IMF से कर्ज़ लेना कितना कारगर? | 04 Jun 2019

यह लेख 30 मई को The Hindu में प्रकाशित आलेख IMF Bailouts: Are they Really Effective? का भावानुवाद है। लेख में इस बात का विश्लेषण किया गया है कि ऐसे बेलआउट पैकेज का स्वरूप किस प्रकार का होता है और ये कितने प्रभावी होते हैं।

संदर्भ

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) द्वारा पाकिस्तान को दिया गया बेलआउट पैकेज चर्चा का विषय बना रहा है। आर्थिक बदहाली से जूझ रहे पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने के लिये IMF ने उसे 6 अरब डॉलर का बेलआउट पैकेज दिया है।

पाकिस्तान को आदत है बेलआउट पैकेज की

ऐसा लगता है कि पाकिस्तान चार्वाक दर्शन के यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः सिद्धांत का प्रबल समर्थक है। पाकिस्तान पिछले 30 वर्षों में से 22 वर्षों तक एक दर्जन अलग-अलग IMF बेलआउट पैकेज के सहारे अपनी अर्थव्यवस्था की गाड़ी खींचता रहा है। इससे सीख लेकर सावधानी बरतने के बजाय पाकिस्तान एक बार फिर गंभीर आर्थिक बदहाली के दौर से गुज़र रहा है और विवश होकर IMF से याचना करनी पड़ी कि उसे इन हालात से बहार निकालने के लिये 6 बिलियन डॉलर का एक और बेलआउट पैकेज दिया जाए। पाकिस्तान को भारी मशक्कत के बाद यह पैकेज मिला, लेकिन इसके बदले पाकिस्तान सरकार को वृहद् आर्थिक समायोजन करने की शर्त स्वीकार करनी पड़ी।

पाकिस्तान हो या कोई अन्य देश, एक बड़ा प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि बार-बार दिये जाने वाले इस तरह के बेलआउट कितने प्रभावी होते हैं और आर्थिक समस्याओं को दूर करने के लिये संरचनात्मक सुधार न होने के बावजूद इन्हें दिये जाने का क्या औचित्य है?

आर्थिक संकट के समय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की भूमिका

  • भुगतान संकट और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट के संतुलन के प्रबंधन में IMF केंद्रीय भूमिका निभाता है।
  • कोटा प्रणाली के माध्यम से विभिन्न देश एक कोष में धन का योगदान करते हैं, जिसमें से भुगतान संकट या भुगतान असंतुलन जैसी समस्या का सामना करने वाले देश उधार ले सकते हैं।
  • वर्ष 2016 के अंत में इस कोष में कुल 477 बिलियन SDR थे।

(SDR= Special Drawing Rights; इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की करेंसी माना जाता है)

भुगतान संतुलन की समस्या क्या है?

भुगतान संतुलन में किसी देश के सभी प्रत्यक्ष यानी दिखाई देने वाले (External Visible) और परोक्ष यानी दिखाई न देने वाले (Non-visible) लेन-देन शामिल हैं। इसमें शामिल हैं...

  • चालू खाता (शेष व्यापार + परोक्ष का शेष)
  • पूंजी खाता (FDI, FII आदि के रूप में घरेलू अर्थव्यवस्था और विदेशी अर्थव्यवस्था से पूंजी निवेश का शुद्ध प्रवाह)
  • विदेशी मुद्रा भंडार
  • आरक्षित अंश (Tranche) स्थिति: किसी सदस्य के कोटे और IMF की अपनी करेंसी के बीच अंतर।

IMF बेलआउट पैकेज की प्रभावशीलता

इस संदर्भ में दो परस्पर विरोधी या विपरीत मामलों का दृष्टांत लिया जा सकता है:

  • 1994 में लातिनी अमेरिका का टकीला (Tequila) संकट
  • 1997 का पूर्वी एशिया संकट

टकीला (Tequila) संकट

  • यह समस्या दक्षिण अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर मैक्सिको के आर्थिक संकट की वज़ह से उत्पन्न हुई थी।
  • टकीला प्रभाव: मैक्सिको की मुद्रा पेसो के अचानक अवमूल्यन के वज़ह से उत्पन्न हुई स्थिति, जिसने इस क्षेत्र की दक्षिणी कोन और ब्राजील (Southern Cone and Brazil) की मुद्राओं को भी प्रभावित किया और उनमें भी गिरावट दर्ज़ की गई।

(Southern Cone = दक्षिण अमेरिका के सुदूरवर्ती दक्षिणी इलाके, जिनमें अधिकांश मकर रेखा के दक्षिण में स्थित)

  • बेलगाम मुद्रास्फीति, पूंजी पर लगने वाले सट्टे की वज़ह से होने वाली परेशानी और विकास दर में गिरावट को रोकने के लिये IMF ने सहायता उपायों के तहत इन देशों को कई बेलआउट पैकेज दिये।
  • बेलआउट पैकेज देने के बाद कुछ समय तक तो अस्थायी सुधार दिखाई दिया, लेकिन इसके बाद इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने आर्थिक संकटों में डूबना-उतराना जारी रखा।
  • ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि अधिकांश देशों में सैन्य शासक थे, जो लोकलुभावन आर्थिक प्रतिबद्धताओं और नीतियों के आधार पर चुनकर आए थे।

लोकलुभावन आर्थिक प्रतिबद्धता और नीति=ऐसी नीतियाँ जो राजनीतिक रूप से तो बेहतर होती हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था के नज़रिए से ख़राब।

  • स्पष्ट रूप से ये देश खराब राजकोषीय संरचना और आर्थिक कुप्रबंधन से ग्रस्त थे और इसी वज़ह से IMF के बेलआउट पैकेज भी विफल हो गए।

पूर्वी एशिया का संकट

  • थाईलैंड की मुद्रा थाई बात (Thai Baht) के अवमूल्यन के बाद यह संकट उत्पन्न हुआ।
  • इस संकट के प्रमुख कारणों में अर्थव्यवस्था पर अप्रत्याशित भार, शेयर बाजार का ढह जाना तथा बाहरी घाटे आदि शामिल थे।
  • इसके अलावा यूरोपीय संघ, जापान आदि विकसित देशों में वैश्विक निर्यात मांग में गिरावट ने दक्षिण-पूर्व एशिया से होने वाले निर्यात को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया।
  • इन सभी वज़हों ने बाज़ार की धारणा को उलट दिया तथा बड़े पैमाने पर पूंजी बाहर चली गई और तरलता के अभाव में बैंकों के सामने नकदी का संकट उत्पन्न हो गया।
  • ऐसे में आर्थिक सुधारों की कुछ पूर्व-निर्धारित शर्तों के साथ IMF दक्षिण-पूर्व एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को बचाने के लिये सामने आया।
  • इसके परिणामस्वरूप इन देशों की अर्थव्यवस्था ने तेज़ी से विकास किया और कुछ ही वर्षों में पहले जैसी स्थिति प्राप्त कर ली।
  • ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि पूर्वी एशियाई देशों का संकट दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाओं की तर्कहीन परिकल्पनाओं की वज़ह से अधिक था तथा वृहद् आर्थिक प्रबंधन में प्रमुख मूलभूत दोषों का इसमें कोई योगदान नहीं था।

1991 का भारत का भुगतान संतुलन संकट

IMF ने भारत को भी बेल आउट पैकेज दिया है, लेकिन भारत ने न केवल इस कर्ज़ को बहुत जल्द चुका दिया, बल्कि इसके बाद हुए आर्थिक सुधारों की बदौलत सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो गया।

अतः कहा जा सकता है कि IMF का बेलआउट पैकेज आर्थिक बदहाली से उबरने का कोई रामबाण उपचार नहीं है। इसे आप दर्द निवारक दवा कह सकते हैं, जिसकी प्रभावशीलता कुछ मूलभूत वृहद् आर्थिक कारकों को प्रभावित करने वाली वज़हों पर निर्भर करती है।

उदाहरणार्थ:

  • लोकलुभावन होने के बजाय आर्थिक नीति को वृहद् आर्थिक विकास रणनीतियों द्वारा संचालित किया जाना चाहिये।
  • अर्थव्यवस्था के विकास मॉडल की प्रकृति भी अपना महत्त्व रखती है, क्योंकि इससे बाह्य कारकों से अर्थव्यवस्था की सुभेद्यता निर्धारित होती है। इसमें निम्नलिखित कारक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं:
    • घरेलू बचत या विदेशी पूंजी द्वारा संचालित विकास
    • विनिर्माण क्षेत्र या प्राकृतिक संसाधनों पर भरोसा
  • आर्थिक नीति में निरंतरता के लिये राजनीतिक स्थिरता और शासन की गुणवत्ता बेहद अहम है।
  • किसी भी सार्वजनिक नीति के कार्यान्वयन के लिये विधि यानी कानून का शासन पहली आवश्यकता है।
  • IMF ऋण और संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था पर लगाए गए संरचनात्मक समायोजन की शर्तों के बीच किसी प्रकार की विसंगति नहीं होनी चाहिये।
  • IMF बेलआउट पैकेज की प्रकृति अल्पकालिक है, लेकिन इसके एवज़ में किये जाने वाले संरचनात्मक समायोजन दीर्घकालिक प्रतिबद्धता हैं।

नई आर्थिक वैश्विक व्यवस्था का समर्थक

IMF बेलआउट पैकेज की प्रभावशीलता पर बहस के अलावा एक संस्था के रूप में IMF नई आर्थिक वैश्विक व्यवस्था के लिये आवश्यक सुधारों का समर्थक है। लेकिन इसके साथ-साथ दुनिया में उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को उनकी बढ़ती सापेक्ष आर्थिक स्थिति के अनुरूप प्रतिनिधित्व देने के लिये काफी लंबे समय से IMF में कोटा सुधारों की मांग की जाती रही है।

क्यों ज़रूरी है कोटा सुधार?

  • IMF की कोटा प्रणाली ऋण हेतु धन जुटाने के लिये बनाई गई थी।
  • इसके तहत प्रत्येक सदस्य देश का एक कोटा या योगदान तय होता है...और इसी के आधार पर वैश्विक अर्थव्यवस्था में किसी देश के सापेक्ष आकार का पता चलता है कि वह कितना शक्तिशाली है।
  • प्रत्येक सदस्य देश का कोटा उसकी सापेक्षित मतदान शक्ति को भी निर्धारित करता है कि वह कितने मत देने का अधिकारी है।
  • यही वज़ह है कि नियमों को बनाने और संशोधन करने में विकसित धनवान देशों का अधिक महत्त्व है।
  • इसकी वज़ह से यह समस्या उत्पन्न हो गई है कि आर्थिक रूप से विकसित होने वाले देशों का प्रतिनिधित्व कम हो गया है, क्योंकि उनके मताधिकार की शक्ति कम है। उदाहरण के लिये, ब्रिक्स देश।

विकसित और विकासशील देशों का अंतर

इसके अलावा लेनदारों और उधारकर्त्ताओं की वज़ह से संस्था के प्रशासन के मुद्दों को लेकर भी तनाव की स्थिति बन जाती है। विकसित देश लेनदारों की तरह हैं, जो वित्तीय संसाधन प्रदान करते हैं, लेकिन शायद ही कभी IMF ऋण समझौते करते हैं। विकासशील देश कर्ज लेने वाले की तरह हैं, जो ऋण सेवाओं का उपयोग करते हैं, लेकिन उधार देने के लिये उपलब्ध कोष में बहुत कम योगदान देते हैं क्योंकि उनका कोटा बहुत कम होता है। यह उधारकर्त्ता में अधीनता की भावना और लेनदार में प्रभुत्व को संस्थागत रूप प्रदान करता है।

सुधारों को मिली जगह

  • यही वज़ह थी कि 2010 में IMF के लिये कोटा और प्रशासन सुधार का मसौदा तैयार किया गया था, जो अंततः 2016 से प्रभावी हुआ। इसके तहत जो सुधार लागू किये गए, वे निम्नानुसार हैं:
  • इन सुधारों की वज़ह से अमेरिका और यूरोपीय देशों का 6% से अधिक कोटा उभरते और विकासशील देशों को स्थानांतरित हो गया।
  • भारत का मतदान अधिकार वर्तमान 2.3% से 0.3% बढ़कर 2.6% हो गया तथा चीन का मतदान अधिकार वर्तमान 3.8% से 2.2% बढ़कर 6% हो गया।
  • इन सुधारों की वज़ह से IMF का संयुक्त कोटा या पूंजीगत संसाधन भी पूर्व के 329 बिलियन डॉलर के तुलना में दोगुना बढ़कर 659 बिलियन डॉलर हो गया है।
  • IMF के सबसे निर्धन सदस्य देशों के मताधिकार और कोटे को संरक्षित किया जाएगा।
  • पहली बार IMF के कार्यकारी बोर्ड में पूरी तरह से निर्वाचित कार्यकारी निदेशक शामिल होंगे तथा इससे कार्यकारी निदेशकों को नियुक्त करने पर अंकुश लग जाएगा।

हालाँकि ब्रिक्स देश पहली बार शीर्ष 10 कोटा धारकों में शामिल हुए हैं, लेकिन इसके बावजूद IMF कोटा वास्तविक वैश्विक आर्थिक छवि का प्रतिनिधित्व करने से अभी भी कोसों दूर है। उदाहरणार्थ: अफ्रीका, जिसे आशा का महाद्वीप कहा जाता है तथा यह माना जाता है कि दुनिया में आर्थिक विकास के अगले चरण को यहीं से बढ़ावा मिलेगा; लेकिन इसे IMF कोटे में प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। यही वज़ह है कि दुनिया की आर्थिक महाशक्तियों में शामिल चीन विश्व बैंक और IMF जैसी ब्रेटन वुड्स संस्थाओं को चुनौती देते हुए अपना आर्थिक विश्व आधार बनाने में सफल हुआ है। चीन ने न्यू डेवलपमेंट बैंक, एशिया इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक आदि की स्थापना कर ऐसा कर दिखाया है।

निष्कर्ष

निम्नलिखित तीन स्तंभ नव-उदारवादी विश्व व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं:

1. विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization-WTO)

2. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund-IMF)

3. विश्व बैंक (World Bank)

बेशक ये सभी मुक्त व्यापार पर ज़ोर देते हैं, लेकिन आज का वैश्विक आर्थिक परिदृश्य संरक्षणवाद, ट्रेड वॉर और वित्तीय स्थितियों को जकड़ने जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है। इस संदर्भ में आज दुनिया को न केवल अधिक लोकतांत्रिक होने की ज़रूरत है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का लोकतंत्रीकरण भी उतना ही ज़रूरी है।

अभ्यास प्रश्न:   सुधारों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं की आकांक्षाओं को शामिल करने में IMF की विफलता के कारण न्यू डेवलपमेंट बैंक, एशिया इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक जैसे नए संस्थानों का उदय हुआ है। चर्चा कीजिये।

इसे भी देखें: