अंतर्राष्ट्रीय संबंध
अनिश्चित विश्व में भारतीय विदेश नीति
- 25 Jun 2019
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टीम दृष्टि द्वारा The Hindu, The Indian Express तथा अन्य स्रोतों से उपलब्ध जानकारियों के आधार पर तैयार किये गए इस Editorial में अनिश्चित वैश्विक घटनाक्रमों के कारण विदेशनीति के समक्ष उत्पन्न हो रही चुनोतियों के सभी पक्षों का विश्लेषण किया गया है। साथ ही इन चुनोतियों से निपटने के लिये भारतीय प्रयासों का भी उल्लेख किया गया है।
संदर्भ
वर्तमान समय में विश्व के विभिन्न घटनाक्रमों नें भारतीय विदेश नीति के समक्ष कुछ कठिन चुनौतियों को प्रकट किया है। इनमें प्रमुख हैं- ईरान तेल संकट, अमेरिकी द्विपक्षीय व्यापार तथा चीन की मुखर होती नीति। इन चुनौतियों के कारण भारतीय हितों को वैश्विक स्तर पर साधने में समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इसकी एक प्रमुख वजह अमेरिकी ट्रंप प्रशासन की नीतियाँ है। अमेरिकी नीतियों ने विश्व के समक्ष अनिश्चितता के माहौल को जन्म दिया है, जिससे भारत के हित भी प्रभावित हो रहे है। भारत के हित जहाँ एक ओर अमेरिकी नीतियों के कारण ईरान और रूस के संदर्भ में प्रभावित हो रहे हैं तो दूसरी ओर भारत-अमेरिका व्यापार पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वहीं चीन की नीति विश्व राजनीति में अपने प्रभाव और शक्ति को बढ़ाने के उद्देश्य से परिचालित है। जो दक्षिण एशिया में भारत के लिये समस्या उत्पन्न कर रही है।
इन चुनौतियों के बावजूद भारत ने पिछले कुछ वर्षों में विदेश नीति के क्षेत्र में अपनी स्थिति को मज़बूत किया है। खाड़ी देशों में भारत की स्थिति मज़बूत हुई है तो वहीं चीन द्वारा भारत की वर्तमान सरकार को लेकर आशावादी रुख अपनाया गया है। चीन पहले ही भारत की डोकलाम विवाद को सुलझाने में दिखाई गई तत्परता तथा एशियाई अवसंरचना बैंक (Asian Infrastructure Bank) में अमेरिका तथा जापान के विरोध के बावज़ूद शामिल होने की सराहना कर चुका है। चीन की यह रणनीति भारत के संदर्भ में एक आशावादी दृष्टिकोण को रेखांकित करती है। लेकिन क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर जिसमें पाकिस्तान का मुद्दा भी शामिल है, चीन की नीति में व्यापक अंतर दिखाई देता है। जो चीन के संदर्भ में भारतीय नीति के समक्ष चुनौती प्रकट करती है उपर्युक्त चुनौतियों से निपटने के लिये भारत को एक संतुलित नीति पर काम करने की आवश्यकता है, जिससे भारतीय हितों को पूर्ण किया जा सके।
ट्रंप प्रशासन की व्यापार नीति तथा भारत
ट्रंप प्रशासन की नीतियों का विश्व के देशों पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। अमेरिका के मित्र राष्ट्र भी इससे प्रभावित हुए हैं, जर्मनी और फ्राँस यहाँ तक की ब्रिटेन भी अमेरिकी नीतियों से असंतुष्ट हैं। अमेरिका ने अपने पड़ोसी कनाडा तथा मेक्सिको के मामले में स्टील और एल्युमीनियम पर शुल्क आरोपित करने का प्रयास किया है, हालाँकि इन देशों की प्रतिक्रिया के पश्चात् उसे शुल्क हटाना पड़ा। भारत भी अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार को लेकर ऐसी ही चुनौतियों का सामना कर रहा है। कुछ समय पूर्व भारत से अमेरिका ने GSP राष्ट्र का दर्जा वापस ले लिया तथा ईरान से तेल आयात करने के लिये भारत को दी गई अस्थायी छूट को भी समाप्त कर दिया है। लेकिन भारत को इन मुद्दों पर जल्दबाजी करने के बजाए इन्हें सावधानी से द्विपक्षीय तथा विश्व व्यापार संगठन (WTO) के माध्यम से सुलझाने की आवश्यकता है। भारत ही नहीं, अमेरिका-चीन के व्यापारिक संबंध भी तनावपूर्ण स्थिति में है। अमेरिका ने चीन पर दंडात्मक शुल्क आरोपित कर दिये हैं, साथ ही संचार क्षेत्र में चीन की एक बड़ी कंपनी हुवाई (Huawei) पर भी गंभीर प्रतिबंध लगा दिये हैं। यह प्रतिबंध विश्व में चीन के बढ़ते महत्त्व और प्रभाव के लिये बड़ा झटका हैं।
Generalized System of Preferences (GSP)
GSP विकसित देशों (सुविधा प्रदाता देश) द्वारा विकासशील देशों (सुविधा प्राप्तकर्त्ता या लाभार्थी देश) के लिये विस्तारित एक अधिमान्य प्रणाली है। वर्ष 1974 के ट्रेड एक्ट (Trade Act) के तहत वर्ष 1976 में शुरू की गई GSP व्यवस्था के अंतर्गत विकासशील देशों को अमेरिका को निर्यात की गई कुछ सूचीबद्ध वस्तुओं पर करों से छूट मिलती है। GSP अमेरिका की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी व्यापार तरजीही (Business Preferential) योजना है, जिसका उद्देश्य हज़ारों उत्पादों को आयात शुल्क में छूट देकर विकासशील देशों केआर्थिक विकास में मदद करना है। इस प्रणाली के तहत विकासशील देशों को विकसित देशों के बाज़ार में कुछ शर्तों के साथ न्यूनतम शुल्क या शुल्क मुक्त प्रवेश मिलता है। विकसित देश इसके ज़रिये विकासशील देशों और अल्प विकसित देशों में आर्थिक विकास को बढ़ावा देते हैं। नामित लाभार्थी विकासशील देशों के लगभग 30-40 प्रतिशत उत्पादों के लिये वरीयता शुल्क मुक्त व्यवस्था सुनिश्चित की जाती है। भारत भी एक लाभार्थी विकासशील देश है। ऑस्ट्रेलिया, बेलारूस, कनाडा, यूरोपीय संघ, आइसलैंड, जापान, कज़ाखस्तान, न्यूज़ीलैंड, नॉर्वे, रूसी संघ, स्विट्ज़रलैंड, तुर्की और अमेरिका GSP को प्राथमिकता देने वाले देशों में प्रमुख हैं।
भारत के रूस के साथ रक्षा सौदे तथा अमेरिकी नीति
भारत ,अमेरिका के साथ व्यापार में उत्पन्न मतभेदों को सुलझाने को लेकर आश्वस्त है, लेकिन भारत के रूस के साथ भविष्य में होने वाले रक्षा सौदे भारत के अमेरिका के साथ रिश्तों में तनाव को बढ़ा सकते हैं। इसका कारण है कि अमेरिका ने CAATSA (Countering America's Adversaries Through Sanctions Act) के अंतर्गत रूस पर प्रतिबंध लगाए हुए हैं जबकि भारत और रूस के मध्य निकट भविष्य में कई रक्षा सौदों को अंजाम दिया जाना है। हालाँकि भारत को अमेरिका नें विशिष्ट उत्पादों, जैसे- S-400 वायु रक्षा प्रणाली के लिये छूट दी है, साथ ही ऐसी रक्षा खरीद जो अतीत में हो चुकीं हैं, से संबंधित उपकरणों और उनके कलपुर्जों पर भी प्रतिबंध लगाने का अमेरिका का इरादा नहीं है। लेकिन भारत रूस से कुछ हथियार प्रणाली जैसे- पनडुब्बी, टैंक, लड़ाकू हवाईजहाज़, जहाज़ (Frigates), AK 203 राइफल की खरीद का विचार बना रहा है। वर्तमान परिस्थितियों में उपर्युक्त रक्षा सौदों को पूरा करना भारत के समक्ष एक चुनौती होगी जिससे निपटनें के लिये भारत को अमेरिका के साथ कूटनीतिक रूप से प्रयासों को बल देना होगा।
क्या है CAATSA?
2 अगस्त, 2017 को अधिनियमित और जनवरी 2018 से लागू इस कानून का उद्देश्य दंडनीय उपायों के माध्यम से ईरान, रूस और उत्तरी कोरिया की आक्रामकता का सामना करना है। यह अधिनियम प्राथमिक रूप से रूसी हितों, जैसे कि तेल और गैस उद्योग, रक्षा एवं सुरक्षा क्षेत्र तथा वित्तीय संस्थानों पर प्रतिबंधों से संबंधित है। यह अधिनियम अमेरिकी राष्ट्रपति को रूसी रक्षा और खुफिया क्षेत्रों (महत्त्वपूर्ण लेनदेन) से जुड़े व्यक्तियों पर अधिनियम में उल्लिखित 12 सूचीबद्ध प्रतिबंधों में से कम-से-कम पाँच लागू करने का अधिकार देता है। इन दो प्रतिबंधों में से एक निर्यात लाइसेंस प्रतिबंध है जिसके द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति को युद्ध, दोहरे उपयोग और परमाणु संबंधी वस्तुओं के मामले में निर्यात लाइसेंस निलंबित करने के लिये अधिकृत किया गया है। यह स्वीकृत व्यक्ति के इक्विटी या ऋण में अमेरिकी निवेश पर प्रतिबंध लगाता है।
ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध और भारत की स्थिति
अमेरिका ने ईरान पर भी बैंकिंग प्रतिबंध आरोपित कर दिये हैं। इन प्रतिबंधों के चलते ईरान से तेल का आयात करना लगभग असंभव हो गया है। हालाँकि भारत के समक्ष इराक, सऊदी अरब, और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) का विकल्प उपलब्ध है, लेकिन ईरान से प्राप्त होने वाला तेल भारत के लिये सस्ता है, साथ ही समीप होने के कारण परिवहन लागत भी अन्य स्रोतों की अपेक्षा कम पड़ती है। इससे भारत के भुगतान संतुलन के प्रभावित होने की संभावना है। अमेरिकी प्रतिबंध ईरान के साथ किये गए समझौते का उल्लंघन तथा एकपक्षीय होने के कारण यूरोपीय संघ, रूस तथा चीन ने इन प्रतिबंधों को स्वीकार नहीं किया है। ज्ञात हो कि इस समझौते में अमेरिका के अतिरिक्त पाँच अन्य राष्ट्र भी (U.S.A., China, Russia, England, France + Germany- P5+1) शामिल थे। विश्व के लगभग सभी देश इन प्रतिबंधों को सही नहीं मानते हैं। यह वैश्विक रवैया भारत, रूस और चीन के लिये उपयोगी हो सकता है। साथ ही यह वैश्विक मत इन देशों को प्रोत्साहित कर सकता है कि किस प्रकार इन प्रतिबंधों को निष्प्रभावी किया जा सकता है। इन प्रयासों में यूरोपीय संघ की भी सहायता ली जा सकती है, जो पहले ही अमेरिकी नीतियों का विरोध करने का मन बना चुका है। भारत को इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है कि ऐसे प्रयास मिलकर ही किये जाने चाहिये।
ईरान परमाणु समझौता
आधिकारिक तौर पर इसे संयुक्त कार्रवाई व्यापक योजना (Joint Comprehensive Plan Of Action-JCPOA) तथा अनौपचारिक रूप से ‘ईरान परमाणु समझौता’ कहा जाता है। वियना में 14 जुलाई, 2015 को ईरान तथा P5 (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य- अमेरिका, चीन, फ्राँस, रूस तथा ब्रिटेन) के साथ-साथ जर्मनी एवं यूरोपीय संघ द्वारा इस समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे। इस समझौते का उद्देश्य ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकना था, जिसमें इसके परमाणु कार्यक्रमों पर रोक लगाने के बदले में तेहरान पर लगे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों को हटाना शामिल था।
भारत के क्षेत्रीय प्रयास
निकट अतीत में भारत की द्विपक्षीय तथा क्षेत्रीय पहलों ने भारतीय हिंद महासागर के क्षेत्र में भारतीय प्रभाव में वृद्धि की है। एक ओर यह प्रभाव मलक्का खाड़ी से लेकर अदन की खाड़ी तक प्रदर्शित हो रहा है तो वहीं दूसरी ओर चीन के प्रभाव तथा उसकी मुखर नीति ने आसियान (Association of Southeast Asian Nations-ASEAN) को कमज़ोर किया है और आसियान की नीति को चीन के हित प्रभावित कर रहे है। जापान, इंडोनेशिया तथा वियतनाम अमेरिका के करीब आ रहे हैं ताकि पूर्वी एशिया में बढ़ रहे चीन के प्रभाव को कम किया जा सके।
पूर्वी एशिया से अलग भारत की लिंक वेस्ट नीति नें खाड़ी के अरब देशों के साथ तेज़ी से संबंधों में सुधार किया है। इन देशों में भारत के 60 लाख से अधिक लोग निवास करते हैं, इन लोगों द्वारा 60 बिलियन डॉलर की धन राशि भी भारत को प्रेषित (Remittance) की जाती है। इन देशों में भारत के कामगारों और पेशेवरों की भी मांग तेज़ी से बढ़ रही है और यह पेशेवर पश्चिमी देशों के पेशेवरों को भी विस्थापित कर रहे हैं, इस तरह इस क्षेत्र में भारत अपनी स्थिति को मज़बूत कर रहा है।
आसियान (Association of Southeast Asian Nations- ASEAN)
आसियान की स्थापना 8 अगस्त,1967 को थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में की गई थी। वर्तमान में ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्याँमार,फिलीपींस,सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम इसके दस सदस्य देश हैं। इसका मुख्यालय इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में है। भारत और आसियान अपने द्विपक्षीय व्यापार को $100 अरब के लक्ष्य तक ले जाने के लिये प्रयासरत हैं। इसके लिये अन्य बातों के साथ-साथ स्थल, समुद्र और वायु कनेक्टिविटी में सुधार पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, ताकि माल और सेवाओं के आवागमन की लागत में कटौती की जा सके।
पाकिस्तान नीति
पाकिस्तान नें भारत के साथ आर्थिक क्षेत्र में अपनी नीतियों के कारण और भारत को अफ़ग़ानिस्तान से व्यापार के लिये ट्रांज़िट मार्ग देने से इनकार करके स्वयं को दक्षिण एशियाई क्षेत्र में आर्थिक एकीकरण से अलग कर लिया है। वहीं दूसरी ओर पुलवामा हमले के पश्चात् पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव में वृद्धि हुई है तथा पाकिस्तान पर आतंकवाद के लिये अपनी ज़मींन उपलब्ध कराने को लेकर भी विभिन्न देशों ने दबाव बनाया है। भारत को पाकिस्तान के साथ वार्ता करने के लिये तेज़ी नहीं दिखानी चाहिये और इंतजार करना चाहिये कि पाकिस्तान आंतकवाद जैसे मुद्दें पर क्या कदम उठाता है। लेकिन करतारपुर जैसी पहलों को बढ़ावा दिया जा सकता है ऐसी पहलें क्षेत्रीय स्तर पर सांस्कृतिक और धार्मिक संबंधों को मज़बूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
निष्कर्ष
बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत के लिये अपने हितों की सर्वोत्तम पूर्ति हेतु विदेश नीति को संचालित करना कठिन हुआ है। भारत इन मुद्दों पर द्विपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों के माध्यम से अपनी स्थिति को मजबूत कर सकता है। अमेरिकी नीतियों को WTO के मंच पर भी चुनौती दी जा सकती है। ईरान मुद्दे पर विभिन्न राष्ट्रों के साथ मिलकर उस पर दबाव बनाया जा सकता है। दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति श्रीलंका और मालदीव को लेकर बेहतर हुई है, साथ ही बिम्सटेक (Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation-BIMSTEC) द्वारा सार्क से उत्पन्न रिक्तता को भी भरने का प्रयास किया जा रहा है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी भारत बहुपक्षीय गठबंधन के माध्यम से चीन को चुनौती दे सकता है, लेकिन भारत को इस बात का भी ध्यान रखना होगा की इससे भारत के संबंध चीन के साथ तनावपूर्ण न हों, साथ ही भारत ऐसी स्थिति में भी न पहुँच जाए कि अमेरिका, चीन के विरुद्ध भारत को एक हथियार के रूप में उपयोग कर सके।
प्रश्न: बदलते वैश्विक परिदृश्य में विदेश नीति का संचालन एक चुनौती बन कर उभरी है आपके विचार में ऐसे कौन से कारक हैं जो विदेश नीति के समक्ष चुनौती उत्पन्न कर रहे हैं?