फीकल स्लज मैनेजमेंट : शहरी स्वच्छता के लिये आवश्यक अवयव | 20 Nov 2017

संदर्भ

19 नवंबर 2017 को विश्व शौचालय दिवस के रूप में मनाया गया, जिसकी थीम “अपशिष्ट जल एवं मलयुक्त गाद प्रबंधन” (Wastewater & Faecal Sludge Management) थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि 2014 में शुरू किये गए स्वच्छ भारत मिशन के कारण लोगों में शौचालयों के इस्तेमाल को लेकर जागरूकता में वृद्धि हुई है। भारत में खुले में शौच की दर विश्व की 60 प्रतिशत है। इस चुनौती का सामना करने के लिये सरकार द्वारा शौचालयों के निर्माण के लिये गरीबों को सब्सिडी प्रदान करने जैसे कुछ केंद्रित प्रयास किये गए हैं, हालाँकि इसमें से बहुत कुछ कार्य ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है। शहरी गरीबों खासकर छोटे शहरों में स्वच्छता पर काफी कम ध्यान दिया गया है, इसलिये यहाँ ग्रामीण स्वच्छता की तुलना में कम राशि आवंटित हुई। परंतु केवल शौचालयों के निर्माण तथा उपयोग मात्र से पूर्ण स्वच्छता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 

सतत् विकास लक्ष्यों में विश्व के सभी लोगों के लिये पेयजल और स्वच्छता सुनिश्चित करने वाला छठा लक्ष्य भी मात्र शौचालयों के निर्माण तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य स्वच्छता के संपूर्ण चक्र में सुधार लाना है। हालाँकि इस चक्र की शुरुआत अवश्य शौचालयों के निर्माण से होती है, परंतु इसका सटीक अंत अपशिष्ट के सुरक्षित निपटान में निहित है। 

अपशिष्ट का उचित निपटान क्यों आवश्यक है?

स्वच्छता का सीधा संबंध मानव-स्वास्थ्य से है। यदि मानव-मल का प्रबंधन और उपचार ठीक तरीके से नहीं किया जाता है तो यह खाद्य श्रृंखला में शामिल होकर उसे गंभीर रूप से प्रदूषित कर हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल सकता

भारतीय शहरों में वर्तमान स्थिति

शहरी स्वच्छता की चुनौतियाँ कई तरह की हैं और इनकी उपेक्षा करना स्वच्छता के मोर्चे पर भारत का प्रदर्शन पीछे करने जैसा होगा।

  • शहरी क्षेत्रों की मलिन बस्तियों में (अधिसूचित और गैर अधिसूचित) रहने वाले गरीबों को स्वच्छता की उपलब्धता बहुत कम है।
  • शहरी विकास मंत्रालय का अनुमान है कि गैर अधिसूचित मलिन बस्तियों में 51 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं हैं। तेज़ी से हो रहा शहरीकरण एक वास्तविकता है और शहरी स्वच्छता की रणनीति वहाँ विकसित हो रही नई और अवैध बस्तियों से तालमेल रखने में सक्षम नहीं है।
  • शहरों में अन्य ढाँचागत निवेश की तुलना में स्वच्छता पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। इसके अतिरिक्त बड़े शहरों में स्वच्छता पर जो भी निवेश किया जा रहा है वह ज़्यादातर आबादी के बेहतर वर्गों पर केंद्रित है। अधिकांश निवेश सीवर नेटवर्क के विकास, मल-जल उपचार संयंत्र आदि पर किया जा रहा है। हालाँकि इनमें से ज़्यादातर कार्य शहरों के उस हिस्से में हो रहा है, जहाँ उन्नत वर्ग रहता है।
  • यदि ठोस अपशिष्ट प्रबंधन को छोड़ दिया जाए तो छोटे कस्बों में मलयुक्त गाद का प्रबंधन और तरल अपशिष्ट प्रबंधन खाली पड़ी खंती में होता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार भारत के 8000 कस्बों में से केवल 160 कस्बों में सीवेज सिस्टम और सीवेज उपचार संयंत्र हैं। 
  • 2011 की जनगणना के अनुसार केवल 32.7 प्रतिशत शहरी परिवार पाइप वाली सीवर प्रणाली से जुड़े हैं जबकि 38.2 प्रतिशत परिवार अपने मल का निपटारा सेप्टिक टैंक और 7 प्रतिशत गड्ढा (pit) शौचालयों में करते हैं। यह बताता है कि ऐसे परिवारों की संख्या बहुत ज्यादा है जो वहीं (on-site) निपटारा करते हैं। 
  • मलिन बस्तियों में से अधिकांश सरकारी ज़मीन या अन्य ज़मीन पर होती हैं और इन्हें ‘अवैध’ समझा जाता है। ज़मीन का स्वामित्व न होने का मुद्दा इन मलिन बस्तियों के घरों के लिये सीवर नेटवर्क जैसी बुनियादी व्यवस्था उपलब्ध नहीं करवाने का कारण बन जाता है। इन स्थानों पर अपशिष्ट का निपटारा एक बड़ी चुनौती बन जाता है और यह अपशिष्ट खुली नालियों और अन्य जल निकायों में बहता है।

अपशिष्ट निपटान कैसा होना चाहिये?

एक आदर्श निकास प्रणाली में पूरी तरह से लीकेजरहित और भूमिगत पाइप का नेटवर्क होता है, जिसे हम सीवर नेटवर्क कहते हैं और साथ ही इसमें एक सीवेज उपचार संयंत्र (sewage treatment  plant ) भी होता है। भारत की एक तिहाई शहरी आबादी जो मूल रूप से महानगरों में रहती है, उसे ये प्रणाली उपलब्ध है। 

एक अन्य सीवरेज तंत्र है जिसे ऑन साइट तंत्र भी कहा जाता है। इसमें एक सेप्टिक टैंक या गड्ढा शौचालय (pit-latrines) होता है। कई भारतीय घरों में यही प्रणाली प्रचलित है।  इसमें मानव अपशिष्ट का बिना किसी लीकेज के सुरक्षित संग्रहण होता है। इस प्रणाली के अंतर्गत मानव-अपशिष्ट के सुरक्षित संग्रहण, वहन और उपचार (treatment) को सेप्टेज प्रबंधन कहा जाता है। इसमें मल-अपशिष्ट को विशेष वाहनों से ट्रीटमेंट प्लांट तक ले जाया जाता है, जहाँ इसका सुरक्षित और कारगर उपचार किया जाता है। दूसरे शब्दों में इस प्रक्रिया को ही मलयुक्त-गाद प्रबंधन –FSM (Faecal Sludge Management) कहा जाता है। 

मलयुक्त गाद प्रबंधन के समक्ष चुनौतियाँ 

  • सर्वेक्षणों से पता चला है कि ऑन-साइट तंत्र उचित तरीके से निर्मित नहीं किये गए हैं। साथ ही सरकार द्वारा जारी सेप्टिक टैंक और pit की मानक डिज़ाइनों की जानकारी भी लोगों को नहीं है।
  • ख़राब डिज़ाइन वाले इन गड्ढों से पेय जल के प्रदूषित हो जाने की संभावना अधिक है। 
  • मलीय अपशिष्ट का वहन विशेष वाहनों से किया जाना चाहिये, जबकि अब भी कई स्थानों पर लोगों द्वारा हाथों से मल उठाया व ढोया जाता है।
  • नियमित अंतराल में इन सेप्टिक टैंकों की सफाई न होना भी एक समस्या है।
  • संग्रहण के बाद अपशिष्ट का सही उपचार भी ज़रूरी है। पर्याप्त संख्या में मलोपचार संयंत्रों (Sludge treatment plants) का न होना भी स्वच्छता की राह में एक चुनौती है।

संभावित उपाय

  • नई इमारतों के निर्माण की अनुमति देने के पहले ही निर्माणकर्त्ता या आवेदनकर्त्ता से भवन या इमारत में प्रयुक्त होने वाले सीवेज के डिज़ाइन के बारे में अग्रिम जानकारी ले लेनी चाहिये।
  • गड्ढों व सेप्टिक टैंक की सफाई करने वाले सफाईकर्मियों की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये। यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि सफाईकर्मी के पास सभी आवश्यक सुरक्षा उपकरण हों।
  • नागरिकों के तौर पर हमारी ज़िम्मेदारी है कि हमारे घरों के सेप्टिक टैंक नियमित अंतराल में साफ होते रहें। 
  • सरकार और संबंधित निकायों से सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्रों के निर्माण के लिये निवेश की मात्रा बढ़ाए जाने की मांग की जानी चाहिये। 

निष्कर्ष

स्वस्थ मानव-जीवन के लिये स्वच्छता एक अपरिहार्य आवश्यकता है। किसी भी परिस्थिति में इसकी उपेक्षा संभव नहीं है। नीति-निर्माताओं तथा नागरिकों दोनों को ही ये ध्यान देना होगा कि केवल खुले में शौच की प्रवृत्ति पर प्रतिबंध, नए शौचालयों के निर्माण और उनकी गणना से ही स्वच्छता जैसा लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसके लिये मानव-अपशिष्ट के उचित निपटान की अचूक और कारगर व्यवस्था भी की जानी ज़रूरी है। जिसमें FSM (Faecal sludge management ) सहायता कर सकता है।