‘एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध’ का बढ़ता खतरा | 11 Dec 2017
भूमिका
- वर्ष 1928 में जब अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने पहली एंटीबायोटिक ‘पेन्सिसीन’ का अविष्कार किया तो यह खोज जीवाणुओं के संक्रमण से निपटने में जादू की छड़ी की तरह काम करने लगी।
- समय के साथ एंटीबायोटिक का धड़ल्ले से प्रयोग होने लगा। लेकिन एंटीबायोटिक खा-खाकर बैक्टीरिया अब इतना ताकतवर हो गया है कि उस पर एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम होने लगा।
- धीरे-धीरे यही प्रभाव अन्य सूक्ष्मजीवियों (micro-organism) के संदर्भ में भी देखने को मिलने लगा, यानी एंटीफंगल, (antifungal) एंटीवायरल (antiviral) और एंटीमलेरियल (antimalarial) ड्रग्स (दवाओं) का भी असर कम होने लगा।
- अतः एंटीबायोटिक प्रतिरोध (antibiotic resistance) ही नहीं बल्कि एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध (antimicrobial resistance) आज समस्त विश्व के लिये एक बड़ा खतरा है। क्योंकि इससे सामान्य से भी सामान्य बीमारियों के कारण मौत हो सकती है ।
- एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध विकसित करने वाले सूक्ष्मजीवों को "सुपरबग" के नाम से जाना जाता है। सुपरबग एक ऐसा सुक्ष्मजीवी है, जिस पर एंटीमाइक्रोबियल ड्रग्स का प्रभाव नहीं पड़ता।
इस लेख में हम इसके पर्यावरण से संबंधी चिंताओं के साथ-साथ तमाम पहलुओं पर गौर करेंगे।
क्या है एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध?
- गौरतलब है कि आज से लगभग 88 वर्ष पहले कई बीमारियों से लड़ने के लिये चिकित्सा जगत में कोई कारगर दवा नहीं थी।
- लेकिन, एंटीबायोटिक के अविष्कार ने चिकित्सा जगत को एक मैजिक बुलेट थमा दी।
- 20वीं सदी के शुरुआत से पहले सामान्य और छोटी बीमारियों से भी छुटकारा पाने में महीनों लगते थे, लेकिन एंटीमाइक्रोबियल ड्रग्स (एंटीबायोटिक, एंटीफंगल, और एंटीवायरल दवाएँ) के इस्तेमाल से बीमारियों का त्वरित और सुविधाजनक इलाज़ होने लगा।
- लेकिन विज्ञान यहाँ भी वरदान के साथ-साथ अभिशाप होने के अपने गुण को चरितार्थ कर गया, इन ड्रग्स का धड़ल्ले से प्रयोग होने लगा।
- एंटीबायोटिक समेत एंटीमाइक्रोबियल ड्रग्स का अत्याधिक सेवन स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। एंटीमाइक्रोबियल ड्रग्स के अधिक और अनियमित प्रयोग से इसका प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जाता है।
- विदित हो कि प्रत्यके व्यक्ति एक सीमित स्तर तक ही एंटीबायोटिक ले सकता है, इससे अधिक एंटीबायोटिक लेने से मानव शरीर एंटीबायोटिक के प्रति अक्रियाशील हो जाता है।
- प्रायः देखा जाता है कि वायरस के कारण होने वाली बीमारियों में भी लोग जानकारी के अभाव के चलते एंटीबायोटिक दवा लेने लगते हैं।
- किसी नए प्रकार के आक्रमण से बचाव के लिये एक अलग प्रकार का प्रतिरोध विकसित करना प्रत्येक जीव का स्वाभाविक गुण है और सूक्ष्मजीवियों के साथ भी यही हुआ है।
- गौरतलब है कि सूक्ष्मजीवियों को प्रतिरोध विकसित करने का अवसर उपलब्ध कराया है, एंटीमाइक्रोबियल ड्रग्स के अत्यधिक उपयोग ने।
एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के दुष्परिणाम?
- सामान्य बीमारियों का भी इलाज़ कठिन हो जाना:
⇒ दुनिया भर में एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध तेज़ी से बढ़ रहा है। इसके कारण आम संक्रामक बीमारियों का इलाज करना भी असंभव हो जाता है।
⇒ इसका परिणाम यह होता है कि लम्बे समय तक बीमारी बनी रहती है और यदि यह प्रतिरोध बहुत अधिक बढ़ गया तो बीमार व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है। - चिकित्सा प्रक्रियाओं का जटिल हो जाना:
⇒ चिकित्सकीय प्रक्रियाएँ जैसे अंग प्रत्यारोपण, कैंसर के इलाज़ के लिये कीमोथेरेपी और अन्य प्रमुख शल्य चिकित्सा (surgery) में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल होता है।
⇒ एंटीबायोटिक दवाएँ सर्जरी के दौरान होने वाले चिर-फाड़ के बाद संक्रमण बढ़ने से रोकने का कार्य करती हैं। यदि प्रतिरोध बढ़ता गया तो इस तरह की चिकित्सकीय प्रक्रियाएँ जटिल हो जाएंगी।
⇒ अंततः एक ऐसा भी समय आ सकता है जब सर्जरी करना ही असंभव हो जाएगा या फिर सर्जरी के कारण ही लोग मर जाया करेंगे। - स्वास्थ्य देखभाल की लागत में वृद्धि:
⇒ एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के कारण रोगियों को अस्पतालों में लंबे समय तक भर्ती रहना पड़ता है। साथ ही उन्हें गहन देखभाल की भी ज़रूरत होती है।
⇒ इससे स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव तो बढ़ता ही है साथ में स्वास्थ्य देखभाल की लागत में भी व्यापक वृद्धि होती है।
⇒ जनसंख्या विस्फोट के कारण वर्तमान में सभी व्यक्तियों को उचित स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध कराना चुनौती बनी हुई है।
⇒ ऐसे में एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध स्वास्थ्य सेवाओं को बद से बदतर की ओर ले जाएगा। - सतत् विकास लक्ष्यों को हासिल करना मुश्किल:
⇒ ट्रांसफॉर्मिंग आवर वर्ल्ड: द 2030 एजेंडा फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट' का संकल्प, जिसे सतत् विकास लक्ष्यों के नाम से भी जाना जाता है, के तहत कुल 17 लक्ष्यों का निर्धारण किया गया है।
⇒ सतत् विकास लक्ष्यों के लक्ष्य संख्या 3 में सभी उम्र के लोगों में स्वास्थ्य सुरक्षा और स्वस्थ जीवन को बढ़ावा देने की बात की गई है।
⇒ एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध इस लक्ष्य की प्राप्ति में एक बड़ा अवरोध बनने जा रहा है और इसका प्रभाव सतत् विकास के सभी लक्ष्यों पर देखने को मिलेगा।
कुछ चिंताजनक आँकड़े
- एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध से होने वाली मौतों के संबंध में समुचित आँकड़ों का अभाव है, फिर भी एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2015 तक एंटीबायोटिक प्रतिरोध के कारण 58,000 शिशुओं की मौत हो गई है।
- विदित हो कि पूरी दुनिया में भारत सबसे ज़्यादा एंटीबायोटिक का इस्तेमाल करता है। एक अध्ययन के मुताबिक ‘एंटीबायोटिक प्रतिरोध’ 2050 तक दुनिया की सबसे बड़ी महामारी बन जाएगी।
- गौरतलब है कि अभी हर साल कैंसर से पूरी दुनिया में 80 लाख लोगों की मौत हो जाती थी। लेकिन, 2050 तक ‘एंटीबायोटिक प्रतिरोध’ की वज़ह से हर साल एक करोड़ लोगों की मौत होगी, यानी ये कैंसर से भी बड़ा खतरा बन सकता है।
एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध बढ़ने के कारण
हाल ही में चर्चा में क्यों?
- अब तक भारत का एंटीबायोटिक प्रतिरोध अभियान अनावश्यक एंटीबायोटिक खपत में कटौती करने पर केंद्रित रहा है।
- लेकिन, द 2017 नेशनल प्लान ऑन एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस (the 2017 National Action Plan on Antimicrobial Resistance) में पहली बार इन दवा निर्माताओं द्वारा वातावरण में डंप किये जा रहे एंटीबायोटिक को डंप करने की बात की जा रही है।
क्यों महत्त्वपूर्ण है यह प्लान?
- दरअसल यह एक सामान्य सा विचार है कि एंटीमाइक्रोबियल ड्रग्स के इस्तेमाल से धीरे-धीरे कुछ सुक्ष्मजीवी इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि यही एंटीमाइक्रोबियल ड्रग्स उनके सामने प्रभावहीन साबित होते हैं।
- लेकिन, इस संबंध में वैज्ञानिकों का मानना है कि वातावरण में मौजूद कुछ बैक्टीरिया के संपर्क में आकर मानवों में रोग के कारण बनने वाले सुक्ष्मजीवी उनसे उनके प्रतिरोधक गुण लेकर सुपरबग बन जा रहे हैं।
- प्रकृति में सबसे पहला एंटीबायोटिक-प्रतिरोधक जीन लाखों साल पुराना है। लेकिन जब मानवों ने 1950 के दशक में एंटीबायोटिक दवाओं का निर्माण शुरू किया, तो एक नाटकीय बदलाव आया।
- पोल्ट्री उद्योग, दवा निर्माता कंपनियों और अस्पतालों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों के ज़रिये पर्यावरण में बड़ी संख्या में ऐसे एंटीबायोटिक-प्रतिरोधक जीन आ गए हैं जो आसानी से मानव शरीर के अंदर सुपरबग बना सकते हैं।
- अतः ‘द 2017 नेशनल प्लान ऑन एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस’ इस दिशा में किया जा रहा एक महत्त्वपूर्ण सुधार है।
अब तक के प्रयास
- विदित हो कि इस समस्या की गंभीरता की पहचान करते हुए वर्ष 2012 में ‘चेन्नई डिक्लेरेशन’ में सुपरबग के बढ़ते खतरे से निपटने के लिये व्यापक योजना बनाई गई थी।
- इस योजना में 30 ऐसी प्रयोगशालाओं की स्थापना की बात की गई थी जो एंटीबायोटिक के अत्यधिक उपयोग से उत्पन्न समस्याओं के समाधान की दिशा में काम करेंगे, लेकिन अभी तक केवल ऐसी 10 प्रयोगशालाओं का ही निर्माण हो पाया है।
- सरकार को सुपरबग से बचाव का उपाय खोजना होगा और इसके लिये अनुसंधान को प्रोत्साहन देना होगा।
- एंटीबायोटिक के अधिक प्रयोग को रोकने के लिये सरकार ने बिक्री योग्य दवाओं की नई सूची जारी कर उसके आधार पर ही दवा विक्रेताओं को दवा बेचने का निर्देश दिया है।
- लेकिन कहीं भी आसानी से एंटीबायोटिक का मिल जाना चिंताजनक है। अतः सरकार को अपने निगरानी तंत्र को और चौकस बनाना होगा।
- हालाँकि इसमें एक महत्त्वपूर्ण बिंदु संतुलन बनाए रखने का भी है। पूरे विश्व में अभी भी एंटीबायोटिक ड्रग्स समेत दवाओं की कमी से मरने वालों की संख्या अभी भी एंटीबायोटिक प्रतिरोध से मरने वालों से ज़्यादा है। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ हमें सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना होगा।
- भारत के ‘सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन’ (Central Drugs Standard Control Organization- CDSCO) ने अनुसूची एच-1 लागू किया है, जिसके अनुसार बिना किसी चिकित्सक के परामर्श 24 मूल एंटीबायोटिक दवाओं की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
- गौरतलब है कि विश्व भर में कोई भी फार्मा कंपनी अगले 20 वर्षों तक कोई भी नई एंटीबायोटिक दवा तैयार नहीं करने वाली है। एंटीबायोटिक के अधिक इस्तेमाल को रोकने के लिये यह अभियान शुरू किया गया है।
आगे की राह
निष्कर्ष
- वर्ष 2009 में नई दिल्ली से लौटे एक स्वीडन के नागरिक में एक घातक प्रतिरोधक जीन पाया गया था और वैज्ञानिकों ने इसका नाम ‘नई दिल्ली मेटलो-बीटा-लैक्टमैस-1’ (New Delhi metallo-beta-lactamase 1) रखा था, जिसे एनडीएम -1 भी कहा जाता है।
- अगर भारत तेज़ी से इस संबंध में प्रयास नहीं करता है तो फार्मा क्लस्टरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल से एनडीएम-1 जैसे कई नए प्रतिरोधक जीन जन्म ले सकते हैं और यह भारतीयों के साथ-साथ दुनिया भर में हज़ारों लोगों के लिये मौत को दावत देने के समान होगी।