फॉल आर्मीवार्म की धमक तथा नुकसान पहुँचाने वाले कीटों से संघर्ष | 26 Sep 2018
संदर्भ
हाल ही में कर्नाटक के किसानों के सामने फॉल आर्मीवार्म या स्पोडोप्टेरा फ्रूगीपेर्डा के रूप में एक नई समस्या ने दस्तक दी है। फॉल आर्मीवार्म (एफएडब्लू) या स्पोडोप्टेरा फ्रूजाईपेर्डा (Spodoptera Frugiperda), अमेरिका के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाने वाला एक कीट है। यदि इसे लार्वा अवस्था में ही अच्छी तरह से प्रबंधित नहीं किया गया तो यह फसलों को काफी नुकसान पँहुचा सकता है।
फॉल आर्मीवार्म या स्पोडोप्टेरा फ्रूजाईपेर्डा
- इस कीड़े की पहली पसंद मक्का है लेकिन यह चावल, ज्वार, बाजरा, गन्ना, सब्जियाँ और कॉटन समेत 80 से अधिक पौधों की प्रजातियों को खा सकता है। एफएडब्ल्यू पहली बार 2016 की शुरुआत में मध्य और पश्चिमी अफ्रीका में पाया गया था और कुछ ही दिनों में लगभग पूरे उप-सहारा अफ्रीका में तेज़ी से फैल गया।
- वर्ष 2017 में दक्षिण अफ्रीका में इस कीट के फैलने के कारण फसलों को भारी नुकसान हुआ था। ये कीट सबसे पहले पौधे की पत्तियों पर हमला करते हैं, इनके हमले के बाद पत्तियाँ ऐसी दिखाई देती हैं जैसे उन्हें कैंची से काटा गया हो। ये कीट एक बार में 900-1000 अंडे दे सकते हैं।
- भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे पहले मई, 2018 में इस विनाशकारी कीट की मौजूदगी कर्नाटक में दर्ज की गई थी और तब से अब तक यह पश्चिम बंगाल तथा गुजरात तक पहुँच चुका है। उचित जलवायु परिस्थितियों के कारण यह न केवल पूरे भारत में बल्कि एशिया के अन्य पड़ोसी देशों में भी फैल सकता है। कर्नाटक राज्य भारत में सबसे बड़े मक्का उत्पादकों में से एक है और मक्का देश में व्यापक रूप से उत्पादन किया जाने वाला तीसरा अनाज है।
- वनस्पति संरक्षण, संगरोध एवं संग्रह निदेशालय ने फॉल आर्मीवार्म से प्रभावित राज्यों के कृषि विभागों के लिये एक सलाह जारी की है। इसने कीट के प्रसार को ट्रैक करने हेतु व्यापक सर्वेक्षण किये जाने का सुझाव दिया है। निदेशालय ने एक परजीवी नाम भी सुझाया जिसे कैटरपिलर के अंडों को नष्ट करने के लिये खेतों में छोड़ा जा सकता है। इसके अलावा, निदेशालय ने आर्मीवार्म के खिलाफ लैम्बडा-सिहलोथ्रिन जैसे कीटनाशकों के उपयोग का भी सुझाव दिया, लेकिन साथ ही चेतावनी भी दी कि कीटनाशक और परजीवी का उपयोग एक साथ नहीं किया जाना चाहिये।
आर्मीवार्म के फैलाव की वज़ह
- जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ संक्रमित और गैर-संक्रमित क्षेत्रों के बीच बढ़ता व्यापार और परिवहन फॉल आर्मीवार्म के फैलाव के कारण हैं, जिसने संभावित रूप से दुनिया की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है। गर्म और आर्द्र तापमान (20 से 32 डिग्री सेल्सियस के बीच) तथा लंबे व शुष्क समयांतराल फॉल आर्मीवार्म के प्रजनन के लिये अनुकूल कारक हैं।
- आर्मीवार्म के फैलाव के कुछ अन्य कारण-
- प्रजनन में शीघ्रता।
- भारतीय उपमहाद्वीप के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु का आर्मीवार्म के अनुकूल होना, जो उन्हें पूरे साल भोजन उपलब्ध कराती है।
आर्मीवार्म का नियंत्रण
- इस कीट को नियंत्रित करने के सबसे लोकप्रिय तरीकों में जीएम फसलों और कीटनाशकों का उपयोग शामिल है, हालाँकि, कुछ आर्मीवार्म ने इन रणनीतियों के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है और वे फसलों को नष्ट कर रहे हैं।
- आर्मीवार्म को नियंत्रित करने के लिये वैज्ञानिक प्राकृतिक तरीकों की तलाश में लगे हुए हैं। इन प्राकृतिक तरीकों में हड्डों (Wasps) का पालन तथा जीवाणु-युद्ध (germ warfare) भी शामिल हैं।
भारत में कीट नियंत्रण के कुछ अन्य मामले
- राष्ट्रीय कृषि कीट संसाधन ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, ऑस्ट्रेलिया का यूकेलिप्टस गल वास्प, श्रीलंका का सपोटा सीड बोरर, साउथ अमेरिकन टोमेटो पिनवार्म और पपाया मेलीबग उन तमाम आक्रामक प्रजातियों में से हैं जिन्होंने 2001 के बाद भारत में प्रवेश किया है।
- 2008 में मध्य अमेरिका में पाए जाने वाले पपाया मेलीबग ने भारत में प्रवेश किया और कई राज्यों में वृक्षारोपण के तहत लगाए गए पौधों को नष्ट कर दिया। पपीते के पेड़ के अलावा, यह शहतूत, टैपिओका, हिबिस्कुस तथा कई फलों सहित 80 से अधिक अन्य पौधों का भोजन कर जीवित रह सकता है। तमिलनाडु में दो साल के भीतर यह कीट 50 हेक्टेयर से अधिक के क्षेत्रफल में लगाए गए शहतूत पर फैल गया जिस पर रेशम के कीड़ों का पोषण होता है। उस दौरान तमिलनाडु रेशम उद्योग की कोकून उत्पादकता 60% से अधिक गिर गई।
- कीट के शरीर पर मोम की मोटी परत ने इसे रासायनिक कीटनाशकों का प्रतिरोधी बना दिया था। इस कीट ने भारत में कीटों के कुछ प्राकृतिक दुश्मनों को भी मार डाला, जैसे- लेडी बर्ड बीटल। इन प्रजातियों के कीटों को खत्म करने के लिये इनके प्राकृतिक शिकारियों को इनके मूल देश से आयात किया गया। इस कीट ने शुरुआती दौर में किसानों का हर साल तकरीबन 1,500 करोड़ रुपए का नुकसान किया। कीटनाशकों के छिड़काव से पर्यावरण को भी काफी नुकसान पहुँचा।
- 2014 में टोमेटो पिनवार्म, या ट्यूटा एब्सोल्यूटा (Tuta absoluta), एक दक्षिण अमेरिकी पतंगे, को कर्नाटक में देखा गया था। कुछ सालों के भीतर यह महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली और अन्य क्षेत्रों तक पहुँच गया जहाँ इसने टमाटर की फसल को व्यापक नुकसान पहुँचाया था।
चिंतनीय बिंदु
- आक्रामक प्रजातियाँ वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रतिवर्ष 4 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान पहुँचाती हैं। फिर भी ऐसे संक्रमण आमतौर पर अपने शुरुआती चरणों में या तो ज्ञात नहीं हो पाते या फिर उनका उपचार नहीं हो पाता है। यही उनके फैलाव को बढ़ाता है तथा नियंत्रण प्रक्रिया को और अधिक कठिन बना देता है।
- ऐसी विदेशी प्रजातियाँ जो अपनी मूल भूमि से किसी नई भूमि में स्थानांतरित होती हैं, कृषि और वन्यजीवन दोनों के लिये एक बड़ा खतरा साबित हो सकती हैं। इनमें कीड़े, पेड़, खरपतवार या वायरस शामिल हो सकते हैं। इनमें से कई नए वातावरण में नष्ट हो जाते हैं, कुछ वातावरण के हिसाब से खुद को ढाल लेते हैं, जैसा कि भारत में यूकेलिप्टस की कुछ प्रजातियों के साथ हुआ। वातावरण के हिसाब से ढल जाने वाली प्रजातियाँ अपनी आबादी को बनाए रखती हैं और जैव विविधता के लिये कोई बड़ा जोखिम नहीं पैदा करती हैं।
- लेकिन कुछ विदेशी प्रजातियों का एक छोटा हिस्सा, जैसे कि फॉल आर्मीवार्म आक्रामक हो जाता है, अर्थात वे अनियंत्रित रूप से फैलते हैं। इन प्रजातियों के मूल देशों के प्राकृतिक शिकारियों की अनुपस्थिति उन्हें पारिस्थितिक तंत्र को बाधित करने और भारी आर्थिक नुकसान पहुँचाने की वज़ह बनती है।
भारत की संगरोध (Quarantine) प्रणाली
- एक ऐसी प्रणाली जिसके अंतर्गत पूरे विश्व में बंदरगाहों, हवाई अड्डों और भूमि सीमा पर आयातित अनाज तथा पौधों के आयात का निरीक्षण किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आयातित अनाज या पौधे अपने साथ कोई रोग प्रसारक कीटाणु नहीं ला रहे हैं।
- भारत में संगरोध की ज़िम्मेदारी वनस्पति संरक्षण, संगरोध एवं संग्रह निदेशालय की है जिसका मुख्यालय हरियाणा के फरीदाबाद में है। निदेशालय में कर्मचारियों की कम संख्या और मज़बूत नियमों की कमी ने भारत में सीमाओं की जाँच-पड़ताल को मुश्किल बना दिया है।
- भारत में संगरोध प्रणाली वनस्पति संगरोध आदेश, 2003 (भारत में आयात का विनियमन) द्वारा शासित है, जिसे विनाशकारी कीड़े और कीट अधिनियम, 1914 के तहत अधिसूचित किया गया है।
- वनस्पति संगरोध आदेश के तहत, अनाज या पौधों को केवल प्रवेश के अधिसूचित बिंदुओं के माध्यम से भारत में लाया जा सकता हैं। इनमें 44 बंदरगाह, 23 हवाई अड्डे, 19 भूमि सीमा स्टेशन, साथ ही विदेशी डाकघर और कंटेनर डिपो शामिल हैं। इन सभी बिंदुओं पर प्रत्येक आयातित वस्तु का निरिक्षण वनस्पति संरक्षण निदेशालय के अधिकारियों द्वारा किया किया जाना चाहिये।
भारत में संगरोध प्रणाली की समस्याएँ
- इनमें से कुछ बंदरगाहों पर निदेशालय के प्रमुख विशेषज्ञों की कमी होती है। कुछ संगरोध स्टेशनों में सूत्रकृमि विज्ञानी (निमेटोलॉजिस्ट- वैज्ञानिक जो गोलकृमियों का अध्ययन करते हैं) नहीं होते हैं जबकि अन्य वायरोलॉजिस्ट गायब होते हैं। यहाँ तक कि जब वायरोलॉजिस्ट मौजूद हों, तब यह हो सकता है कि उनके पास वायरस का पता लगाने के लिये एलिसा परीक्षण किट जैसे उपकरण नहीं हैं।
- इसके अलावा, यात्रियों द्वारा पौधों की सामग्री के आयात को विनियमित करने में भी अंतर हैं। संगरोध आदेश के तहत लगभग 2 किलोग्राम फूल और ‘ड्राई फ्रूट’ ले जाने की अनुमति है, लेकिन किसी भी बीज या फूलों की बड़ी मात्रा लाने के लिये प्रमाण पत्र होना चाहिये जो यह घोषित करे कि वे कीटों और सूक्ष्म जीवों से मुक्त हैं। प्रमाण पत्र नहीं होने की स्थिति में, अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आने वाले ऐसे यात्रियों को खुद ही इसकी घोषणा करनी होगी। लेकिन इस लंबी और बोझिल प्रक्रिया का यात्रियों द्वारा शायद ही पालन की जाता है।
आगे की राह
- भारत के मामले में मज़बूत संगरोध प्रणाली फॉल आर्मीवार्म के प्रवेश को नहीं रोक सकती है लेकिन उसके प्रभावों को कम कर सकती है।
- विदेशी फलों और फूलों को लाने के कारण होने वाले नुकसान को साइनबोर्ड पर चेतवानी के रूप में हवाई अड्डों पर लगाना, जागरूकता पैदा कर सकता है।
- वनस्पति संगरोध अधिकारियों को बेहतर प्रशिक्षण देना और खतरनाक प्रजातियों का पता लगाने के लिये उन्हें उपकरण प्रदान करना देश में आक्रामक वनस्पतियों के प्रवेश की संभावना को कम कर सकता है।
- भारत को ऑस्ट्रेलिया जैसे देश से सीख लेनी चाहिये जिसने यात्रियों के पास कृषि सामग्री का पता लगाने के लिये स्निफर कुत्तों को नियुक्त किया है। इसमें स्कैनर भी लगा है जो यात्रियों के सामान में बीज जैसे यौगिक पदार्थों का पता लगा सकता है। इसके अलावा, नियमों का उल्लंघन करने वाले लोगों के लिये कड़े दंड का प्रावधान भी है।
- वर्तमान संगरोध प्रणाली में चूक की व्यापक संभावना के बाद कृषि जैव सुरक्षा बिल नामक एक नया विधेयक 2013 में लोकसभा में पेश किया गया था। हालाँकि, यह विधेयक पारित नहीं हो पाया। देश में संगरोध सुविधाओं में सुधार के लिये ऐसे कानूनों को लाना आवश्यक है।