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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

चुनावी भाषण के सन्दर्भ में “भ्रष्ट आचरण” का प्रश्न कितना जायज़?

  • 12 Jan 2017
  • 12 min read

पृष्ठभूमि

  • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (The Representation of People’s Act, 1951 ) की धारा 123 की व्याख्या के केंद्र में मुख्य विषय मुक्त भाषण का है| जैसा कि ज्ञात है, अधिनियम की धारा 123 के अंतर्गत भाषण पर प्रतिबंध का प्रावधान किया गया है, ऐसे में यह और अधिक आवश्यक हो जाता है कि इस धारा के तहत अधिरोपित प्रतिबंधों एवं इस कानून के मूल उद्देश्य को समझा जाए| 
  • वस्तुतः इस अधिनियम के अंतर्गत देश में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार(Universal adult franchise) के माध्यम से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने की गारंटी (संविधान के अनुच्छेद 325 एवं 326 के अंतर्गत) सुनिश्चित की गई है| ध्यातव्य है कि सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का आधार हमारी नागरिकता का स्पष्ट प्रमाण है| स्पष्ट है कि जब हम अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं तो हम भारत के नागरिक के रूप में ही मत देते हैं|

प्रमुख बिंदु

  • उक्त अधिनियम के अंतर्गत निहित प्रावधानों में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिये भारत के चुनाव आयोग को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है| 
  • इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम की धारा 123 के तहत कुछ विशेष गतिविधियों को “भ्रष्ट गतिविधियों” के रूप में भी वर्गीकृत किया गया है, मसलन धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय, भाषा के प्रयोग अथवा धार्मिक प्रतीकों के आधार पर चुनाव में उम्मीदवारों द्वारा वोट मांगे जाने को एक “भ्रष्ट आचरण“ के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा|
  • इसके अतिरिक्त, यदि किसी उम्मीदवार के “भ्रष्ट आचरण” के अनुपालन को साबित कर दिया जाता है तो उक्त अधिनियम की धारा 100 के अंतर्गत उस उम्मीदवार की चुनावी योग्यता को शून्य घोषित कर दिया जाएगा|
  • हाल ही में बहुप्रतीक्षित हिंदुत्व मामले (Hindutva case) में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ (Constitutional Bench) द्वारा यह फैसला सुनाया गया कि यदि चुनाव में कोई भी उम्मीदवार धर्म, जाति, भाषा अथवा नस्ल आदि के आधार पर वोट मांगता हुआ पाया जाता है तो उस व्यक्ति की उम्मीदवारी को “भ्रष्ट आचरण” करार देते  हुए शून्य घोषित कर दिया जाएगा| 
  • उल्लेखनीय है कि अधिनियम की धारा 123 के अंतर्गत वर्णित “उसके धर्म” (his religion) शब्द के भाव को संवैधानिक पीठ द्वारा व्याख्यायित नहीं किया गया है, ऐसे में हमेशा यह संदेह बना रहेगा कि क्या उम्मीदवार के/की धार्मिक मान्यता को आधार मानकर उसके कृत्य को “भ्रष्ट आचरण” के तहत वर्णित किया गया है? अथवा, किसी तीसरे पक्ष (राजनीति दल अथवा दल के नेता) द्वारा आयोजित चुनावी सभा को भी “भ्रष्ट आचरण” माना जाएगा?  
  • दरअसल, यह मुद्दा प्राथमिक चर्चा का विषय इसलिये बना क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूर्व में दिये गए अपने एक फैसले (प्रभु केस 1996 (1) एससीसो130) में यह स्पष्ट किया था कि “उसके धर्म” का संबंध केवल उम्मीदवार एवं उसके प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार द्वारा किये गए “भ्रष्ट आचरण” से ही है| 
  • स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत यह व्याख्या एक असंगत व्याख्या है, क्योंकि न्यायालय द्वारा दिये गए फैसले से यह स्पष्ट होता है कि किसी दल का प्रमुख अथवा नेता चुनावी सभा में उक्त प्रकार की अपील कर सकता है, परन्तु दल का उम्मीदवार नहीं|
  • स्पष्ट है कि इस प्रकार की बेतुकी व्याख्या का परिणाम यह हुआ कि सभी दलों के नेता अपने चुनावी घोषणापत्रों एवं भाषणों के माध्यम से एक धार्मिक राज्य का प्रचार करने के लिये पूर्णतया स्वतंत्र हो गए|  
  • गौरतलब है कि संवैधानिक पीठ द्वारा बहुमत से यह फैसला लिया गया कि “उसके धर्म” की अभिव्यक्ति से तात्पर्य (i) किसी उम्मीदवार अथवा, (ii) उसके प्रतिनिधि अथवा,(iii) उम्मीदवार की अनुमति से अपील करने वाला कोई व्यक्ति अथवा, (iv) निर्वाचक से है| ध्यातव्य है कि इस व्याख्या को अधिनियम में वर्णित तथ्यों के अनुरूप ही प्रस्तुत किया गया है| 
  • ध्यातव्य है कि सामाजिक लामबंदी को अधिकार तथा वैधता की खोज करने के सबसे अभिन्न तत्त्व के रूप में व्याख्यायित किया गया है| ऐसे में प्रश्न यह बनता है कि क्या यह व्याख्या सामाजिक लामबंदी को रोकने का कार्य करती है? 
  • फैसले की सुनवाई के समय इस बात पर विशेष गौर किया गया कि यदि उम्मीदवार द्वारा किसी ऐतिहासिक अथवा संवैधानिक गलती को सुधारने अथवा भारतीय संविधान के तहत वर्णित मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करने के उद्देश्य से कोई अपील की गई है तो वह अपील “भ्रष्ट आचरण” नहीं मानी जाएगी|
  • वस्तुतः इस समस्या का जन्म उस समय हुआ जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक दल के नेता के चुनावी भाषण के विषय में स्पष्ट किया गया कि उक्त चुनाव हिन्दू धर्म के नाम पर लड़ा जा रहा था तथा दल के नेता के चुनावी भाषणों के तहत कहीं भी यह साबित नहीं हुआ कि हिन्दुत्व कोई “भ्रष्ट आचरण है (मनोहर जोशी केस: 1996 1 SCC 169) | 
  • न्यायालय के कथनानुसार, उक्त अधिनियम के संदर्भ में किसी भी राजनैतिक दल का अपना मुद्दा (वह मुद्दा जिसको केंद्र में रखकर किसी पार्टी अथवा दल का गठन किया जाता है) प्रासंगिक नहीं है बल्कि उम्मीदवार द्वारा संदर्भित बातें प्रासंगिक होती हैं, साथ ही, वैसे उम्मीदवार एवं उसके चुनावी प्रतिनिधि जिनकी चुनावी योग्यता को शून्य घोषित किया गया है, उन्हें धारा 123 की उप-धारा (3) एवं (3A) के अंतर्गत भ्रष्ट आचरण के एक अहम भाग के रूप में स्वीकृत किया गया है, जो कि अधिनियम की धारा 100 का प्रमुख घटक है| इसके अतिरिक्त, ऐसा कोई वाक्य कि महाराष्ट्र राज्य को देश के पहले हिन्दू राज्य के रूप में विकसित किया जाएगा, को धर्म के आधार पर भ्रष्ट आचरण नहीं माना जाएगा बल्कि उक्त बयान देने वाले वक्ता के भावों के आधार पर भ्रष्ट आचरण अवश्य माना जाना चाहिये|
  • गौरतलब है कि उक्त विवरण के आधार पर सबसे अहम प्रश्न यह बनता है, क्या कोई राजनैतिक दल संविधान के धर्मनिरपेक्ष आधार (Secular foundation) से पृथक होकर, अपने चुनावी घोषणापत्र में हिन्दू, मुस्लिम अथवा ईसाई धर्म के आधार पर एक राज्य की स्थापना करने संबंधी घोषणा कर सकता है?
  • इस प्रश्न का उत्तर देने के क्रम में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि किसी भी राजनैतिक दल अथवा उम्मीदवार द्वारा संविधान के धर्मनिरपेक्ष आधारों (Secular foundations of the Constitution) के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है, क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है न कि धर्मशासित राष्ट्र (Theocratic)|  
  • ऐसा कोई भी भाषण जिसे “भ्रष्ट आचरण” के तहत वर्णित नहीं किया गया है तथा जो पूर्णतया अहानिकर है, को भारतीय संविधान में प्रदत्त लक्ष्यों के तहत माना जाएगा, वह भाषण पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष होगा|
  • हालाँकि, उक्त मामले की सुनवाई के दौरान किसी चुनावी भाषण को जायज़ अथवा नाजायज़ ठहराने वाले इस भेद को भी ध्यान में लाया गया कि किसी चुनावी सभा में दिये गए भाषण में वर्णित धर्म, नस्ल, जाति अथवा भाषा संबंधी सभी सन्दर्भ “भ्रष्ट आचरण” नहीं होते हैं|
  • इसके अतिरिक्त धर्म, नस्ल, जाति अथवा भाषा के आधार पर किसी समूह का गठन करने (आपसी भेदभाव एवं असमानता को दूर करने के उद्देश्य से) संबंधी सन्दर्भ को धर्म के आधार पर “भ्रष्ट आचरण” की राशि नहीं माना जाएगा, क्योंकि इस अपील का उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता के भाव का प्रसार करना है| 
  • अतः यदि किसी अपील अथवा भाषण को नागरिकों के अधिकार ढाँचे (विशेषकर मौलिक अधिकार) तथा संविधान में वर्णित गलतियों एवं कमियों के सापेक्ष निर्मित किया जाएगा, तो उसे धारा 123 (3) के अंतर्गत “भ्रष्ट आचरण” नहीं माना जाएगा| 
  • इसी प्रकार, किसी असहाय समूह (Persecuted group) के अधिकारों की सुरक्षा एवं उन्हें बढ़ावा देने संबंधी अपील को भी धर्म, नस्ल, जाति एवं भाषा के आधार पर “भ्रष्ट आचरण नहीं माना जाएगा| 

निष्कर्ष

हालाँकि, यहाँ एक और बात गौर करने योग्य है कि इस फैसले के सन्दर्भ में न तो अभी तक किसी अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा और न ही किसी बहुसंख्यक समुदाय द्वारा कोई आपत्ति दर्ज की गई है| हालाँकि, यदि इस समस्त मामले को (जैसा कि इसे पूर्व में वर्णित किया गया था) मुक्त भाषण के सन्दर्भ में ही देखा जाए, तो दोनों समुदायों (बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक) को मुक्त भाषण की इस ‘वैध सीमा’ के भीतर ही रहना होगा| वस्तुतः जिसके लिये भारतीय संविधान द्वारा देश के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को सुरक्षित बनाए रखने के लिये कुछ विशेष उपबंध करने की भी आवश्यकता होगी|

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