तीन तलाक का मामला अब सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के हवाले | 17 Feb 2017
सन्दर्भ
- गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक़ के मामले की गंभीरता की पहचान करते हुए कहा कि इस मुद्दे को लेकर दायर की गई याचिकाओं पर सुनवाई पाँच जजों की संविधान पीठ मई के महीने में करेगी। न्यायालय ने तीन तलाक़ के सभी पहलुओं पर विचार करने का फैसला किया है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि यह मसला बहुत गंभीर है और इसे टाला नहीं जा सकता।
- विदित हो कि तीन तलाक़ मामले पर जहाँ एक तरफ केन्द्र सरकार इसे महिलाओं के अधिकारों का हनन बता रही है, वहीं अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस मामले को गंभीर बताया है। वर्तमान परिस्थितियों में यह महत्त्वपूर्ण इसलिये है क्योंकि तीन तलाक़ पर देशव्यापी चर्चा हो रही है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीन तलाक़ की संवैधानिक वैधता पर विचार किया जा रहा है, अतः यह आवश्यक है कि तीन तलाक़ के इस पूरे मुद्दे को समझा जाए। लेकिन पहले देखते हैं कि न्यायालय ने क्या विचार रखे हैं!
क्या कहा सर्वोच्च न्यायालय ने?
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि यह मामला संवैधानिक मुद्दों से संबंधित विषय हैं अतः संविधान पीठ को ही इनकी सुनवाई करनी चाहिये। साथ ही न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस मामले में सिर्फ कानूनी पहलुओं पर ही सुनवाई होगी। न्यायालय तीन तलाक़ के अलावा निकाह हलाला और बहु-विवाह प्रथा के संबंध में भी विचार करेगी। विदित हो कि सर्वोच्च न्यायालय इस संबंध में निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार करेगा।
1) धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत तीन तलाक़, निकाह हलाला और बहु-विवाह की इजाज़त संविधान के तहत दी जा सकती है या नहीं।
2) समानता का अधिकार और गरिमा के साथ जीने का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में प्राथमिकता किसको दी जाए?
3) पर्सनल लॉ को संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत कानून माना जाएगा या नहीं?
क्या है तीन तलाक का मुद्दा?
- गौरतलब है कि मुसलमान पुरुष तीन बार ‘तलाक़’ शब्द का उच्चारण करके अपनी शादी समाप्त कर सकते हैं, हालाँकि कई मुस्लिम देशों में तीन तलाक़ (तीन बार तलाक़ बोलने) की प्रक्रिया एक ही बार में ना करके तीन महीने की अवधि में करने का नियम है, ताकि पति को तीसरी और अंतिम बार तलाक़ के उच्चारण से पहले अपने फैसले पर ठीक से विचार करने का पर्याप्त मौका मिल सके, तो वहीं बहुत से मुस्लिम देशों ने तीन तलाक़ को प्रतिबंधित कर दिया है। ध्यातव्य है कि तीन तलाक़ की प्रथा अमानवीय और महिलाओं के खिलाफ है।
- दरअसल, पिछले वर्ष उत्तराखण्ड की शायरा नाम की एक महिला को उसके पति ने तीन बार तलाक़ शब्द के उच्चारण मात्र से ही तलाक़ दे दिया था। शायरा ने तीन तलाक़, निकाह हलाला और बहु-विवाह के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया। गौरतलब है कि अक्तूबर 2016 में केंद्र सरकार ने भी सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाकर्त्ता ‘शायरा’ की मांगों का सैद्धांतिक तौर पर समर्थन करते हुए एक हलफनामा दायर किया था।
प्रसिद्ध शाह बानो के मामले के तीन दशक बाद अब शायरा मामले ने एक बार फिर से लैंगिक समानता बनाम धार्मिक कट्टरपंथ की बहस को हवा दे दी है।
क्या यह हलफनामा इस्लामिक सिद्धांतों के विरुद्ध है?
- मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम [The Muslim Personal Law (Shariat) Application Act, 1937] के अनुसार, भारतीय मुसलमानों को व्यक्तिगत मामलों में शरीयत (इस्लामी कानून) द्वारा नियंत्रित होना चाहिये जो कि कुरान और हदीस (पैगंबर की कही गई बातों) पर आधारित है।
- गौरतलब है कि शरीयत के संहिताकरण के अभाव में उलेमा इसके प्रावधानों की अलग-अलग व्याख्या करते हैं और बताते हैं कि ये प्रथाएँ पवित्र हैं। इनके चलते मुस्लिम महिलाओं को लिंग और धर्म के आधार पर कानून के तहत समान सरंक्षण और भेदभाव से सुरक्षा जैसे मूलभूत अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है।
- शायरा की याचिका में यह कहा गया था कि कुरान में तीन तलाक का कोई आधार नहीं दिया गया है और बहु-विवाह इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। हालाँकि, कई विशेषज्ञों का मानना है कि तीन तलाक़ वैध तो है लेकिन यह 90 दिन की अवधि तक विस्तृत है और सुलह-समझौते के बाद ही तलाक़ वैध है। ऐसी स्थिति में अनेक ऐसे मामले सामने आए जब पत्नी के सामने ही नहीं, वरन फोन, व्हाट्सएप और ई-मेल से भी तलाक दिये जाने लगे, जो कि बहुत ही चिंताजनक है।
वर्तमान स्थिति
- हालाँकि, एक सभ्य और विवेकशील समाज के निर्माण में बाधक इन प्रथाओं के खिलाफ याचिका तो शायरा द्वारा दायर की गई थी, लेकिन बहुत सी समाजसेवी संस्थाओं, बुद्धिजीवियों और राष्ट्रीय महिला आयोग समेत कई महिला संगठनों ने तीन तलाक के खिलाफ आवाज़ बुलंद की है।
- जहाँ एक ओर, इस सुधारवादी प्रयास को व्यापक समर्थन मिला, वहीं दूसरी तरफ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कुछ अन्य कट्टरपंथी समूह तीन तलाक़ के बचाव में उतर आए हैं, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यदि केंद्र सरकार मुसलमानों के व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करती है तो देश में युद्ध जैसा माहौल बन सकता है।
- गौरतलब है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कोई संवैधानिक संस्था नहीं है, अतः इसके निर्देश मुसलमानों के लिये बाध्यकारी नहीं हैं, लेकिन देशभर में इसे अल्पसंख्यकों का सबसे बड़ा धार्मिक नेतृत्व माना जाता है।
दरअसल, गेंद अब सर्वोच्च न्यायालय के संविधान पीठ के पाले में है और सबको यह उम्मीद है कि सर्वोच्च न्यायालय लैंगिक समानता और समान न्याय के सिद्धांतों से वंचित मुस्लिम महिलाओं के हित में कोई क्रांतिकारी निर्णय लेगा।
निष्कर्ष
- भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़ा कोई संहिताबद्ध कानून नहीं है। ये मुख्य रूप से अंग्रेज़ों के समय के दो कानूनों द्वारा नियंत्रित होते हैं। इनमें पहला अधिनियम 1937 का है, जिसमें कहा गया है कि भारत के मुसलमान शरिया से संचालित होंगे, हालाँकि इसमें यह उल्लेख नहीं है कि शरिया में क्या शामिल है और क्या नहीं? तथा, शरिया के विभिन्न पहलू क्या हैं? इससे संबंधित दूसरा कानून है, 1939 का अधिनियम, जिसमें ऐसे 9 कारणों का उल्लेख है जिनके आधार पर एक मुस्लिम महिला तलाक़ के लिये अदालत जा सकती है।
- गौरतलब है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित कई इस्लामी देशों में तीन तलाक़ (एक ही बार में तीन बार तलाक-तलाक-तलाक बोलना) प्रतिबंधित है। कई देशों में तो पति-पत्नी के बीच सुलह करवाने के लिये मध्यस्थता परिषदों और न्यायिक हस्तक्षेपों का भी प्रावधान है, लेकिन भारत में स्थिति इससे अलग है। यहाँ मुस्लिम पर्सनल लॉ अभी भी इस तरह के तीन तलाक़ की अनुमति देता है।
- वस्तुतः औरत चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, पढ़ी लिखी हो या अनपढ़; उसका दर्द एक सा है। अतः धर्म के नाम पर उसके साथ यह क्रूरता नहीं होनी चाहिये। साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि तीन तलाक़ के मुद्दे पर अल्पसंख्यक समुदाय को यह न लगे कि उन पर बहुसंख्यक विचार थोपे जा रहे हैं, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का एक प्रमुख लक्षण है।