लाभ का पद: अर्थ व प्रावधान | 21 Mar 2018

संदर्भ
हाल ही में चुनाव आयोग द्वारा लाभ का पद (Office of Profit) के उल्लंघन के मामले में राष्ट्रपति से दिल्ली के विधायकों की सदस्यता रद्द करने की सिफारिश किये जाने के पश्चात् राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने दिल्ली की आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों को अयोग्य करार दे दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय वर्तमान में निर्वाचित विधायकों की याचिका पर चुनाव आयोग की सिफारिश के खिलाफ सुनवाई कर रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा इन विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया था, जो कि एक लाभ का पद है। इस आलेख में हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि लाभ का पद क्या होता है और इससे संबंधित प्रावधान क्या हैं?   

लाभ का पद से तात्पर्य

  • भारत के संविधान में अनुच्छेद 102(1)(a) तथा अनुच्छेद 191(1)(a) में लाभ के पद का उल्लेख किया गया है, किंतु लाभ के पद को परिभाषित नहीं किया गया है।
  • अनुच्छेद 102(1)(a) के अंतर्गत संसद सदस्यों के लिये तथा अनुच्छेद 191(1)(a) के तहत राज्य विधानसभा के सदस्यों के लिये ऐसे किसी अन्य पद पर को धारण करने की मनाही है जहाँ वेतन, भत्ते या अन्य दूसरी तरह के सरकारी लाभ मिलते हों। इस तरह के लाभ की मात्रा का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
  • अगर कोई सांसद/विधायक किसी लाभ के पद पर आसीन पाया जाता है तो संसद या संबंधित विधानसभा में उसकी सदस्यता को अयोग्य करार दिया जा सकता है। केंद्र सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, किसी भी विधायक द्वारा सरकार में ऐसे ‘लाभ के पद’ को हासिल नहीं किया जा सकता है जिसमें सरकारी भत्ते या अन्य शक्तियाँ मिलती हैं। 
  • जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 9 (ए) में भी सांसदों व विधायकों को लाभ का पद धारण करने की मनाही है।

लाभ का पद संबंधी प्रावधानों की आवश्यकता

  • संविधान में इन प्रावधानों को शामिल करने का उद्देश्य निति निर्माण के इन निकायों (संसद व विधानमंडल) को किसी भी तरह के दबाव से मुक्त रखना था। क्योंकि अगर लाभ के पदों पर नियुक्त व्यक्ति विधानसभा का भी सदस्य होगा, तो हो सकता है कि वह अपने लाभ के लिये निर्णयों को प्रभावित करने का प्रयास करे।
  • इसके पीछे मूल भावना यह है कि निर्वाचित सदस्य के कर्त्तव्यों और हितों के बीच कोई संघर्ष नहीं होना चाहिये।
  • संविधान के अनुसार विधायिका सरकार को नियंत्रित करती है। इस नियंत्रण को कम करने के लिये विधायकों को खुश करने एवं लाभ पहुँचाने हेतु उन्हें लाभ के कुछ पद प्रदान कर दिए जाते हैं। इस प्रकार विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत को कमजो़र किया जा सकता है।
  • इस प्रकार लाभ का पद संबंधी प्रावधान संविधान में वर्णित - विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत को लागू करने का ही एक प्रयास है।

क्या कानून बनाकर लाभ के पद से छूट दी जा सकती है?

  • संविधान, संसद/विधायिका को लाभ के किसी भी पद को धारण करने वाले को छूट प्रदान करने हेतु कानून पारित करने की अनुमति प्रदान करता है।
  • कानून के दायरे से कितने पदों को छूट दी जा सकती है, इस पर कोई उपरी सीमा नहीं है। 2015 में नागालैंड विधानसभा के सभी 60 विधायक सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल हुए थे। जुलाई 2017 में नागालैंड के मुख्यमंत्री ने संसदीय सचिवों के रूप में 26 विधायकों की नियुक्ति की। 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा में भी 21 विधायकों को संसदीय सचिवों के रूप में नियुक्त किया गया था। 
  • वर्तमान में निम्नलिखित प्रावधान सांसदों एवं विधायकों को लाभ के पद से छूट प्रदान करते हैं -
    ♦ किसी भी सांसद या विधायक के मंत्री पद को भारत सरकार या किसी भी राज्य की सरकार के तहत लाभ का पद नहीं माना जाएगा। किंतु संविधान में निर्दिष्ट है कि मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15% के भीतर होनी चाहिये (दिल्ली के मामले में 10%, जो विधायिका के साथ संघ राज्य क्षेत्र है)।
    ♦ संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 भी किसी सांसद या विधायक को सरकारी पद को ग्रहण करने की अनुमति देते हैं यदि कानून के माध्यम से उन पदों को लाभ के पद से उन्मुक्ति दी गई है।
    ♦ कई राज्य विधानसभाओं ने कानून बनाकर कुछ पदों को लाभ के पद से बाहर रखा है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि ने कानून बनाकर संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद से बाहर रखने के लिये कानून का निर्माण किया है।
    ♦ संसद ने भी संसद (अयोग्यता निवारण) अधिनियम, 1959 अधिनियमित किया है। जिसमें उन पदों की सूची दी गई है जिन्हें लाभ के पद से बाहर रखा गया है। संसद ने समय - समय पर इस सूची में विस्तार भी किया है।

न्यायपालिका व लाभ का पद

  • लाभ के पद का संविधान में उल्लेख तो है किंतु इसे परिभाषित नहीं किया गया है। वर्तमान में लाभ के पद के संदर्भ में भारत में कोई स्थापित प्रक्रिया नहीं है। न्यायालय ने समय - समय पर इस संदर्भ में अपने निर्णय में लाभ के पद के लिये कुछ कारकों का वर्णन किया है।
  • 1964 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि कोई व्यक्ति लाभ के पद पर है या नहीं है इसके लिये उसकी नियुक्ति से संबंधित कुछ बिंदुओं का परीक्षण किया जाना चाहिये। इस निर्धारण में कई कारकों पर विचार किया जाता है, जैसे -
    ♦ क्या सरकार नियुक्ति प्राधिकारी है? 
    ♦ क्या सरकार को नियुक्ति समाप्त करने की शक्ति है? 
    ♦ क्या सरकार उस पद से संबंधित पारिश्रमिक को निर्धारित करती है? 
    ♦ पारिश्रमिक का स्रोत क्या है? क्या पारिश्रमिक को सरकार द्वारा दिया जाता है? 
    ♦ उस पद के कर्त्तव्य क्या हैं? उस पद को धारण करने वाला व्यक्ति किस प्रकार के  कार्यों का निष्पादन करता है? क्या सरकार इन कार्यों के निष्पादन पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण रखती है?

संसदीय सचिव से संबंधित प्रावधान व उनकी वैधता

  • संसदीय सचिव विधानमंडल का एक सदस्य होता है, जो अपने कार्यों द्वारा अपने से वरिष्ठ मंत्रियों की सहायता करता है। मूल रूप से इस पद के निर्माण का उद्देश्य भावी मंत्रियों के प्रशिक्षण के लिये किया गया था। परंतु माना जाता है कि संसदीय सचिव का पद मूल रूप से कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्ति-पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
  • अनुच्छेद 239AA(4) के तहत संसदीय सचिव मंत्री नहीं माने जाते हैं, क्योंकि उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा नहीं की जाती है, किंतु इन्हें मंत्री जैसी ही सुविधाएँ प्राप्त होती हैं।
  • उल्लेखनीय है कि कई राज्यों में संसदीय सचिवों के रूप में विधायकों की नियुक्ति को लाभ के पद के दायरे से बाहर रखने के कानूनों को न्यायपालिका ने अवैध घोषित किया है। जबकि अन्य पदों पर नियुक्ति को अवैध घोषित नहीं किया गया है। उसके बावजूद राज्य सरकारें दूसरे पदों पर नियुक्ति की बजाय संसदीय सचिवों के रूप में विधायकों की नियुक्ति क्यों करना चाहती हैं?
  • 2015 में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एक फैसला देते समय कहा कि संसदीय सचिवों (जूनियर मंत्री) के रूप में विधायकों की नियुक्ति कर सरकारें संविधान में वर्णित मंत्रियों की संख्या की सीमा को बाईपास करना चाहती हैं, जो कि गैर संवैधानिक है ।
  • 2009 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी कहा कि कैबिनेट मंत्री के पद और स्थिति के समान संसदीय सचिवों की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 164 (1 ए) का उल्लंघन है।
  • अनुच्छेद 164 (1 ए) निर्दिष्ट करता है कि मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या विधानसभा में कुल सदस्यों की संख्या के 15% से अधिक नहीं होनी चाहिये।

निष्कर्ष
यह चिंता का विषय है कि इतनी बड़ी संख्या में (दिल्ली में लगभग 40% एवं नागालैंड में लगभग 43%) विधायकों को ऐसे पदों पर (कार्यालयों में) नियुक्त किया जा रहा है। क्योंकि अगर इतनी बड़ी संख्या में विधायकों को ऐसे पदों पर नियुक्त किया जाएगा तो सरकार के काम पर नियंत्रण रखने की उनकी भूमिका प्रभावित हो सकती है। इस प्रकार, यह संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 की भावना का उल्लंघन करने के साथ – साथ संविधान में उल्लेखित विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है। संसदीय सचिवों की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 164 (1 ए) का भी उल्लंघन है।