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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

वैश्विक बाज़ार में डॉलर का वर्चस्व

  • 14 Dec 2019
  • 13 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख के अंतर्गत वैश्विक बाज़ार में डॉलर के वर्चस्व और उसकी भूमिका पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

अमेरिकी डॉलर निस्संदेह वैश्विक वित्तीय प्रणाली का प्रमुख चालक है। केंद्रीय बैंकों के लिये प्रमुख आरक्षित मुद्रा से लेकर वैश्विक व्यापार एवं उधार लेने हेतु मुख्य साधन के रूप में अमेरिकी डॉलर विश्व भर के बैंकों और बाज़ारों के लिये महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। वर्ष 2017 में जारी एक शोध पत्र के मुताबिक कुल अमेरिकी डॉलर का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका से बाहर मौजूद है। यह आँकड़ा विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं के लिये डॉलर के महत्त्व को स्पष्ट करता है। हालाँकि गत वर्षों में कई देशों की सरकारों ने डॉलर पर अपनी निर्भरता को कम करने का प्रयास किया है, उदाहरण के लिये वर्ष 2017 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने रुसी बंदरगाहों पर अमेरिकी डॉलर के माध्यम से व्यापार न करने का आदेश दिया था। परंतु जानकारों का मानना है कि डी-डॉलराइज़ेशन या वैश्विक बाज़ार में अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व में कमी निकट भविष्य में संभव नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में डॉलर

  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा वह मुद्रा होती है जिसे दुनिया भर में व्यापार या विनियम के माध्यम के रूप में स्वीकार किया जाता है। अमेरिकी डॉलर, यूरो और येन आदि विश्व की कुछ महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मुद्राएँ हैं।
    • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा को आरक्षित मुद्रा के रूप में भी जाना जाता है।
  • विदित है कि विश्व के 7 देशों ने अमेरिकी डॉलर को स्वयं की मुद्रा के रूप में अपना लिया है, जबकि 89 देश डॉलर के आधार पर अपनी मुद्रा का निर्धारण करते हैं।
  • विदेशी मुद्रा बाज़ार में भी डॉलर के शासन को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। आँकड़ों के मुताबिक, विश्व का लगभग 90 प्रतिशत वैश्विक व्यापार अमेरिकी डॉलर के माध्यम से होता है।
    • संयुक्त राष्ट्र (UN) ने दुनिया भर की 180 प्रचलित मुद्राओं को मान्यता प्रदान की है और अमेरिकी डॉलर भी इन्हीं में से एक है, परंतु खास बात यह है कि इनमें से अधिकांश का प्रयोग मात्र घरेलू स्तर पर ही किया जाता है।
  • दुनिया भर का लगभग 40 प्रतिशत ऋण डॉलर में जारी किया जाता है, जिसके कारण कारोबार करने के लिये विश्व भर के बैंकों को काफी अधिक मात्रा में डॉलर की आवश्यकता होती है।
    • विश्व भर के बैंकों की डॉलर पर निर्भरता को वर्ष 2008 के वैश्विक संकट में स्पष्ट रूप से देखा गया था।

वैश्विक स्तर पर डॉलर की भूमिका

  • आरक्षित मुद्रा के रूप में
    • अंतर्राष्ट्रीय क्लेम को निपटाने और विदेशी मुद्रा बाज़ार में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से दुनिया भर के अधिकांश केंद्रीय बैंक अपने पास विदेशी मुद्रा का भंडार रखते हैं।
    • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के मुताबिक, अमेरिकी डॉलर विश्व की सर्वाधिक लोकप्रिय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा है। आँकड़ों के मुताबिक, 2019 की पहली तिमाही तक विश्व के सभी ज्ञात केंद्रीय बैंकों के कुल विदेशी मुद्रा भंडार का 61 प्रतिशत हिस्सा अमेरिकी डॉलर का है।
    • अमेरिका डॉलर के बाद यूरो को सबसे लोकप्रिय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा माना जाता है, विदित हो कि वर्ष 2019 की पहली तिमाही तक विश्व के सभी केंद्रीय बैंकों के कुल विदेशी मुद्रा भंडार का 20 प्रतिशत हिस्सा यूरो का है।
    • गौरतलब है कि वर्ष 2010 से जापानी येन (Yen) की आरक्षित मुद्रा के रूप में भूमिका में 5.4 प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि चीनी युआन (Yuan) और अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है, यद्यपि यह अभी मात्र 2 प्रतिशत का ही प्रतिनिधित्व करता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय भुगतान के रूप में
    • वर्तमान में गैर-अमेरिकी आयातकों और निर्यातकों के मध्य लेन-देन में अमेरिकी डॉलर खासी भूमिका निभा रहा है।
    • ज्ञात है कि विश्व का लगभग 90 प्रतिशत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार डॉलर के माध्यम से ही होता है।
    • अंतर्राष्ट्रीय निपटान बैंक (BIS) के अनुसार, डॉलर में प्रकट बिल (Invoices) का अनुपात विश्व आयात में डॉलर की हिस्सेदारी का लगभग पाँच गुना अधिक है।
    • आँकड़ों के मुताबिक, 2018 में गैर-सदस्यों से यूरोपीय संघ में आयात की गई कुल वस्तुओं में आधे से अधिक के बिल/इनवॉइस अमेरिकी डॉलर में प्रस्तुत किये गए थे।
    • वैश्विक बाज़ारों में सक्रिय कंपनियाँ, जैसे- हवाई जहाज़ निर्माता कंपनी एयरबस (Airbus) प्रायः अपने मूल्यों को डॉलर में ही सूचीबद्ध करती हैं।
  • मूल्य निर्धारक के रूप में
    • आमतौर पर तेल और सोने जैसी वस्तुओं का मूल्य निर्धारण अमेरिकी डॉलर में ही किया जाता है। गौरतलब है कि अधिकांश तेल उत्पादक देश बिक्री के बीजक (Invoice) बनाते समय उतार-चढ़ाव के जोखिम से बचने के लिये अपनी मुद्रा का मूल्य निर्धारण डॉलर के आधार पर करते हैं।
    • वर्ष 2018 में डॉलर का वर्चस्व तब देखने को मिला जब अमेरिका ने ईरान पर पुनः प्रतिबंध लगाने और उसके साथ व्यापार करने वाले देशों को दंडित करने का फैसला किया।
  • निवेश के रूप में
    • BIS के आँकड़ों से पता चलता है कि अमेरिका से बाहर रहने वाले गैर-बैंकिंग उधारकर्त्ताओं पर जून 2019 तक 11.9 ट्रिलियन डॉलर का उधार था।

डॉलर के विकास की कहानी

  • उल्लेखनीय है कि पहला अमेरिकी डॉलर वर्ष 1914 में फेडरल रिज़र्व बैंक द्वारा छापा गया था। 6 दशकों से कम समय में ही अमेरिकी डॉलर एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में उभर कर सामने आ गया, हालाँकि डॉलर के लिये इतने कम समय में ख्याति हासिल करना शायद आसान नहीं था।
  • यह वह समय था जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था ब्रिटेन को पछाड़ते हुए विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रही थी, परंतु ब्रिटेन अभी भी विश्व का वाणिज्य केंद्र बना हुआ था क्योंकि उस समय तक अधिकतर देश ब्रिटिश पाउंड के माध्यम से ही लेन -देन कर रहे थे।
    • साथ ही कई विकासशील देश अपनी मुद्रा विनिमय में स्थिरता लाने के लिये उसके मूल्य का निर्धारण सोने (Gold) के आधार पर कर रहे थे
  • हालाँकि जब वर्ष 1914 में प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हुई तो कई देशों ने अपने सैन्य खर्च को कागज़ी धन से अदा करने के लिये सोने के आधार पर मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया को त्याग दिया, जिससे उनकी मुद्राओं का अवमूल्यन भी हुआ।
  • युद्ध के तीन वर्षो बाद ही ब्रिटेन जो कि विश्व का वाणिज्यिक केंद्र था, की माली हालत काफी खस्ता को गई, परंतु इस समय तक अमेरिका विश्व के कई उधारकर्त्ताओं के लिये पसंदीदा स्थान बन चुका था।
  • वर्ष 1919 में ब्रिटेन को अंततः सोने के मानक को छोड़ने के लिये मज़बूर किया गया, जिसके कारण पाउंड में कारोबार करने वाले अंतर्राष्ट्रीय व्यापारियों को काफी नुकसान का सामना करना पड़ा।
  • इसके पश्चात् द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका ने युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने से पूर्व मित्र राष्ट्रों के लिये हथियारों और अन्य आवश्यक वस्तुओं के मुख्य आपूर्तिकर्त्ता की भूमिका अदा की। अमेरिका अपने भुगतान का अधिकांश हिस्सा सोने के रूप में लेता था, जिसके कारण युद्ध की समाप्ति तक उसके पास विश्व के कुल सोने का अधिकांश हिस्सा मौजूद था।
  • वर्ष 1944 में 44 देशों के प्रतिनिधियों ने विदेशी मुद्रा के प्रबंधन हेतु एक प्रणाली अपनाने के लिये न्यू हैम्पशायर के ब्रेटन वुड में मुलाकात की। इस वार्ता में यह निर्णय लिया गया कि दुनिया की सभी मुद्राओं को सोने से नहीं जोड़ा जा सकता है, परंतु उन्हें अमेरिकी डॉलर से जोड़ा जा सकता है।
    • इस व्यवस्था को ब्रेटन वुड्स समझौते के नाम से जाना जाता है।
  • ब्रेटन वुड्स समझौते के परिणामस्वरूप अमेरिकी डॉलर को आधिकारिक तौर पर दुनिया की आरक्षित मुद्रा के रूप में जाना जाने लगा।
  • अन्य देशों ने सोने के स्थान पर अमेरिकी डॉलर को एकत्र करना शुरू कर दिया।

‘एक विश्व मुद्रा’ की मांग

  • मार्च 2009 में चीन और रूस ने नई वैश्विक मुद्रा का आह्वान किया था, वे एक ऐसी मुद्रा चाहते थे जो कि ‘विश्व के किसी भी देश से जुड़ी न हो और लंबे समय तक स्थिर रहने में सक्षम हो।’
  • चीन को चिंता थी कि यदि डॉलर मुद्रास्फीति की शुरुआत होती है तो उसके पास मौजूद अरबों डॉलर का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। गौरतलब है कि यह स्थिति अमेरिकी घाटे में वृद्धि और अमेरिकी ऋण के भुगतान के लिये अधिक-से-अधिक नोटों की छपाई के कारण संभव थी।
  • चीन ने डॉलर को प्रतिस्थापित करने के लिये नई मुद्रा का विकास करने हेतु IMF का आह्वान किया, हालाँकि अभी तक डॉलर को प्रतिस्थापित करना संभव नहीं हो पाया है परंतु चीन इस ओर अभी भी प्रयास कर रहा है और इस संदर्भ में वह अपनी अर्थव्यवस्था में भी काफी सुधार कर रहा है।

निष्कर्ष

अरबों डॉलर के विदेशी ऋण और घाटे की वित्तीय व्यवस्था के बावजूद वैश्विक बाज़ार को अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर विश्वास है। जिसके कारण अमेरिकी डॉलर आज भी विश्व की सबसे मज़बूत मुद्रा बनी हुई है और आशा है कि आने वाले वर्षों में भी यह महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा की भूमिका अदा करेगी, हालाँकि गत कुछ वर्षों में चीन और रूस जैसे देशों ने डॉलर के समक्ष कई चुनौतियाँ पैदा की हैं। आवश्यक है कि चीन और रूस जैसे देशों की बात भी सुनी जानी चाहिये और सभी हितधारकों को एक मंच पर एकत्रित होकर यथासंभव संतुलित मार्ग की खोज करने का प्रयास करना चाहिये।

प्रश्न: वैश्विक वित्तीय प्रणाली में डॉलर की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।

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