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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

द्विपक्षीय निवेश संधियाँ और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश

  • 29 Mar 2017
  • 9 min read

1 अप्रैल 2017 को भारत वर्ष 1991 से पहले की परिस्थितियों का साक्षी बनने जा रहा है| विदित हो कि एलपीजी(liberalization, privatization and globalization) सुधारों के अस्तित्व में आने से पहले भारत द्विपक्षीय निवेश संधियों (bilateral trade agreements) को महत्त्व नहीं देता था, लिहाज़ा किसी भी देश के साथ भारत की इस प्रकार की कोई संधि नहीं थी| भारत क्यों फिर से 1991 से पहले के दौर में प्रवेश करने वाला है? यह जानने के लिये पहले हमें द्विपक्षीय निवेश संधियों की पृष्ठभूमि पर गौर करना होगा|

पृष्ठभूमि

1991 के आर्थिक संकट से पहले भारत द्विपक्षीय निवेश संधियों को महत्त्व इसलिये नहीं देता था क्योंकि तब वह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को गौण महत्त्वों वाला समझता था| किन्तु जैसे ही आर्थिक संकट ने भारत की जड़ें कमज़ोर करनी शुरू की भारत ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का दरवाजा खटखटाया| वित्त प्रदायी इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भारत को क़र्ज़ देने के साथ ही उसे अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलने को भी कहा| तत्पश्चात, भारत ने एलपीजी सुधारों की कवायद आरम्भ की और इन्ही प्रयासों के अंतर्गत विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संधियों पर स्याही लगाया|

द्विपक्षीय निवेश संधियाँ महत्त्वपूर्ण इस दृष्टिकोण से हैं कि इसकी अनुपस्थिति में कोई भी विदेशी निवेशक, भारत द्वारा प्रतिकूल विनियामक दबाव बनाए जाने की स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता का इस्तेमाल नहीं कर सकता है जिससे कि भारत को अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत जवाबदेह ठहराया जा सके| ज़ाहिर है द्विपक्षीय निवेश संधि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण घटक है|

दरअसल, पिछले वर्ष भारत ने 58 देशों को सूचित कर दिया था कि वह उनके साथ अपनी द्विपक्षीय निवेश संधियों को निरस्त करने जा रहा है| विदित हो कि इस निरस्तीकरण ज्ञापन की अवधि एक साल की थी और इस वर्ष 1 अप्रैल को भारत का 58 देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संधि स्वतः ही समाप्त हो जाएगी| भारत इन देशों के साथ नई द्विपक्षीय निवेश संधियाँ करना चाहता है। भारत इन संधियों के विभिन्न प्रावधानों की समीक्षा कर रहा है ताकि उन्हें निवेश संरक्षण समझौतों के नए नियमों के मुताबिक ढाला जा सके।

विदित हो कि इस तरह की संधि का एक आदर्श प्रारूप वर्ष 2015 में तैयार किया गया था जिसमें भारत की घरेलू निवेश नीतियों को वैश्विक निवेश परिस्थितियों के अनुकूल बनाने की बात कही गई है। संधि के प्रारूप में इस बात के पर्याप्त सुरक्षा उपाय किये गए हैं कि विदेशी निवेशक किसी विवाद की स्थिति में मुआवजे के लिये भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय पंचाट में आसानी से न घसीट पाए|

क्यों उचित नहीं है भारत का यह फैसला ? 

कोई भी विदेशी निवेशक किसी संधि को एकतरफा ढंग से निरस्त करना पसंद नहीं करता क्योंकि इससे निवेश की सुरक्षा को लेकर संशय का माहौल बनने लगता है। हालाँकि भारत सरकार की दलील है कि विदेशी निवेशक किसी गड़बड़ी की सूरत में भारतीय अदालतों का रुख कर सकते हैं लेकिन विदेशी निवेशकों को आश्वस्त करने के लिये यह नाकाफी है| भारतीय न्याय व्यवस्था काफी सुदृढ़ है लेकिन लंबित मामलों पर फैसला आने में होने वाली देरी, विदेशी निवेशकों की चिंता बढ़ा रहा है। उनका मानना है कि अगर भारतीय अदालतों के भरोसे रहे तो देरी के चलते उनके कारोबार को काफी नुकसान हो सकता है|

विकसित देशों को भारत का द्विपक्षीय संधियों को निरस्त करने का फैसला काफी नागवार गुजरा है। यूरोपीय संघ भारत के साथ एक विधिवत द्विपक्षीय निवेश संधि की बहाली करने की वकालत करता आ रहा है| वहीं कनाडा और अमेरिका भी भारत के साथ विदेश व्यापार समझौते को लेकर चल रही बातचीत में द्विपक्षीय निवेश संधि के मुद्दे को तरजीह देते नज़र आ रहे हैं|

क्यों उचित है यह प्रयास ?

विदित हो कि मौजूदा संधियों में निहित मध्यस्थता प्रक्रिया भारत या भारतीय पक्ष को लेकर प्राय: पूर्वाग्रह ग्रस्त होती है। अधिकांश मौकों पर भारत को विवाद निपटान के लिये बने मध्यस्थता मंचों पर मुँह की खानी पड़ी है। दरअसल ये मध्यस्थता मंच चुनींदा देशों के बंद समूह के रूप में काम करते हैं और फैसला करते समय भारत के पक्ष को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। यही कारण है कि भारत के साथ-साथ ब्राज़ील और इंडोनेशिया ने भी एकतरफा ढंग से द्विपक्षीय निवेश संधियों को रद्द कर दिया है|

क्या हो आगे का रास्ता ?

जैसा कि हम जानते हैं कि भारत पुरानी द्विपक्षीय संधियों के स्थान पर नई संधि को अमल में लाना चाहता है और इसके लिये एक प्रारूप वर्ष 2015 में ही तैयार कर लिया गया था| लेकिन अब सवाल यह है कि वे कौन-से देश हैं ,जो इस मॉडल पर भारत के साथ वार्ता करने को उत्सुक हैं? इस मामले में भारत के साथ केवल उन्हीं देशों की सहानुभूति हो सकती है, जिनकी घरेलू दुर्बलताएँ भी हमारे समान हैं और शायद यही कारण है कि कनाडा जैसी विकसित अर्थव्यवस्था नए मॉडल को लेकर उतनी उत्साहित नहीं है| इस नए मॉडल का लक्ष्य निवेशक को और अधिक आकर्षित करने वाले प्रावधानों का निर्माण करना होना चाहिये|

महत्त्वाकांक्षी “मेक इन इंडिया” अभियान का लक्ष्य भारत को “वैश्विक विनिर्माण का हब” बनाना है लेकिन इस अभियान की सफलता भी इसी बात पर निर्भर करती है कि हम दीर्घकालीन विदेशी निवेश आकर्षित करने की क्षमता रखते हैं या नहीं| विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिये माध्यमिक और दीर्घकालिक संस्थागत और प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता है और इन सुधारों में द्विपक्षीय निवेश संधि की अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है|

निष्कर्ष

इसमें कोई दो राय नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता निकायों ने प्रायः भारत के मामलों में पक्षपाती निर्णय दिये हैं, लेकिन इस कारण से द्विपक्षीय निवेश संधियों के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता| गौरतलब है कि विभिन्न अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि जिन देशों ने विकसित देशों के साथ इन संधियों पर हस्ताक्षर किये हैं उन देशों में होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में उल्लेखनीय वृद्धि देखने को मिली है| किसी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर कैसी है, भूमि तथा श्रम की उपलब्धता आदि कुछ ऐसे घटक हैं जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, अतः यह कहना भी सही नहीं है कि द्विपक्षीय निवेश संधियाँ ही निवेश आकर्षित करने का एक मात्र ज़रिया हैं, लेकिन फिर भी जिस तरह से सरकार एक सिरे से द्विपक्षीय निवेश संधियों के महत्त्व को नकार रही है वह अवांछनीय है|

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