क्या अब भारत को मिल जाएगा लोकपाल? | 29 Apr 2017

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि लोक सभा में नेता विपक्ष के बगैर भी लोकपाल में नियुक्तियाँ की जा सकती हैं।

न्यायालय ने साफ किया कि लोकपाल अधिनियम 2013 के प्रावधानों में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि चयन समिति में रिक्तता के कारण लोकपाल और सदस्यों की नियुक्ति गैरकानूनी नहीं होगी।

गौरतलब है कि न्यायालय ने लोकपाल अधिनियम, 2013 की धारा 4 की उप-धारा 2 की ओर भी संकेत करते हुए कहा कि यह धारा स्पष्ट करती है कि लोकपाल के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति को केवल इसलिये अवैध करार नहीं दिया जा सकता क्योंकि चयन समिति का एक सदस्य अनुपस्थित था।

दरअसल, लोकपाल कानून 16 जनवरी 2014 से लागू हो चुका है लेकिन लोक सभा में नेता विपक्ष न होने के कारण लोकपाल और उसके सदस्यों की नियुक्ति का मामला अटका पड़ा है।

आज से ठीक 6 साल पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर वरिष्ठ समाजसेवी अन्ना हजारे ने समाज में कैंसर बन चुके भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये एक मज़बूत लोकपाल की स्थापना के लिये भूख हड़ताल शुरू कर दी थी।

व्यापक जन-असंतोष के लहर पर सवार ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ ने अन्ना के नेतृत्व में सरकार को घुटनों पर ला दिया और फिर सरकार ने लोकपाल अधिनियम 2013 पारित किया। लेकिन आज चार साल बाद भी लोकपाल एक दिवास्वप्न बना हुआ है।

वर्तमान परिस्थितियाँ
दरअसल लोकपाल कानून में लोकपाल की चयन समिति को लेकर स्पष्ट दिशा-निर्देश दिये गए हैं। इस चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोक सभा अध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायधीश, लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष के अलावा इन सबकी सलाह से चुना गया कोई गणमान्य नागरिक शामिल होते हैं।

वर्तमान परिस्थितियों में नेता प्रतिपक्ष को छोड़कर बाकी चार सदस्य विद्यमान हैं और ऐसा इसलिये है क्योंकि विगत लोक सभा चुनावों में कांग्रेस 44 सीटों पर ही अटक गई थी, जबकि लोक सभा में विपक्ष का नेता बनने के लिये किसी पार्टी की लोक सभा में सदस्यों की संख्या, कुल संख्या का दस फीसद  होना ज़रूरी है।

वर्ष 1963 में कांग्रेस के सांसद एल.एम. सिंघवी ने पहली बार लोकपाल शब्द का जिक्र किया था। भारत-चीन युद्ध के दौरान खरीदी गई जीपों में भ्रष्टाचार की खबरों के बीच निष्पक्ष जाँच के लिये लोकपाल की बात की गई थी।

जन लोकपाल क़ानून का विचार हांगकांग से लिया गया था। दरअसल, सत्तर के दशक में हांगकांग में भ्रष्टाचार चरम पर था। तब भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये पहली बार लोकपाल के स्वरुप वाला क़ानून पेश किया गया था।

भारत में, वर्ष 1968 में पहली बार लोकपाल विधेयक पेश हुआ था। लोकपाल विधेयक राज्य सभा में पेंडिंग पड़ा था, तभी लोक सभा भंग हो गई। संविधान के अनुच्छेद 107 और संसद के नियम अनुसार विधेयक व्यपगत (लैप्स) हो गया।

तदोपरान्त वर्ष 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 में यह विधेयक बार-बार पेश किया गया, लेकिन एक मज़बूत लोकपाल सपना ही रहा।

आखिर वर्ष 2011 में अन्ना हजारे लोकपाल की मांग को लेकर देश की राजधानी पहुँच गए। दिल्ली का रामलीला मैदान ,जंग-ए-मैदान बन गया। तब जाकर 2011 में विधेयक पेश हुआ और 2013 में पारित हुआ। हालाँकि लोकपाल के गठन की प्रक्रिया अब तक आरम्भ नहीं हो पाई है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

क्यों हुआ विवाद?
विदित हो कि ‘मुख्य सतर्कता अधिकारी, मुख्य सूचना अधिकारी और सीबीआई चीफ की नियुक्ति के लिये भी नेता प्रतिपक्ष का होना आवश्यक है।

उल्लेखनीय है कि इन तीनों ही नियुक्तियों के लिये नेता प्रतिपक्ष की जगह सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की अनुमति का प्रावधान किया जा चुका है।

अब यहाँ सवाल यह उठता है कि जब सीबीआई , सीवीसी और सीआईसी के लिये ऐसी व्यवस्था हो सकती है तो लोकपाल के लिये क्यों नहीं?

तत्कालीन परिस्थितियों में ‘नेता प्रतिपक्ष’ के स्थान पर सबसे  बड़े विपक्षी दल के नेता की अनुमति लेने की व्यवस्था करने के लिये एक संविधान संशोधन बिल को राज्य सभा में प्रस्तुत किया गया।

राज्य सभा के सदस्यों ने कुछ अन्य संशोधनों की मांग की और मामले की संजीदगी को देखते हुए सारे संशोधन प्रवर समिति  को सौंप दिये गए।

समिति ने अपनी रिपोर्ट राज्य सभा को सौंप दी है लेकिन सरकार इसे सदन में पेश ही नहीं कर पाई है। समाजसेवी और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले गए।

न्यायालय ने क्या कहा?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए  लोकपाल अधिनियम की अन्य धाराओं का सहारा लेते हुए कहा है कि यदि चयन समिति में कोई एक सदस्य उपस्थित नहीं है तो उसकी अनुपस्थिति लोकपाल में की जाने वाली नियुक्तियों के आड़े नहीं आ सकती।

शीर्ष अदालत ने कहा है कि जब तक संसद में संशोधन पारित नहीं होते तब तक इस धारा का इस्तेमाल करते हुए लोकपाल के गठन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाना चाहिये। ऐसे में अहम् सवाल यह है कि क्या न्यायालय के इस आदेश के बाद भारत को लोकपाल मिल जाएगा? 

निष्कर्ष
वर्तमान लोकपाल अधिनियम में लोकपाल के अन्वेषण और जाँच विंग को वहीं शक्तियाँ प्राप्त हैं जो सीबीआई को है, ज़ाहिर है सीबीआई का राजनीति प्रेरित इस्तेमाल करने वाला प्रशासक वर्ग नहीं चाहता कि सीबीआई नामक यह ब्रह्मास्त्र उसके तरकस से गायब हो जाए।

सच्चाई यह है कि पिछले 48 साल से लोकपाल लाने की बात चल रही है और हर बार कोई न कोई मुसीबत आड़े आ जाती है। अन्ना आन्दोलन के बाद अंतत: किसी तरह थोड़ा नरम ही सही लेकिन लोकपाल बिल पास तो हुआ, लेकिन चिंतनीय यह है कि बिल पास होने के बाद भी अब इसे लागू नहीं किया जा रहा है।

हालाँकि शीर्ष न्यायालय के इस टिप्पणी के बाद लोकपाल लाया जाना चाहिये। लेकिन लोकपाल का मुद्दा राजनीतिक इच्छाशक्ति का मसला है। कोई आदमी सो रहा हो तो उसे जगाया जा सकता है, लेकिन यदि वह सोने का नाटक कर रहा हो, तो उसे आप नहीं जगा सकते। लोकपाल के मामले में भारत का प्रशासक वर्ग अब तक सोने का नाटक करता आया है और यह नाटक आगे भी जारी रह सकता है।