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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भूमि उपयोग पैटर्न में बदलाव और जलवायु परिवर्तन

  • 31 Jan 2017
  • 8 min read

सन्दर्भ

  • शास्त्रों में भी कहा गया है कि धरती हमारी माँ है| कितना अचम्भित हुआ होगा वह पहला मानव जिसने धरती की कोख से पहली बार किसी पौधे का अंकुर फूटते देखा होगा|
  • हालाँकि मानवों एवं धरती के बीच परस्पर क्रियाएँ मानव सभ्यता के आरम्भ होने के साथ ही शुरू हो गईं थी| लेकिन मानव और भूमि उपयोग की इस परस्पर क्रिया में सर्वप्रथम व्यापक बदलाव तब महसूस किये गए जब घुमंतू और शिकारी समूह के रूप में विचरण करने वाले मानवों ने कृषि करना आरम्भ किया|
  • होलोसीन के आरम्भ में यानी लगभग 11,500 साल पहले कुछ पौधों की खेती करने का सिलसिला शुरू हुआ, जल्दी ही लोगों के सामाजिक जीवन में बदलाव आया, तकनीक उन्नत हुई और तब विश्व के प्रथम शहरों का निर्माण हुआ|
  • जब तक मानव अपनी ज़रूरतें पूरी करता रहा भूमि उपयोग के पैटर्न में बदलाव से कोई विघटनकारी प्रभाव देखने को नहीं मिला| लेकिन जैसे ही मानव सभ्यता ने खुद को विकसित, और विकसित करने की मुहीम शुरू की, जंगलों की अंधाधुंध कटाई शुरू हो गई| शहर बढ़ते गए और जंगल छोटे होते गए|
  • मानव ने धरती को रबर की गेंद समझा और बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिये जंगल को काटकर कृषि योग्य भूमि को खींच-खींचकर बढ़ाते रहे| धीरे-धीरे भूमि उपयोग पैटर्न में बदलाव ही जलवायु परिवर्तन का एक मुख्य कारण बन गया|


भूमि उपयोग पैटर्न में बदलाव से कैसे प्रभावित होता है जलवायु परिवर्तन?

  • मानवीय गतिविधियों के माध्यम से भूमि का उपयोग के पैटर्न में बदलाव कई तरीकों से होता है| इसके उदहारण कुछ इस प्रकार से दिये जा सकते हैं- इंडोनेशिया में प्रत्येक वर्ष 500 वर्ग किलोमीटर के वन-क्षेत्र का सफाया किया जाता है| दूसरा उदहारण है दुनिया के विभिन्न देशों में शहरीकरण के लिये जंगलों का काटा जाना| भारत सहित तमाम देशों में शहरों का विस्तारीकरण औपचारिक सीमाओं से बाहर भी किया जा रहा है|
  • गौरतलब है कि शहरों के बाहर अर्द्धनगरीय व्यवस्था देखी जाती है जो कि न तो पूरी तरह से शहरीकरण का हिस्सा बन पाती है और न ही पूरी ग्रामीण व्यवस्था रह जाती है| औपचारिक सीमाओं से बाहर किये जा रहे शहरीकरण से यह व्यवस्था सर्वाधिक प्रभावित होती है|
  • शहरीकरण के लिये कृषि योग्य भूमि में औद्योगिक निर्माण, तालाबों को भरकर उस ज़मीन पर आवासीय निर्माण या फिर झीलों के किनारे निर्माण कार्यों से पारिस्थितिकी तंत्र और जलवायु अनुकूलन पर प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिलता है|
  • कोयले और पेट्रोलियम जैसे पदार्थों का अंधाधुंध उपयोग, जल का बेहिसाब उपयोग, वनों की अंधाधुंध कटाई, वायुमंडल का सुरक्षा कवच ओजोन परत का खतरे में पड़ना, और ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि ये सभी जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारण हैं और इन कारणों के अलावा एक प्रमुख कारण है भूमि उपयोग के पैटर्न में बदलाव|


क्या हो आगे का रास्ता?

  • वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग में कमी के लिए मुख्य रुप से सीएफसी गैसों के ऊत्सर्जन में कमी लानी होगी और इसके लिये ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं|
  • औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाला धुँआ हानिकारक है और इनसे निकलने वाला कार्बन डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता है| इन इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे|
  • वाहनों में से निकलने वाले धुँए का प्रभाव कम करने के लिये पर्यावरण मानकों का सख़्ती से पालन करना होगा|
  • उद्योगों और ख़ासकर रासायनिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे को फिर से उपयोग में लाने लायक बनाने की कोशिश करनी होगी| पेड़ों की कटाई रोकनी होगी और जंगलों के संरक्षण पर बल देना होगा|
  • अक्षय ऊर्जा के उपायों पर ध्यान देना होगा यानी अगर कोयले से बनने वाली बिजली के बदले पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और पनबिजली पर ध्यान दिया जाए तो आबोहवा को गर्म करने वाली गैसों पर नियंत्रण पाया जा सकता है|

निष्कर्ष

  • यदि व्यापक अर्थों में देखा जाए तो सभी पर्यावरणीय समस्याओं की जड़ भूमि उपयोग के पैटर्न में बदलाव ही है| वन एवं जंगलों को ख़ाली पड़ी भूमि कहना कदाचित ही गलत होगा| वन मानव जीवन के लिये प्रकृति के अनुपम उपहार हैं| हमारे वन पेड़-पौधे ही नहीं अपितु अनेकों उपयोगी जीव-जंतुओं व औषधियों का भंडार हैं|
  • वन पृथ्वी पर जीवन के लिये एक अनिवार्य तत्त्व हैं यह प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने में पूर्णतया सहायक होते हैं| सबसे पहले मानव ने जंगलों को कृषिगत कार्यों के लिये साफ किया आज कृषिगत भूमि का उपयोग औद्योगीकरण और बेतरतीब शहरीकरण के लिये किया जा रहा है|
  • बढ़ती जनसंख्या का बोझ अकेले कृषि पर नहीं थोपा जा सकता अतः नए उद्योगों का निर्माण भी ज़रूरी है| लेकिन दुनिया के सभी देशों ने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग नहीं बल्कि उपभोग किया| दुनिया ने विकास की गति के जिस रफ्तार को पकड़ा है उस रफ्तार से पीछे आना संभव नहीं है|
  • इसलिये पर्यावरण और विकास के मौलिक अवधारणा का अंतर्द्वन्द्ध अब स्पष्ट रूप से सामने है| कहा भी गया है कि “विकास का हर सोपान बर्बरता के नए आयाम पैदा करता है”| वस्तुतः विकास की यह समझ विकास के मायनों को ही उलट देती है और उसके प्रति नकारात्मक भाव पैदा करती है| अतः यह समझना आवश्यक है कि विकास की अवधारणा एक सापेक्षिक अवधारणा है| मानव जाति के जीवन स्तर में गुणात्मक परिवर्तन ही सही मायने में विकास है|
  • महात्मा गाँधी ने भी कहा है कि यह धरती सभी की ज़रूरतों को भलीभाँति पूर्ति कर सकती है परन्तु किसी एक के भी लालच को पूरा नहीं कर सकती| भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व को गाँधी के इस कथन को आत्मसात करना होगा और सतत् विकास के पथ पर आगे बढ़ना होगा|
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