ग्रामीण भारत में स्कूली शिक्षा की दशा और दिशा | 27 Feb 2019
संदर्भ
ग्रामीण भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है। यह बात कुछ समय पहले जारी हुई असर (ASER-एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट ), 2018 में सामने आई है।
क्या है इस रिपोर्ट में?
- इस रिपोर्ट में देशभर के 596 ज़िलों के लगभग साढ़े तीन लाख ग्रामीण परिवारों और 16 हज़ार स्कूलों के सर्वेक्षण के आधार पर प्राथमिक विद्यालयों तक बच्चों की पहुँच, उपलब्धि और विद्यालयों की बुनियादी ज़रूरतों के आँकड़े तैयार किये गए हैं।
ये आँकड़े स्कूली शिक्षा की व्यक्ति और समाज के साथ अंत:क्रिया के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण रुझान देते हैं। - रिपोर्ट के अनुसार, स्कूलों में नामांकन और बुनियादी सुविधाओं जैसे पैमानों पर सकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई है, लेकिन पढ़ने और गिनने जैसी कुशलताओं में विद्यार्थियों की कमज़ोर हालत स्कूली शिक्षा की प्रक्रिया और प्रभाव के बारे सवाल खड़ा करती है।
दिखाई दे रहे हैं बदलाव
ग्रामीण क्षेत्र में दिखाई दे रहे सार्थक बदलाव शिक्षा के अधिकार कानून के धरातल पर क्रियान्वित होने के परिणाम हैं। यही वज़ह है कि लगभग सभी सरकारी स्कूलों में नामांकन की वृद्धि दर्ज की गई है। ये आँकड़े उत्साहवर्द्धक अवश्य हैं, लेकिन गाँवों में प्राथमिक शिक्षा की वास्तविकता के बारे में केवल इनके आधार पर कोई निष्कर्ष निकलना उचित नहीं होगा।
- छह से 14 वर्ष की आयु के बच्चों का स्कूलों में नामांकन लगभग 95% है।
- 11 से 14 वर्ष आयु तक की विद्यालय न जाने वाली लड़कियों का प्रतिशत केवल 4.1 है।
- इसके विपरीत 2014 से 2018 के बीच निजी स्कूलों में नामांकन का आँकड़ा 30-31% के बीच रहा।
शिक्षा का अधिकार कानून-2009 के बाद से स्कूलों की संख्या में वृद्धि, शिक्षकों की नियुक्ति और प्रशिक्षण, शौचालय और खेल के मैदान जैसी बुनियादी सविधाओं में सुधार और स्कूल तक बच्चों को लाने के लिये की जाने वाली पहलों की वज़ह से सरकारी विद्यालयों में नामांकन बढ़ा है।
लेकिन एक-चौथाई सरकारी स्कूलों में आज भी बच्चों का नामांकन प्रतिशत 60 और इससे कम है। इसमें वे बच्चे शामिल हैं जो नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न मिलने पर स्कूल नहीं जा पाते हैं और जिनके परिवार शिक्षा का आर्थिक भार नहीं उठा सकते और जो शिक्षा के बदले घरेलू व खेती के कामों में बड़ों का हाथ बँटाते हैं।
- इस रिपोर्ट में यह खुलासा भी किया गया है कि प्राथमिक स्कूलों में जो बच्चे आ रहे हैं उनकी उपलब्धि की क्या हालत है।
- वर्ष 2008 में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले लगभग 85% विद्यार्थी कक्षा 2 की ही किताब पढ़ सकते थे, जबकि 2018 में इनकी संख्या घटकर लगभग 73% रह गई है।
- वर्ष 2018 के सर्वे में आठवीं कक्षा के केवल 44% बच्चे तीन अंकों में एक अंक से भाग देने का सवाल हल कर पाने में सक्षम पाए गए, जबकि वर्ष 2012 में यह आँकड़ा 48% था।
निजी स्कूलों के बच्चे बेहतर
- बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि के संदर्भ में निजी स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों के बच्चों से बेहतर हैं।
- 2018 के आँकड़े बताते हैं कि पाँचवीं कक्षा के ऐसे बच्चे जो कक्षा 2 की पठन दक्षता रखते हैं, का प्रतिशत सरकारी स्कूलों में 44 और निजी स्कूलों में 66 है।
इसके पक्ष में निजी स्कूलों की आधार-संरचना, अध्यापकों की निगरानी और समर्पित प्रबंधन का तर्क पर्याप्त नहीं है। यह ज़रूर है कि निजी स्कूलों के बच्चों के अभिभावक पढ़ाई का खर्च उठा सकते हैं। यानी कि उनका सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश घर पर पढ़ने-पढ़ाने में सहयोग देने वाला होता है। घर और स्कूल दोनों जगहों पर सीखने के कारण बच्चे कुशलता को अर्जित कर रहे हैं। दूसरी ओर, गाँवों के निजी स्कूल शहरी निजी स्कूलों की तरह सुविधायुक्त नहीं हैं। वे कम फीस लेते हैं और साधारण संसाधनों से युक्त हैं। सरकारी स्कूलों के बच्चों और अभिभावकों के संदर्भ में इसका अभाव है।
सांस्कृतिक अंतर भी है एक बड़ा कारण
इसके अलावा, बच्चों की उपलब्धि और सीखने में एक सांस्कृतिक अंतर भी है जो स्कूल में प्रवेश के पहले से सक्रिय हो जाता है। शिक्षा का अधिकार भी इस सांस्कृतिक अंतर को पाटने में असमर्थ है। यहाँ इस तथ्य को मद्देनज़र रखना होगा कि जैसे ही गाँव के निजी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों को मौका मिलता है, वे अपने बच्चे को शहर के स्कूल में प्रवेश दिलाते हैं। अत: शैक्षिक अवसरों की समानता व गुणवत्ता की दृष्टि से गाँवों में बसने वाला भारत ऐसी भौगोलिक इकाई बनता जा रहा है जहाँ शिक्षा के मूलाधिकार की प्रक्रिया और परिणाम में गहरी खाई है। अमीरी और गरीबी ही इसका एकमात्र कारण नहीं है। लिंग, जाति, क्षेत्र, भाषा और धर्म भी इनसे जुड़कर एक जटिल संरचना बना रहे हैं जो इसे बढ़ावा दे रहा है।
आज देश की अर्थव्यवस्था में गाँवों की जो स्थिति है, उसमें यह तो स्पष्ट है कि रोज़गार और जीविका की दृष्टि से गाँव लोगों को रोक पाने में सक्षम नहीं हैं। गाँवों से लगातार बड़ी आबादी का पलायन हो रहा है। यह आबादी जब गाँव के बाहर जाएगी, तब शहर में ऐसे लोगों की भीड़ बढ़ेगी जिन्हें नौकरी की ज़रूरत है, लेकिन उनके पास आधुनिक अर्थव्यवस्था के रोज़गार की शर्तों को पूरा करने की क्षमता नहीं है। जिन बच्चों ने असर-2018 में हिस्सा लिया और जिनकी उपलब्धि के आँकड़े भविष्य में उनकी असफलता की संभावना पर बल देते हैं, वे आर्थिक स्वावलंबन के लक्ष्य से दूर जा रहे हैं, क्योंकि वर्तमान में साक्षरता प्रधान रोज़गार ही अधिक उपलब्ध हैं।
असर की इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि ग्रामीण भारत में स्कूल जाने की उम्र वाले बच्चों के लिये स्कूल ऐसी जगह बनता जा रहा है जहाँ बच्चे अपने दिन का बड़ा हिस्सा तो बिताते हैं लेकिन स्कूल जाने का जो प्रयोजन या उद्देश्य है, उसे वे पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
ग्रामीण स्तर पर प्राथमिक शिक्षा की प्रमुख समस्याएँ
- आज भी ऐसे ग्रामीण स्कूल हैं जहाँ कमरों व डेस्क-बेंच जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी पूरी तरह से उपलब्ध नहीं हैं।
- बहुत से स्कूलों में बच्चे बरामदों व पेड़ों के नीचे बैठकर ही पढ़ते नज़र आते है। गर्मी के मौसम में बच्चों को पीने के पानी के लिये भी भटकना पड़ता है।
- शौचालय स्कूलों में बनाए अवश्य गए हैं, लेकिन पानी के अभाव में उनमें साफ-सफाई रख पाना मुश्किल हो जाता है।
- सर्व शिक्षा अभियान के तहत बच्चों को निःशुल्क पुस्तकें उपलब्ध करवाने का प्रावधान है, लेकिन इस दिशा में कोई बेहतर स्थिति दिखाई नहीं देती। शिक्षा सत्र शुरू होने के तीन महीने बाद तक भी पहली से आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों को पाठ्य पुस्तकें नहीं मिल पातीं।
- ग्रामीण स्कूलों में मिड-डे मील संचालन के तौर-तरीकों पर भी सवाल उठाए जाते हैं। स्कूलों में बच्चों को खाना खिलाने में ही शिक्षकों का काफी समय व्यर्थ हो जाता है। आधिकारिक स्तर पर मिड-डे मील स्कीम के कार्यान्वयन को लेकर ठोस योजना का अभाव एक बड़ा गतिरोध है।
- देश के बहुत से ग्रामीण स्कूल ऐसे हैं जहाँ बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के उद्देश्य से एडूसेट के उपकरण लगाए गए हैं। लेकिन भारी-भरकम खर्च से लगाए गए ये उपकरण अधिकांश स्कूलों में मात्र शो-पीस बनकर रह गए हैं।
- ग्रामीण सरकारी स्कूलों की छवि गरीबों और अशिक्षितों के बच्चों के स्कूल वाली बन गई है, जो पूरी तरह शिक्षकों की दया पर निर्भर हैं।
- आज भी शिक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा स्कूलों में अध्यापकों के वेतन और प्रशासन पर ही खर्च होता है। फिर भी विश्व में बिना अनुमति अवकाश लेने वाले अध्यापकों की संख्या भारत में सबसे अधिक है।
- ग्रामीण स्कूलों में अक्सर यह देखने में आता है कि अध्यापक आते ही नहीं हैं और चार में से एक सरकारी स्कूल में रोज कोई-न-कोई अध्यापक छुट्टी पर होता है।
संविधान में शिक्षा को समवर्ती सूची में रखा गया है और इसका प्रमुख ज़िम्मा राज्यों पर है। ऐसे में ज़रूरत है कि सभी राज्य अपनी परिस्थितियों के अनुसार इसकी चुनौतियों को अपने ढंग से हल करें। ऐसा हुआ भी है और इसके अलग-अलग परिणाम सामने आए। जिन राज्यों में स्कूली शिक्षा का विकास बेहतर तरीके से हुआ, वहाँ गरीब बच्चों की शिक्षा संबंधी चुनौतियों को प्राथमिकता दी गई। लेकिन आज भी स्थिति यह है कि प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को अंग्रेज़ी शिक्षा दिलाने के लिये निजी स्कूलों में भेजता है।
आगे की राह
- मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का वादा संविधान में किया गया है। इसे दस साल में पूरा करने का लक्ष्य भी तय किया गया था, जो पूरा नहीं हो सका।
- सभी बच्चे स्कूल जाएँ और सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले...ये दो धाराएँ न होकर एक-दूसरे से परस्पर संबंधित और अपरिहार्य शर्तें हैं। इनमें से किसी एक को पूरा करके संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता।
- बच्चों की असफलता का दोष केवल स्कूल के संस्थागत कारणों को नहीं दिया जा सकता। दोष प्रायः संसाधनों के अभाव और शिक्षकों के अकुशल रवैये को दिया जाता है। लेकिन यह भी तय है कि केवल इन्हें ही दोषी मानकर इस समस्या का हल नहीं खोजा जा सकता।
- इस समस्या का समाधान यही है कि अध्यापकों पर संदेह करने और उनके कार्यों की निगरानी के बजाय उन पर भरोसा किया जाए और उन्हें समर्थ और कुशल बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए जाएँ।
- इसके अलावा पाठ्यक्रम के बोझ को कम करना, पास-फेल की नीति में बदलाव या बाल केंद्रित शिक्षा के बहाने संसाधनों की भरमार के बावजूद यह विचार करना होगा कि कैसे शिक्षा की प्रक्रिया में गाँव और शहर का अंतर कम हो सके।
ग्रामीण क्षेत्रों में शैक्षणिक स्तर ऊंचा उठाने के लिये हर हाल में प्राथमिक शिक्षा का स्तर बढ़ाना होगा। लेकिन इस दिशा में न तो जनप्रतिनिधि पर्याप्त रुचि दिखाते हैं और न ही शिक्षा विभाग के अधिकारी। सरकार की ओर से कई तरह की सुविधाएँ देने के बावजूद धरातल पर स्थिति में बहुत बदलाव नज़र नहीं आता।
नई एकीकृत शिक्षा योजना
केंद्र सरकार ने 1 अप्रैल 2018 से 31 मार्च, 2020 के लिये नई एकीकृत शिक्षा योजना बनाई है। इस योजना में सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान और शिक्षक शिक्षण अभियान समाहित हैं। इस योजना के लिये 75 हज़ार करोड़ रुपए मंजूर किये गए हैं। इस योजना का लक्ष्य सबको शिक्षा, अच्छी शिक्षा देना तथा पूरे देश में प्री-नर्सरी से लेकर 12वीं तक की शिक्षा सुविधा सबको उपलब्ध कराने के लिये राज्यों की मदद करना है। एकीकृत स्कूली शिक्षा योजना में शिक्षकों और प्रौद्योगिकी पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने पर खास ज़ोर दिया गया है।
योजना के प्रमुख उद्देश्य
- गुणवत्ता युक्त शिक्षा की व्यवस्था और छात्रों के सीखने की क्षमता में वृद्धि
- स्कूली शिक्षा में सामाजिक और लैंगिक असमानता के अंतर को कम करना
- स्कूली शिक्षा के सभी स्तरों पर समानता और समग्रता सुनिश्चित करना
- स्कूली व्यवस्था में न्यूनतम मानक सुनिश्चित करना
- शिक्षा के साथ व्यवसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा देना
- नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार, 2009 को लागू करने के लिये राज्यों की मदद करना
- राज्यों की शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषदों, शिक्षण संस्थाओं तथा ज़िला शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थाओं को शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिये नोडल एजेंसी के रूप में सशक्त और उन्नत बनाना
योजना के प्रमुख लाभ
- शिक्षा के संदर्भ में समग्र दृष्टिकोण
- पहली बार स्कूली शिक्षा के लिये उच्चतर माध्यमिक और नर्सरी स्तर की शिक्षा का समावेश
- संपूर्ण इकाई के रूप में स्कूलों का एकीकृत प्रबंधन
- गुणवत्ता युक्त शिक्षा पर ध्यान, सीखने की क्षमता को बेहतर बनाने पर जोर
- शिक्षकों के क्षमता विकास को बढ़ाना
- शिक्षक प्रशिक्षण गुणवत्ता सुधार के लिये प्रशिक्षण संस्थाओं को सशक्त बनाना
- डिजिटल बोर्ड और स्मार्ट क्लासरूम के ज़रिये शिक्षा में डिजिटल प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को बढ़ावा देना
- विद्यालयों को स्वच्छ बनाए रखने के लिये स्वच्छता गतिविधियों की विशेष व्यवस्था
- सरकारी स्कूलों में बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता सुधारना
- बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान की प्रतिबद्धता को बढ़ावा देने के लिये कक्षा 6 से लेकर 12वीं कक्षा तक कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों का उन्नयन
- स्कूलों में कौशल विकास पर ज़ोर
- शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े ब्लॉकों, चरमपंथ प्रभावित राज्यों, विशेष ध्यान देने वाले राज्यों/ज़िलों और सीमावर्ती इलाकों तथा विकास की आकांक्षा वाले 115 ज़िलों को प्राथमिकता देना
स्रोत: ASER रिपोर्ट 2018 तथा PIB से मिली जानकारी पर आधारित