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सामाजिक न्याय

प्राथमिक देखभाल चिकित्सकों का सशक्तीकरण

  • 14 Sep 2019
  • 12 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में प्राथमिक देखभाल चिकित्सकों के प्रतिनिधित्व तथा उनकी भूमिका पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं के संदर्भ में जापान की विशेषता यह है कि वह अपनी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में विशेषज्ञों के प्रभुत्व को बनाए रखने में कामयाब रहा है और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में प्राथमिक देखभाल चिकित्सकों (Primary Care Practitioners- PCP) को प्रमुखता से प्रतिनिधित्व प्रदान किया है।

जापान में आधुनिक चिकित्सा पद्धति के आरंभिक इतिहास में अस्पताल केवल एक संपन्न तबके को सेवा प्रदान करने तक ही सीमित थे। सरकार ने अस्पतालों के वित्तपोषण पर अंकुश लगाए रखा और उन्हें मेडिकल छात्रों के प्रशिक्षण एवं संक्रामक मामलों के पृथक्करण जैसे कार्यों तक सीमित कर दिया। निजी क्लीनिकों और अस्पतालों के डॉक्टरों के बीच पारस्परिक संबंध निषिद्ध थे, जिससे दोनों समूहों के बीच किसी मज़बूत गठजोड़ की संभावना अवरुद्ध रही; जबकि दूसरी ओर, क्लीनिक-आधारित प्राथमिक देखभाल चिकित्सकों की एक मज़बूत लॉबी का उभार हुआ जिसने संतुलन को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के पक्ष में बनाए रखा। वर्ष 1927 में जापानी सामाजिक स्वास्थ्य बीमा को लागू किया गया और शुल्क सूची के निर्धारण में जापानी मेडिकल एसोसिएशन प्रमुख प्रतिनिधि बना रहा जिसके अंदर प्राथमिक देखभाल चिकित्सकों का प्रभुत्व था।

इसके विपरीत भारत में आरंभ से ही अस्पताल उन्मुख स्वास्थ्य देखभाल प्रौद्योगिकी-केंद्रित मॉडल ने अपनी जड़ें जमाई हैं। समुदाय-आधारित प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को सशक्त बनाने के बजाय सार्वजनिक निवेश के माध्यम से शहरी अस्पतालों के निर्माण को प्राथमिकता दी गई। इसके साथ-साथ एक अनियंत्रित अनियमित दोहरी-अभ्यास प्रणाली (सार्वजनिक और निजी, दोनों क्षेत्रों में एक साथ सक्रिय चिकित्सक) वाले निजी क्षेत्र का उभार हुआ। इसने चिकित्सकों को एक शक्तिशाली समूह के निर्माण का अवसर दिया जिनके अपने हित थे। चिकित्सकों के इस प्रभावशाली समुदाय ने ‘सुपर-स्पेशियलिटी मेडिसिन’ में आकर्षक भविष्य को देखते हुए प्रौद्योगिकी-केंद्रित दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया और इसे संपन्न एवं मध्यम वर्ग का भी सहयोग प्राप्त हुआ। घटनाओं के इस प्रक्षेपवक्र का वर्तमान भारतीय स्वास्थ्य देखभाल पर व्यापक प्रभाव पड़ा है।

भारत में 'हाई-टेक' चिकित्सा देखभाल पर ज़ोर

  • देश का संपन्न तबका हमेशा से 'हाई-टेक' चिकित्सा देखभाल पर ज़ोर देता रहा है, लेकिन अब समाज के कमज़ोर तबके ने भी इस पर ज़ोर देना शुरू कर दिया है, जबकि इन सेवाओं के भुगतान के लिये उसके पास संसाधनों का अभाव है।
  • आयुष्मान भारत जैसी वृहतकाय स्वास्थ्य बीमा योजनाएँ, जो निजी अस्पताल में भर्ती होने के लिये गरीबों को बीमा प्रदान करने पर ज़ोर देती हैं तथाकथित उच्च-गुणवत्ता की लोकप्रिय मांग से ही आंशिक रूप से प्रभावित होकर शुरू की गई हैं। जबकि सच्चाई यह है कि दरिद्रता की स्थिति उत्पन्न करने वाले अधिकांश खर्चों में बुनियादी चिकित्सा देखभाल शामिल हैं और इन्हें वर्तमान स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में व्याप्त विकृति का ही साक्ष्य माना जा सकता है।
  • इस तरह की चिकित्सा ने जिस तरह से जनशक्ति और इसकी गतिशीलता को प्रभावित किया है, उस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत की स्वास्थ्य प्रणाली में प्रमुख किरदार के रूप में एक 'सामाजिक चिकित्सक' (Social Physician) की आवश्यकता पर प्रकाश डालने वाले ऐतिहासिक भोरे समिति की रिपोर्ट (1946) के बाद 37 वर्षों का समय लग गया और तब अंततः एक अलग विशेषज्ञता के रूप में ‘पारिवारिक चिकित्सा’ (Family Medicine) की पहचान की गई और इसके बाद फिर डेढ़ दशक गुज़र जाने के पश्चात इस पारिवारिक चिकित्सा में स्नातकोत्तर रेजीडेंसी पाठ्यक्रम की पेशकश की गई।

“भोरे समिति की रिपोर्ट (1946) के मार्गदर्शन में परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू किया गया था, वर्ष 1977 में इसका नाम बदलकर ‘परिवार कल्याण कार्यक्रम’ कर दिया गया। इसी कार्यक्रम के अंतर्गत रोगों से प्रतिरक्षण की दिशा में वर्ष 1992 में ‘बाल जीवन रक्षा तथा सुरक्षित मातृत्व कार्यक्रम’ शुरू किया गया।”

प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का प्रतिनिधित्व

  • देश में चिकित्सकों का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वोच्च पेशेवर निकाय भारतीय चिकित्सा परिषद (Medical Council of India- MCI) स्वयं विशेषज्ञों के प्रभुत्व में है जहाँ प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का कोई प्रतिनिधित्व मौजूद नहीं है। भारतीय चिकित्सा परिषद को एक राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (National Medical Commission- NMC) से स्थानांतरित किये जाने का प्रस्ताव है लेकिन इस नए संगठन के बाद भी परिदृश्य के बदल जाने की संभावना नज़र नहीं आती।
  • NMC अधिनियम 2019 के अंतर्गत मध्य-स्तर के चिकित्सा सेवा प्रदाताओं को प्रशिक्षित किये जाने का वर्तमान में विरोध किया जा रहा है जो इस बात का एक और उदाहरण है कि वर्तमान शक्ति संरचना प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के प्रति कितनी विद्वेषपूर्ण है। इस साक्ष्य की उपस्थिति के बावजूद कि अल्पकालिक पाठ्यक्रमों (2-3 वर्ष का पाठ्यक्रम) के माध्यम से प्रशिक्षित आधुनिक चिकित्सा के पेशेवर (जिन्हें चिकित्सा सहायक/Medical Assistants कह सकते हैं) ग्रामीण आबादी को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में व्यापक सहायता कर सकते हैं, भारत में ऐसे किसी भी प्रस्ताव का रूढ़िवादी एलोपैथिक समुदाय द्वारा कड़ा विरोध किया जाता है। आयुर्वेद जैसी चिकित्सा पद्धति के चिकित्सकों को आधुनिक चिकित्सा में प्रशिक्षित करने के प्रस्ताव को भी इसी तरह के विरोध का सामना करना पड़ता है।
  • ऐसे चिकित्सा सहायकों और गैर-एलोपैथिक चिकित्सकों को हमेशा नीम-हकीम या झोला-छाप और यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि ये ग्रामीण जनता के स्वास्थ्य को खतरे में ही डालेंगे। इस तरह की आलोचना इस तथ्य की अनदेखी करती है कि यू.के. और यू.एस. जैसे देश आधुनिक चिकित्सा में दो वर्षीय पाठ्यक्रमों के माध्यम से चिकित्सक सहायक या सहयोगी बनने के दिये लगातार पैरामेडिक्स और नर्सों को प्रशिक्षित कर रहे हैं।

यू.के. और जापान के उदाहरण

  • यू.के. और जापान सहित कई देशों ने एक समाधान के रूप में आर्थिक व गैर-आर्थिक दोनों ही संदर्भों में सामान्य चिकित्सकों (General Practitioners- GPs) को उदार प्रोत्साहन प्रदान किया है और वे निष्ठापूर्वक एक ऐसी प्रणाली को आकार दे रहे हैं जो प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का मज़बूती से समर्थन करती है। इस सतर्क संपोषण का अर्थ यह है कि जहाँ हमारे देश में पेशेवरों ने एक सकारात्मक परिवर्तन के प्रति विद्वेष और विरोध की भावना रखी है, वहीं इन देशों में उसी समुदाय के पेशेवरों ने इसी सकारात्मक परिवर्तन की रक्षा करने में मदद की है।

निष्कर्ष

यहाँ तीन व्यापक निष्कर्ष उभरते हैं:

  • पहला, यह आवश्यक है कि ‘हॉस्पिटल’ नामक वृहद् संरचनाओं से स्वास्थ्य देखभाल सेवा को सक्रियता से मुक्त कराया जाए। यह धीरे-धीरे आम आदमी की अपेक्षाओं और चिकित्सा पेशेवरों की आकांक्षाओं में परिवर्तन ला सकता है जहाँ वे उच्च तकनीक, सुपर-स्पेशियलिटी देखभाल की भ्रमित दिशा से विमुख होंगे। यद्यपि, वर्तमान प्रवृत्तियों को देखें तो यह एक दूरगामी संभावना ही नज़र आती है।
  • दूसरा, हमें प्राथमिक देखभाल चिकित्सकों को पर्याप्त रूप से सशक्त और उदात्त बनाने का तरीका खोजने की ज़रूरत है और इसके साथ ही उन्हें स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में प्रमुखता से प्रतिनिधित्व प्रदान करना होगा। यह प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों के एक मज़बूत तबके का उभार करेगा जो फिर अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिये सक्रिय रहेंगे।
  • तीसरा, एक ‘गेट-कीपिंग सिस्टम’ की आवश्यकता है जहाँ किसी के पास भी प्राथमिक चिकित्सक को दरकिनार कर सीधे विशेषज्ञ तक पहुँचने की अनुमति न हो (आपात स्थिति को छोड़कर)। इस तरह की प्रणाली के कारण ही यू.के. की स्वास्थ्य प्रणाली में सामान्य चिकित्सक और प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल दोनों सफल हुए हैं।

भारत में व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के प्रति जब फिर से विमर्श की शुरुआत हुई है तो उम्मीद की जा सकती है कि इन महत्त्वपूर्ण सबकों को याद रखा जाएगा।

प्रश्न: क्या यह आवश्यक है कि ‘हॉस्पिटल’ नामक वृहद् संरचनाओं से स्वास्थ्य देखभाल सेवा को मुक्त कराया जाए और सामान्य चिकित्सकों को प्रोत्साहित किया जाए। अपने उत्तर के पक्ष में उचित तर्क प्रस्तुत कीजिये।

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