एक गलत दिशा के ओर जाता अधिकार विधेयक | 10 Jan 2017
पृष्ठभूमि
भारत में कानून निर्माण का सबसे व्यथित पहलू यह है कि यहाँ अक्सर कानूनों के प्रारूप निर्माण में गहराई से शोध नहीं किया जाता, दूसरे शब्दों में कहें तो बिना किसी खास शोध अथवा अध्ययन के ही महत्त्वपूर्ण विषयों पर कानूनों का प्रारूप तैयार कर दिया जाता है| भारत में कानून निर्माण के संबंध में दूसरी बड़ी समस्या यह है कि यहाँ सामाजिक मुद्दों के सन्दर्भ में प्रतीकवाद की संस्कृति (culture of tokenism) अभी भी जस की तस बनी हुई है| इसका सबसे जीवंत उदाहरण “उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2016” [Transgender Persons (Protection of Rights) Bill, 2016] के रूप में देखने को मिलता है|
विधेयक के मसौदे में व्यापक परिवर्तन
- गौरतलब है कि अप्रैल 2014 में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नालसा बनाम भारत संघ (NALSA vs. Union of India) मामले में ट्रांसजेंडर अथवा उभयलिंगी व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों की पुष्टि करते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया|
- न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये कल्याणकारी उपाय सुनिश्चित करने हेतु प्रभावी कार्यवाई करने के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी किये गए|
- साथ ही, न्यायालय ने सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की विशेषज्ञ समिति द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को लागू करने के निर्देश भी दिये|
- गौरतलब है कि दिसंबर 2014 में, राज्यसभा की सांसद तिरुची सिवा द्वारा एक निजी विधेयक के रूप में ‘उभयलिंगी व्यक्ति विधेयक’ (Transgender Persons Bill) प्रस्तुत किया गया था, जिसे अप्रैल 2015 में राज्यसभा द्वारा मंजूरी प्रदान कर दी गई|
- फिर वर्ष 2015 में केंद्र सरकार द्वारा कुछ नए प्रावधानों (उभयलिंगी विशेषाधिकार न्यायालयों एवं राष्ट्रीय तथा राज्य आयोगों द्वारा प्रस्तुत प्रावधानों सहित) एवं परिवर्तनों के साथ “उभयलिंगी व्यक्तियों के अधिकार विधेयक, 2015” (The Rights of Transgender Persons Bill, 2015) प्रस्तुत किया गया|
- तत्पश्चात अप्रैल 2016 में इस विधेयक को विधि और न्याय मंत्रालय के पास भेजा गया और जुलाई माह में इसे कैबिनेट द्वारा मंजूरी प्रदान कर दी गई| इसके बाद अगस्त 2016 में इस विधेयक को लोकसभा में प्रस्तुत किया गया|
- गौरतलब है कि इस विधेयक के अंतर्गत न केवल पुराने दो विधेयकों में निहित कुछ महत्त्वपूर्ण घटकों को पृथक कर दिया गया वरन इसके अंतर्गत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों से संबंधित मौजूदा बहस तथा संसाधनों (existing discourse and resources) समेत विशेषज्ञ समिति द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट तथा सार्वजनिक टिप्पणी की भी अवहेलना की गई|
- ध्यातव्य है कि वर्तमान में इस विधेयक को विचार-विमर्श हेतु संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया गया है|
नए बिल में व्याप्त खामियाँ
- जैसा कि ज्ञात है, नए ट्रांसजेंडर बिल में बहुत-सी खामियाँ व्याप्त हैं| उदाहरण के तौर पर, विधेयक का खंड 2 (i) जिसके अंतर्गत “ट्रांसजेंडर“ शब्द को परिभाषित किया गया है| दरअसल, इस शब्द को ऑस्ट्रेलियाई लिंग भेदभाव संशोधन (यौन उन्मुखता, लिंग पहचान तथा अंतर्लैंगिक अवस्था) अधिनियम, 2013 [Australian Sex Discrimination Amendment (Sexual Orientation, Gender Identity and Intersex Status) Act 2013] जिसमें “अंतर्लैंगिक” (intersex) शब्द को परिभाषित किया गया है, से बिना किसी व्याख्या एवं स्पष्टीकरण के उधार (inexplicably borrowed) लिया गया है|
- जबकि विशेषज्ञ समिति द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट में “अंतर्लैंगिक” तथा “ट्रांसजेंडर” शब्द के मध्य अंतर को स्पष्ट रूप से समझाया गया था|
- हालाँकि, वर्ष 2014 तथा 2015 में प्रस्तुत दोनों विधेयकों में “ट्रांसजेंडर” शब्द को इसके सटीक रूप में परिभाषित किया गया था, जबकि वर्ष 2015 के विधेयक में तो “महिला”, “पुरुष” एवं “उभयलिंगी” (transgender) के रूप में अलग-अलग पहचान भी की गई थी|
- एक अन्य समस्या ट्रांसजेंडर समुदाय के आरक्षण संबंधी प्रावधान को लेकर भी है, क्योंकि वर्ष 2014 एवं 2015 में प्रस्तुत किये गए विधेयकों के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नालसा मामले में सुनवाई के दौरान भी ट्रांसजेंडर समुदाय को आरक्षण प्रदान किये जाने के विषय में दिशा-निर्देश जारी किये गए थे|
अधिकार विहीन दृष्टिकोण
- ध्यातव्य है कि नालसा मामले में प्रयोग की गई अधिकारों की भाषा (rights language) के अनुरूप 2016 के विधेयक में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों को संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 14, 19 एवं 21) के साथ संबद्ध करते हुए व्याख्यायित किया गया है|
- मानसिक स्वास्थ्य विधेयक (Mental Healthcare Bill) 2016 तथा विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम (Rights of Persons with Disabilities Act) 2016 में भी अधिकारों की इसी भाषा (rights language) का प्रयोग किया गया है|
- एक अन्य समस्या यह है कि 2016 के विधेयक के अंतर्गत इस कानून के संचालन एवं क्रियान्वयन के विषय में कोई विशेष जानकारी प्रदत्त नहीं की गई है|
- ध्यातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नालसा मामले में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये नागरिक अधिकारों को सुलभ बनाने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है| हालाँकि, वर्तमान विधेयक इस दृष्टिकोण पर खरा नहीं उतरता है|
- अंततः यहाँ यह स्पष्ट करना अत्यावश्यक है कि उपरोक्त सभी विधेयकों में से किसी भी विधेयक में धारा 377 के प्रावधानों को शामिल नहीं किया गया है| ध्यातव्य है कि धारा 377 के अंतर्गत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों, विशेषकर ट्रांसजेंडर महिलाओं के शोषण संबंधी प्रावधानों को शामिल किया गया है|
निष्कर्ष
स्पष्ट है कि ट्रांसजेंडर विधेयक, 2016 कानून निर्माण की दिशा में एक बेहद अरुचिकर एवं निष्ठाहीन प्रयास साबित होता प्रतीत हो रहा है| जैसा कि स्पष्ट है, हाशिये पर जीवन व्यतीत कर रहे इस “समुदाय विशेष” को कानूनी रूप से सशक्त बनाने की दिशा में भारत केवल एक कदम की दूरी पर है, ऐसे में देश को पूर्ण ईमानदारी एवं निष्ठा से इस दिशा में प्रयास करना चाहिये ताकि ट्रांसजेंडर समुदाय को विकास की मुख्यधारा में शामिल किया जा सके|