आर्थिक विकृति | 12 Sep 2019
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस भारतीय अर्थव्यवस्था की आसन्न मंदी पर चर्चा की गई है तथा आवश्यकतानुसार टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
जून 2019 में अरविंद सुब्रमण्यन ने 'India’s GDP Mis-estimation’ शीर्षक से एक अध्ययन पत्र प्रकाशित किया जिस पर व्यापक विवाद की स्थिति देखी गई। आरंभ में इस अध्ययन के निष्कर्ष को लेकर कुछ संदेह की स्थिति रही लेकिन जुलाई 2019 में National Council of Applied Economic Research (NCAER) के इंडिया पॉलिसी फोरम में उन्होंने भारत की मंदी के बारे में और अधिक आँकड़े प्रस्तुत किये, जिसके बाद इस अध्ययन की गंभीरता पर लोगों का ध्यान गया। अरविंद सुब्रमण्यन द्वारा प्रकाशित अध्ययन एवं अन्य कई अध्ययनों का सामान्य संदेश भारत और इसके नीति निर्माताओं के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- भारत के विकास में प्राथमिक रूप से संबद्ध बिजली की खपत और एयरलाइन यातायात जैसे 17 प्रमुख विषयों के आधार पर तैयार उपरोक्त अध्ययन के अनुसार, इन क्षेत्रों में वर्ष 2011-12 के बाद वृद्धि दर धीमी हुई है और यह आधिकारिक GDP विकास से सुसंगत स्तरों से काफी नीचे गिर गई है। इस आधार पर अध्ययन में यह निष्कर्ष दिया गया है कि भारत की वर्तमान GDP विकास दर आधिकारिक आँकड़ों में प्रस्तुत दावों से 2.5 प्रतिशत तक कम हो सकती है।
- इस अध्ययन के आधार पर ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि भारत के आधिकारिक GDP आकलन में खामियाँ विद्यमान हैं बल्कि इस अध्ययन में दर्शाए गए विचलन से अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित खामियाँ उजागर होती हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में कई मूलभूत शक्तियाँ निहित हैं और यह चुनौतियों को स्वीकार करने में सक्षम है लेकिन इसके लिये कुशल नीतिगत प्रयासों की आवश्यकता है। इन प्रयासों पर चर्चा करने से पहले आवश्यक होगा कि अरविंद सुब्रमण्यन के अध्ययन पत्र से परे भी कुछ अन्य साक्ष्यों पर विचार किया जाए जो कि एक आसन्न मंदी का संकेत देते हैं।
अतीत के दृष्टांत
- अतीत के दृष्टांत के साथ यदि इस विषय पर आगे बढ़ें तो सर्वप्रथम वर्ष 1975 में उस समय भारत की GDP विकास दर 9 प्रतिशत के पार पहुँची थी जब देश में आपातकाल लागू था। संभव है कि आपातकाल के प्रभाव ने ही इस वृद्धि को बल दिया लेकिन इससे यह भ्रम उत्पन्न हुआ कि सत्तावादी (Authoritarian) शासन विकास के लिये अच्छा होता है। इसके अगले ही वर्ष यह विकास दर 1.2 प्रतिशत तक कम हो गई और वर्ष 1979-80 तक यह घटकर ऋणात्मक 5.2 प्रतिशत हो गई जो कि वर्ष 1947 के बाद से भारत में दर्ज सबसे कम वृद्धि दर थी।
- भारत का वास्तविक रूपांतरण वर्ष 1993 के बाद हुआ जब विकास दर स्थायी रूप से उच्च बनी रही और भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में तेज़ी से वृद्धि हुई। अर्थव्यवस्था के लिये सबसे उल्लेखनीय अवधि वर्ष 2003 से 2011 तक की रही जब वार्षिक GDP वृद्धि दर लगभग 8.5 प्रतिशत बनी हुई थी। इस अवधि के दौरान भी सबसे महत्त्वपूर्ण अवधि वर्ष 2005 से 2008 के बीच की रही जब भारत ने प्रत्येक वर्ष 9 प्रतिशत से अधिक की दर से वृद्धि दर्ज की।
मंदी की शुरुआत
- अर्थव्यवस्था में मंदी की शुरुआत वर्ष 2012 से हुई, वर्ष 2015 में इसका पुनरुद्धार हुआ और पिछले दो वर्षों से पुनः यह मंदी की ओर आगे बढ़ रही है। वर्ष 2019 की पहली तिमाही से संबंधित अंतिम विकास आँकड़ों में GDP विकास दर को 5.8 प्रतिशत दिखाया गया है। माइक्रो-डेटा के परीक्षण से निकट भविष्य में मंदी का वास्तविक खतरा प्रदर्शित होता है। निश्चित इस पर नीति निर्माताओं द्वारा गंभीर विमर्श किये जाने की ज़रूरत है।
- कुछ अर्थशास्त्रियों द्वारा पहले भी इस तथ्य की ओर संकेत किया जा चुका है कि वर्ष 2011-12 से 2017-18 तक भारत की निर्यात विकास दर शून्य प्रतिशत रही। लगातार छह वर्षों से निर्यात विकास दर का औसतन शून्य होना सकारात्मक परिदृश्य नहीं माना जा सकता। विकास की महत्त्वाकांक्षा रखने वाली उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के लिये निर्यात अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। तुलनात्मक रूप से देखें तो इसी अवधि के दौरान वियतनाम का निर्यात 300 प्रतिशत से अधिक हुआ।
विकासशील देशों के लिये निवेश भी है महत्त्वपूर्ण
- विकासशील देशों के लिये विकास के बड़े प्रेरकों में से एक निवेश दरों का प्रदर्शन भी एक प्रमुख चिंता का विषय है। यह GDP का वह प्रतिशत होता है जिसमें अवसंरचना, मशीनों और प्रौद्योगिकी आदि पर होने वाले व्यय शामिल होते हैं। सभी एशियाई उत्कृष्ट प्रदर्शनकर्त्ताओं की निवेश दर 35 फीसदी से अधिक रही है।
- भारत ने वर्ष 2004 में 30 प्रतिशत की सीमा पार कर ली थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था और यह देश के लिये काफी महत्त्वपूर्ण था।
- वर्ष 2007-08 तक भारत की निवेश दर 38.1 प्रतिशत तक पहुँच गई थी जिससे भारत भी एशिया के उत्कृष्ट प्रदर्शनकर्त्ताओं में शामिल हो गया था। लेकिन दुर्भाग्य से फिर इसमें लगातार गिरावट आई और यह पुनः 30 प्रतिशत के आसपास पहुँच गई।
अन्य माइक्रो-डेटा
- यदि अन्य माइक्रो-डेटा पर ध्यान दें तो भारत का ऑटोमोबाइल क्षेत्र मंदी का शिकार है और भारतीय निगमों की बैलेंस शीट की स्थिति भी बदतर हो गई है। वित्त वर्ष 2019 के दौरान कंपनियों की संयुक्त उधारी में 13.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई, लेकिन उनकी निवल संपत्ति में उसके अनुरूप वृद्धि नहीं हुई।
- एक अन्य समस्या आवास मूल्यों और क्रेता आय के बीच संबंध में नज़र आती है। भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुसार, आवास मूल्य और आय का अनुपात मार्च 2015 के 56.1 से बढ़कर मार्च 2019 में 61.5 हो गया है। यह स्वयं में कोई समस्या नहीं है लेकिन यदि आवास मूल्यों में गिरावट आती है तो इससे अर्थव्यवस्था में अवरोध की स्थिति उत्पन्न होगी।
आगे की राह
अल्पकालिक जोखिम को कम करने के लिये कीन्स के मांग प्रोत्साहन सिद्धांत को अवसर देना उपयुक्त होगा। हमें एक या दो वर्षों के लिये राजकोषीय घाटे में सुनिश्चित वृद्धि करने के लिये तैयार रहना चाहिये। यह वस्तुओं की मांग को बढ़ावा देगा और भारतीय फर्मों तथा कृषि के लिये अत्यंत उपयोगी समर्थन होगा।
“अर्थशास्त्री जॉन कीन्स के अनुसार, सरकार को चाहिये कि वह प्रगति के लिये मांग को बढ़ाए। उनका मानना था कि किसी अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिये उपभोक्ता-मांग ही प्राथमिक प्ररेक शक्ति होती है।”
- यदि अतिरिक्त व्यय को निर्धनों और कृषि क्षेत्र की ओर मोड़ा जाए तो उन लोगों को मदद मिलेगी जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है। एक अन्य मद जिस पर सरकार अपने व्यय में वृद्धि कर सकती है, आधारभूत संरचना का विकास है। यह मांग को भी प्रोत्साहन दे सकता है और निवेश में भी वृद्धि ला सकता है।
- कुछ अन्य दीर्घकालिक विषयों पर विचार करें तो नौकरशाही की लागत में कटौती जारी रखनी चाहिये।
यह सही है कि पिछले तीन वर्षों में नई दिवाला एवं दिवालियापन संहिता (Insolvency and Bankruptcy Code), 2016 जैसे कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। ‘कारोबार की सुगमता’ (Ease of Doing Business) में सुधार भी हुआ है। हालाँकि ‘कारोबार की सुगमता’ में मुख्य रूप से विश्व बैंक को खुश करने के लिये सुधार लाया गया है क्योंकि उन्हीं संकेतकों पर अनुरूप कदम उठाए गए जिन पर विश्व बैंक विचार करता है। मंज़ूरी की संस्कृति (Culture of Permissionism) को समाप्त करने की आवश्यकता है। सरकारों के पास इस संस्कृति के संपोषण का एक कारण रहा है। यदि नागरिकों और व्यवसायियों को बार-बार अनुमति के लिये सरकार की ओर रूख न करना पड़े तो इससे सरकार की शक्ति पर पर्दा पड़ता है और अधिकांश सरकारों में इसके विरोध की प्रवृत्ति होती है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि आने वाला समय उन देशों का होगा जो उच्च शिक्षा, रचनात्मकता और वैज्ञानिक नवाचारों को प्रोत्साहन देंगे। विकासशील देशों की श्रेणी में भारत इन विषयों में एक उत्कृष्ट प्रदर्शनकर्त्ता रहा है। भले ही हाल के वर्षों में यह लाभ की स्थिति कमज़ोर पड़ी है लेकिन अपेक्षा की जा सकती है कि इस परिदृश्य को बदलने के लिये हमारे नीति निर्माता उचित निर्णय लेंगे।
प्रश्न: आसन्न आर्थिक मंदी पर नीति-निर्माताओं को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। तर्क सहित इस कथन का परीक्षण कीजिये।