आक्रोश के न्यायशास्त्र में मृत्युदंड कितना औचित्यपूर्ण? | 13 May 2017

संदर्भ
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्भया मामले की अंतिम सुनवाई में जो भी निर्णय लिया गया, वह अनपेक्षित नहीं था| हत्या तथा बलात्कार जैसी क्रूरता के लिये मृत्युदंड दिया जाना आश्चर्यजनक भी नहीं है| हालाँकि, जब इससे पूर्व इस मामले के एक अपराधी को बाल सुधारगृह भेजा गया था तो कई लोगों को यह आशंका थी कि अन्य अपराधियों को भी मुक्त कर दिया जाएगा परन्तु न्यायालय का निर्णय अचंभित करने वाला ही था|

क्या कहा गया है नीतिशास्त्र में?
वस्तुतः इस मामले का यह अंत समाज के लिये एक अध्याय बन चुका है, परन्तु संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की एक सिफारिश के पश्चात् ये कयास लगने शुरू हो चुके है कि क्या अपराधियों को मृत्युदंड दिया जाना न्यायाधीश की अनैतिकता का परिचायक है? 

विदित हो कि नीतिशास्त्र में जीवन से बड़ा कोई मूल्य नहीं है और इसमें किसी भी व्यक्ति के जीवन के अंत को सर्वाधिक अनैतिक कृत्य माना गया है| यह भी माना जा रहा है कि इन अपराधियों को मृत्युदंड देने का निर्णय लेना न्यायालय के आक्रोश को बयाँ करता है| 

न्यायाधीश का नैतिक द्वंद्व
अभियोग हमेशा समाज के नाम पर होते हैं, और यह कहा जाता है कि आपराधिक न्याय हमेशा दो उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है जिनमें से एक समाज का संरक्षण करना है तो दूसरा अपराधों को रोकना| 

मृत्युदंड में उदारता को व्यक्ति के व्यक्तिगत लाभ के रूप में देखा जाता है और यह न्यायाधीश के न्यायिक दृष्टिकोण को भी उजागर करता है| ऐसा प्रतीत होता है कि इस मामले में न्यायाधीश नैतिक द्वंद्व की स्थिति में थे, परन्तु उन्होंने मृत्युदंड के मामले में उदारता न बरतकर समाज के हित को सर्वोपरि माना और भविष्य में इस प्रकार की घटनाएँ न हों इसलिये ये फैसला सुनाया है| 

परन्तु ऐसा माना गया है कि कई अपराधी ऐसे भी होते हैं जो पहली बार अपराध करते हैं अतः उन्हें सुधरने का एक मौका अवश्य मिलना चाहिये, उन्हें मृत्युदंड नहीं दिया जाना चाहिये| लेकिन अक्सर ऐसी घटनाएँ समाज और लोगों के अंतःकरण में एक ज्वाला को जन्म देती हैं और वे चाहते हैं कि अपराधी को कड़ी सज़ा दी जाए तथा पीड़ित को न्याय मिले| 

न्यायालय का तर्क
हालाँकि, निर्भया मामले में भी वर्ष 1993 के एक मामले के समान ही यह कहा गया कि मृत्युदंड केवल दुर्लभतम मामलों में ही दिया जा सकता है क्योंकि इसका विचार ही व्यक्ति की आत्मा को झकझोर देता है| परन्तु न्यायालय के समक्ष लोगों के क्रंदन का यह परिणाम हुआ कि न्यायाधीश को यह निर्णय लेना पड़ा| इस निर्णय की किसी भी प्रकार की आलोचना को भी ‘व्यक्तिगत लाभ बनाम समाज संरक्षण’ के द्वंद्व का सामना करना पड़ेगा| जब तक यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि समाज के दृष्टिकोण से न्यायाधीश का यह निर्णय उचित है अथवा नहीं, तब तक न्यायाधीश के निर्णय की अवहेलना भी नहीं की जानी चाहिये| 

परिवेश का मृत्युदंड से क्या संबंध है?
बलात्कार और हत्या के प्रत्येक मामले में न्यायालय मृत्युदंड नहीं देता है| यह विचारणीय है कि निर्भया मामले का निर्णय बम्बई उच्च न्यायालय के ‘बिलकिस बानो मामले’ के निर्णय के एक दिन पश्चात् ही आया है| इस मामले में न्यायालय ने आजीवन कारावास दिया था और मृत्युदंड देने से इनकार कर दिया था, जबकि यह मामला तीन महिलाओं के बलात्कार और एक बच्चे सहित 14 मुसलमानों के नरसंहार से संबंधित था| हालाँकि, इसकी तुलना गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों में होने वाली मौतों से करना अनुचित ही है| निर्भया और बिलकिस बानो मामले में कई समानताएँ देखने को मिलती हैं| दोनों मामलों में बलात्कार और हत्या हुई थी, दोनों ही मामले अवसरवादी कृत्य से संबंधित थे और इनमें पूर्वनिष्ठता और उत्तेजना अनुपस्थित थी| हालाँकि इनमें परिवेश का अंतर अवश्य था, एक घटना देश की राजधानी में रात के समय घटित हुई थी जबकि दूसरी गोधरा हिंसा के फलस्वरूप घटित हुई थी| अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जब मृत्युदंड दिया जाता है तो क्या उसमें परिवेश का भी ध्यान रखा जाना चाहिये?

‘क्या है दुर्लभ में दुर्लभतम का सिद्धांत’?
जब सर्वोच्च न्यायालय ने ‘दुर्लभ मामलों में दुर्लभतम’ (rarest of rare cases) का सिद्धांत दिया था तो इसके पीछे उसका विचार यह था कि मृत्युदंड केवल कुछ दुर्लभ मामलों में ही दिया जाएगा, जबकि अन्य मामलों के लिये आजीवन कारावास को मानदंड मान लिया जाएगा| परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायालय के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ रहा है| इसका एक परिणाम यह है कि इस मामले के अपराधियों को मृत्युदंड देकर न्यायालय ने समाज को अचंभित कर दिया है|

निष्कर्ष
वर्तमान में आवश्यकता यह है कि मृत्युदंड केवल दुर्लभतम मामलों में ही दिया जाए| मृत्युदंड देने का औचित्य यह है कि जब भी ऐसी घटनाएँ होती हैं तो जनता में आक्रोश भर जाता है तथा वह पीड़ित के लिये न्याय की मांग करती है| हालाँकि समाज के दृष्टिकोण से यह उचित प्रतीत होता है परन्तु जब तक भी मृत्युदंड देना न्याय के क्षेत्र में बना रहेगा तब तक प्रत्येक न्यायाधीश भी एक नैतिक द्वंद्व का सामना करेगा|