-यूनियन मुक्त व्यापार समझौता

  • 07 Jun 2017
  • 8 min read

संदर्भ
हाल ही में अपनी जर्मनी यात्रा के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल ने भारत-यूरोपीय संघ (ई.यू.) मुक्त व्यापार समझौते (FTA) की वार्ता को फिर से शुरू करने की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की। दरअसल, इस वार्ता पर विभिन्न मुद्दों के चलते 2013 के बाद से ही गतिरोध बना हुआ है। इस समझौते के प्रावधानों में व्यापार, निवेश संरक्षण और बौद्धिक संपदा अधिकार जैसे मुद्दे शामिल हैं। 

महत्त्वपूर्ण बिंदु 

  • हाल ही में भारत द्वारा जर्मनी सहित यूरोपीय संघ के कई सदस्य देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संधियों (BIT) को अपनी तरफ से समाप्त कर दिया गया है, जिसके कारण अनेक यूरोपीय निवेशक भारत में निवेश करने से कतरा रहे हैं। दरअसल, उनकी चिंता मुख्य रूप से निवेशकों के हितों के संरक्षण को लेकर है। 
  • लेकिन भारत निवेशकों के संरक्षण सहित सभी मुद्दों पर एफ.टी.ए. वार्ता को फिर से शुरू करने के लिये तैयार है। अत: इससे निवेशकों का भारत के प्रति विश्वास मज़बूत होगा। 
  • यूरोपीय संघ (EU) ने सिंगापुर के साथ 2010 से 2013 के बीच ‘निवेशक-राज्य विवाद निपटान’ (ISDS) तंत्र सहित टैरिफ में कमी, बौद्धिक संपदा अधिकार और निवेश संरक्षण आदि से संबंधित विषयों पर एक एफ.टी.ए वार्ता की थी।
  • ई.यू.-सिंगापुर एफ.टी.ए. में आई.एस.डी.एस. यह प्रावधान करता है कि निवेशक, मेज़बान देश के खिलाफ उस देश की अदालत में विवाद याचिका दायर कर सकता है जहाँ निवेश किया गया है। साथ ही, यह विवादों पर अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता का प्रावधान भी करता है। 
  • यूरोपीय आयोग और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में इस बात पर भी मतभेद हैं कि एफ.टी.ए. समझौतों को कौन मंज़ूरी देगा। ई.सी.जे. (European court of justice - ECJ) ने फैसला किया कि यूरोपीय संघ को ‘गैर-प्रत्यक्ष विदेशी निवेश’ को छोड़कर एफ.टी.ए. के लगभग सभी पहलुओं पर फैसला करने का अनन्य अधिकार है।
  • उपर्युक्त निर्णय भारत सहित यूरोपीय संघ के साथ चल रही अन्य एफ.टी.ए. वार्ताओं को भी प्रभावित कर सकता है।

ई.यू. के पास क्या है विकल्प?

  • प्रथम, ई.यू. भविष्य में होने वाले एफ.टी.ए में से आई.एस.डी.एस. क्लॉज़ को अलग रखने का फैसला कर सकता है। अत: भारत इस प्रावधान पर अपनी सहमति व्यक्त कर सकता है। हालाँकि, यह संभावना कम ही है कि यूरोपीय संघ पूरी तरह से आई.एस.डी.एस. प्रणाली को त्याग देगा। इसे हाल ही में हुए ‘ई.यू.-कनाडा एफ.टी.ए. में देखा जा सकता है, जिसमें आई.एस.डी.एस. क्लॉज़ का प्रावधान किया गया है।
  • दूसरा, यूरोपीय संघ आई.एस.डी.एस. प्रावधानों के साथ एफ.टी.ए. पर बातचीत कर सकता है। हालाँकि, यह विकल्प संभव नहीं है, क्योंकि यूरोपीय संघ के सभी सदस्य देश इस तरह के एफ.टी.ए. को अपनी सहमति नहीं देंगे।
  • तीसरा, आई.एस.डी.एस. प्रावधानों के बिना मुख्य एफ.टी.ए. पर बातचीत कर सकता है लेकिन यह आई.एस.डी.एस. प्रावधानों को एक ‘वैकल्पिक प्रोटोकॉल’ का विषय बना देता है। अत: यूरोपीय संघ के जिन सदस्य देशों ने इस वैकल्पिक प्रोटोकॉल को लागू करने की पुष्टि की है उनको आई.एस.डी.एस. प्रावधानों को लागू करने के लिये सैद्धांतिक रूप से बाध्य बनाएगा।  

भारत के सामने चुनौतियाँ? 
मान लें कि यूरोपीय संघ ‘ई.यू.-कनाडा एफ.टी.ए.’ की तर्ज़ पर उपर्युक्त तीसरे विकल्प के रूप में आई.एस.डी.एस. को ‘वैकल्पिक प्रोटोकॉल’ के रूप में चुनता है तो भारत को इस विकल्प के बारे में तीन मोर्चों पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिये, जैसे: 

  • पहला, क्या भारत को विदेशी निवेशकों को घरेलू अदालतों में मामले को प्रस्तुत किये बिना अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल में याचिका दायर करने की अनुमति देनी चाहिये? 2016 के ‘भारतीय बी.आई.टी. मॉडल’ में यह प्रावधान है कि कोई भी विदेशी निवेशक ‘अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण’ में तभी याचिका दायर कर सकता है जब उसने कम से कम पाँच साल पहले घरेलू अदालत में याचिका दायर की हो।
  • दूसरा, क्या भारत एक बहुपक्षीय निवेश अदालत (multilateral investment court, MIC) स्थापित करने और इस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को स्वीकार करने के लिये तैयार है? इसका मतलब यह होगा कि सभी बी.आई.टी. विवाद एम.आई.सी. द्वारा तय किये जाएंगे न कि किसी ‘तदर्थ मध्यस्थता’ के द्वारा। एक एम.आई.सी. को विकसित करने के अनेक लाभ होंगे क्योंकि यह वर्तमान ‘आई.एस.डी.एस. प्रणाली’ के दोषों को दूर करने में मदद करेगा। किसी पक्ष द्वारा नियुक्त मध्यस्थों के विपरीत एम.आई.सी. प्रणाली ऐसे न्यायाधीशों को नियुक्त करेगी जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय निवेश कानूनों (IIL) में विशेषज्ञता प्राप्त हो। ऐसा करने से एम.आई.सी. प्रणाली में पारदर्शिता आएगी।
  • तीसरा, एम.आई.सी. के बनने तक, क्या भारत एक अपीलीय तंत्र के रूप में ‘द्विपक्षीय निवेश अदालत प्रणाली’ के निर्माण को स्वीकार करेगा। 

निष्कर्ष
भारत द्वारा इस तरह के एफ.टी.ए. विभिन्न देशों के साथ किये गये हैं ताकि देश के व्यापार-वाणिज्य को बढ़ावा मिल सके। वर्तमान में प्रस्तावित भारत-ई.यू. एफ.टी.ए. में अनेक मुद्दे शामिल हैं जिनका समाधान भारत को ‘राष्ट्रीय हितों’ को ध्यान में रखकर ही करना चाहिये, क्योंकि लोकतंत्र कानून के शासन पर आधारित होता है। अत: भारत को एक एम.आई.सी. जैसी मज़बूत और पारदर्शी अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक प्रणाली बनानी चाहिये तथा भारत को यूरोपीय संघ के साथ एफ.टी.ए. वार्ताओं में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिये। देश को यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि राज्य की नियामक संस्थाएँ विदेशी निवेशकों के हितों की रक्षा करें न कि उन्हें अनावश्यक परेशान करें।

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