बदलती वैश्विक व्यवस्था, भारत और यूएनएससी | 07 Jan 2021
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में बदलती वैश्विक व्यवस्था और इसकी नई चुनौतियों के बीच संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्य के रूप में भारत के कार्यकाल का महत्त्व व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में अपने नए कार्यकाल के साथ शीत युद्ध के बाद इस अंतर्राष्ट्रीय संस्थान में तीसरी बार प्रवेश करेगा। हालाँकि UNSC में भारत के पिछले दो कार्यकालों (वर्ष 1991-92 और वर्ष 2011-12) की तुलना में वर्तमान वैश्विक व्यवस्था काफी अलग है। वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि क्या एक शांतिपूर्ण आम सहमति से विश्व की विभिन्न महाशक्तियों के बीच शक्ति के पुनर्वितरण को संभव बनाया जा सकता है।
इस संदर्भ में भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अपने राष्ट्रीय हितों और वैश्विक शांति के प्रयासों की बढ़ावा देने के लिये UNSC में एक अस्थायी सदस्य के रूप में अपने दो वर्ष के कार्यकाल का पूरा लाभ उठाया जाना चाहिये।
हाल के समय में बदलती वैश्विक व्यवस्था:
- नया शीत युद्ध: वर्ष 1991 में सोवियत संघ के पतन के साथ वैश्विक व्यवस्था द्विध्रुवीय से बदलकर एक ध्रुवीय हो गई। परंतु वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में एक प्रणालीगत संतुलन का अभाव दिखाई देता है, जो अंतर्राष्ट्रीय स्थिरता को बनाए रखने के लिये बहुत ही आवश्यक है।
- इस अस्थिरता का एक प्रमुख कारण अमेरिका और चीन के बीच एक नए शीत युद्ध के उदय को माना जाता है, जो वैश्विक व्यवस्था में शक्ति (राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य) के पुनर्वितरण को संभव बनाने के लिये एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत करता है।
- इसके अतिरिक्त वर्तमान में अमेरिका, चीन और रूस के बीच बहुत ही अशिष्ट मतभेद हैं।
- अमेरिका की अनुपस्थिति: वर्तमान वैश्विक व्यवस्था की प्रमुख विशेषता महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मामलों से अमेरिका की अनुपस्थिति रही है। इसे पेरिस जलवायु समझौता, ईरान परमाणु समझौता आदि से अमेरिका के पीछे हटने के रूप में देखा जा सकता है।
- इस अनुपस्थिति से बहुपक्षवाद और वैश्वीकरण को गहरा आघात पहुँचा है।
- एक नई उप-प्रणाली के रूप में हिंद-प्रशांत क्षेत्र: चीन के एक महाशक्ति के रूप में उभरने के साथ ही इसने दक्षिण चीन सागर में शक्ति के संतुलन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता ने अमेरिका, जापान, भारत आदि देशों को हिंद-प्रशांत की वैश्विक व्यवस्था में एक उप-तंत्र के रूप स्थापित करने के लिये सहयोग बढ़ाने को प्रेरित किया है।
- हिंद-प्रशांत से आशय अफ्रीका के पूर्वी तट और अमेरिका के पश्चिमी तट के बीच हिंद-महासागर तथा प्रशांत महासागर क्षेत्र एवं इनके तटीय देशों से हैं।
- संयुक्त राष्ट्र की घटती भूमिका: UNSC संयुक्त राष्ट्र का प्रमुख कार्यकारी निकाय है, जो वैश्विक स्तर पर शांति और सुरक्षा को बनाए रखने के लिये उत्तरदायी है।
- हालाँकि UNSC के पाँच स्थायी सदस्यों द्वारा वीटो (Veto) की शक्ति का प्रयोग अपने भू-राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के एक साधन के रूप में किया जाता है। और ऐसे अधिकांश मामलों में सशस्त्र संघर्ष के पीड़ितों पर इन निर्णयों के विनाशकारी परिणामों की परवाह नहीं की गई जिसके उदाहरण इराक, सीरिया आदि देशों में देखे जा सकते हैं।
भारतीय विदेश नीति के समक्ष वर्तमान चुनौतियाँ:
- चीन की आक्रामकता: शीत युद्ध के बाद भारत द्वारा चीन के साथ इस उद्देश्य से बहुपक्षीय मोर्चों पर सहयोग को बढ़ावा दिया गया कि यह दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को सुलझाने और द्विपक्षीय सहयोग को बढ़ाने के लिये अनुकूल स्थितियाँ बनाने में सहायक होगा।
- हालाँकि भारत की इस रणनीति का उल्टा प्रभाव देखने को मिला है, क्योंकि हाल के वर्षों में भारत के खिलाफ चीन की आक्रामकता में वृद्धि ही हुई है, इसका उदाहरण हाल के गलवान घाटी संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है।
- इसके अतिरिक्त भारत द्वारा विभिन्न वैश्विक मंचों से पाकिस्तान के विरूद्ध दबाव बनाने के प्रयासों के विपरीत चीन पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय दबाव से भी बचाता है।
- गुटनिरपेक्ष नीति का अवमूल्यन: चीन की आक्रामकता का सामना करने के लिये भारत ने हाल में समान विचारधारा वाले देशों के साथ सहयोग बढ़ाया है। इसी नीति के तहत ‘क्वाड’ समूह को मज़बूती प्रदान करने का प्रयास किया गया है।
- हालाँकि अमेरिका के साथ भारत की इस निकटता ने भारत की गुटनिरपेक्ष छवि को धूमिल किया है, साथ ही इसने रूस जैसे पारंपरिक सहयोगियों के साथ भारत के संबंधों को भी प्रभावित किया है।
आगे की राह:
- वैश्विक व्यवस्था में सक्रिय भागीदारी: UNSC विश्व की प्रमुख शक्तियों को स्थायी राजनयिक संवाद के लिये मंच प्रदान करता है और इसके माध्यम से यह उनके बीच तनाव को कम करने और सहयोग के नए अवसर उपलब्ध कराने में सहयोग करता है।
- जिस प्रकार अमेरिका और सोवियत संघ ने शीत युद्ध के चरम स्तर पर भी परमाणु प्रसार के मुद्दे पर मिलकर सहयोग किया, उसी प्रकार अमेरिका और चीन भी इस व्यापक मतभेद के बीच शांति तथा समाधान के अवसर तलाशने का प्रयास कर सकते हैं।
- इस संदर्भ में भारत इस नई शक्ति प्रतिद्वंदिता के बीच वैश्विक व्यवस्था में अपने लिये एक बड़ी भूमिका गढ़ने का प्रयास कर सकता है।
- इसके अतिरिक्त भारत ऐसे समय में UNSC में अपने कार्यकाल की शुरुआत करेगा जब LAC पर चीन के साथ तनाव की स्थिति बनी हुई है, ऐसे में भारत UNSC के माध्यम से वैश्विक समुदाय के समक्ष लद्दाख में चीन की आक्रामकता के मुद्दे को बेहतर तरीके से रख सकेगा।
- सुरक्षा परिषद में सुधार: शीत युद्ध के बाद से भारत ने लगातार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में प्रतिनिधित्त्व के सुधार की मांग उठाई है।
- इस संदर्भ में भारत को UNSC के विस्तार के लिये G-4 देशों (भारत, जर्मनी और जापान) के साथ अपने सहयोग को जारी रखना चाहिये और UNSC की स्थायी सदस्यता प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का विस्तार: UNSC में शांति और सुरक्षा के मुद्दे पर संवाद भारत को क्वाड जैसे नए गठबंधनों को मज़बूत करने का अवसर प्रदान करेगा।
- इसके अतिरिक्त भारत UNSC में अपने कार्यकाल का उपयोग फ्राँस और जर्मनी जैसे अपने यूरोपीय सहयोगियों के साथ रक्षा के क्षेत्र में साझेदारी को मज़बूत करने के लिये कर सकता है।
- पश्चिमी देशों के साथ रूस के बिगड़ते संबंधों और चीन के साथ इसकी बढ़ती निकटता से परे भारत द्वारा सभी अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर रूस के साथ गहन बातचीत किया जाना बहुत ही आवश्यक है।
- ग्लोबल साउथ के साथ सहयोग: भारत के लिये ‘ग्लोबल साउथ’ के अपने पारंपरिक सहयोगियों के साथ मिलकर UNSC में उनकी शांति और सुरक्षा चिंताओं को स्पष्ट करते हुए आपसी संबधों को पुनर्जीवित करना बहुत ही आवश्यक है। इस संदर्भ में ग्लोबल साउथ के दो उप-समूहों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।
- छोटे द्वीपीय देश: जलवायु परिवर्तन और समुद्री जल स्तर के बढ़ने/उठने के साथ विश्व भर के कई छोटे द्वीपीय देशों के समक्ष अपने अस्तित्व को खोने का संकट उत्पन्न हो गया है।
- साथ ही उन्हें अपनी व्यापक समुद्री संपदा पर नियंत्रण करने के लिये भी संघर्ष करना पड़ता है।
- द्वीपीय देशों की संप्रभुता और उत्तरजीविता का समर्थन करना भारत के लिये एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक कार्य है।
- अफ्रीका: UNSC की लगभग आधी बैठकें, 60% दस्तावेज़ और लगभग 70% प्रस्ताव अफ्रीका के विभिन्न हिस्सों में शांति तथा सुरक्षा से संबंधित होते हैं।
- इस महाद्वीप को UNSC में तीन सीट (केन्या, नाइजर और ट्यूनीशिया) प्राप्त हैं और UNSC तथा अफ्रीकी संघ (AU) के ‘शांति और सुरक्षा परिषद’ (PSC) के बीच नियमित परामर्श जारी रहता है।
- UNSC का कार्यकाल भारत के लिये अफ्रीका में शांति और सुरक्षा के मुद्दों पर द्विपक्षीय, क्षेत्रीय तथा वैश्विक स्तर पर अपनी सक्रियता को बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है।
- छोटे द्वीपीय देश: जलवायु परिवर्तन और समुद्री जल स्तर के बढ़ने/उठने के साथ विश्व भर के कई छोटे द्वीपीय देशों के समक्ष अपने अस्तित्व को खोने का संकट उत्पन्न हो गया है।
निष्कर्ष:
हाल के वर्षों में भारत की विदेशी नीति मात्र प्रतिक्रियावादी न रहकर एक सक्रिय विदेशी नीति के रूप में उभरकर सामने आई है। भारतीय विदेश नीति में यह बदलाव UNSC में भारत के आगामी कार्यकाल को अधिक उद्देश्यपूर्ण और व्यावहारिक बनाता है। यहाँ उद्देश्यपूर्ण होने से आशय यह है कि भारत को UNSC में अपनी सहभागिता के साथ अपने व्यापक राष्ट्रीय हितों को एकीकृत करना होगा। वहीं व्यावहारिकता का अर्थ है कि भारत को अति-महत्वाकांक्षी लक्ष्यों से बचते हुए UNSC में बदली हुई परिस्थितियों को स्वीकार करना चाहिये।
अभ्यास प्रश्न: वर्तमान में बदलती वैश्विक व्यवस्था और इसकी नई चुनौतियों को देखते हुए भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने नए कार्यकाल का अधिक उद्देश्यपूर्ण और व्यावहारिकता के साथ लाभ उठाया जाना चाहिये। चर्चा कीजिये।