बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों का विनियमन | 01 Mar 2021

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में हाल ही में विश्व भर में फेसबुक और गूगल जैसी बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों पर नियामकीय सख्ती बढ़ाने से जुड़े विमर्श व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ: 

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में एक नए ‘न्यूज़ मीडिया एंड डिजिटल प्लेटफॉर्म्स मैंडेटरी बार्गेनिंग कोड’ (News Media and Digital Platforms Mandatory Bargaining Code) को लागू किया गया है। इस कोड का उद्देश्य फेसबुक और गूगल जैसी बड़ी टेक फर्मों को अपनी न्यूज़ फीड या सर्च रिज़ल्ट में स्थानीय मीडिया आउटलेट्स तथा प्रकाशकों की सामग्री को लिंक करने के बदले में उन्हें उचित भुगतान करने के लिये बाध्य करना है।

ऑस्ट्रेलियाई कानून को बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों को विनियमित करने और वैश्विक संचार पर उनके नियंत्रण को वापस लेने हेतु विश्व के अन्य देशों के आगामी प्रयासों के पहले कदम के रूप में देखा जा रहा है।

इसी प्रकार सोशल मीडिया पर सख्ती बढ़ाने के लिये भारत सरकार द्वारा भी कई नियमों की घोषणा की गई है। विशेष रूप से सोशल मीडिया कंपनियों को अपने प्लेटफॉर्म पर प्रकाशित सामग्री के लिये "अधिक ज़िम्मेदार और अधिक जवाबदेह" बनने की आवश्यकता है। 

हालाँकि इन प्लेटफाॅर्मों को विनियमित करने की अपनी चुनौतियाँ हैं जैसे कि मुक्त भाषण की स्वतंत्रता पर प्रभाव, मुक्त भाषण के एक माध्यम और हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज़ के रूप में उनकी (सोशल मीडिया कंपनियाँ) भूमिका के लिये बाधक बनना आदि।

ऑनलाइन सामग्री को विनियमित करने की आवश्यकता: 

  • इंटरनेट का एकाधिकार: वर्तमान में बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियाँ अन्य प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को क्षति पहुँचाने के लिये अपने पूंजी आधार का लाभ उठाते हुए बेहद कम कीमतों पर उत्पादों और सेवाओं को उपलब्ध कराने के साथ प्रतियोगियों को बाहर कर रही हैं।
    • वे उपभोक्ताओं के डेटा को नियंत्रित करते हैं, जो इंटरनेट बाज़ार में किसी भी संस्थान की पकड़ को निर्धारित करने का प्रमुख कारक है।
  • निगरानी पूंजीवाद:  बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियाँ लोगों की ऑनलाइन गतिविधियों का व्यापक डेटा एकत्र करती हैं और लक्षित विज्ञापनों के माध्यम से इस डेटा का उपयोग अपने व्यावसायिक हितों के लिये करती हैं।
    • ऑस्ट्रेलिया में प्रस्तावित संहिता के तहत फेसबुक और गूगल को अपने एल्गोरिदमिक मॉड्यूल और डेटासेट को नियमकीय समीक्षा के लिये खोलना होगा जो इन कंपनियों की विज्ञापन गतिविधियाँ को आधार प्रदान करता है।
  • हेट स्पीच तथा दहशत फैलाने पर नियंत्रण:  दुर्भावना फैलाना और राजनीतिक ध्रुवीकरण ऐसे विचार जो कि नैतिक दहशत को जन्म देते हैं, जैसे-अभद्र भाषा, आतंकवादी प्रचार आदि को बढ़ावा देने के लिये बड़े पैमाने पर बिग टेक प्लेटफॉर्म का उपयोग किया जा रहा है। 
    • इसके कारण सरकार का हस्तक्षेप इस पूर्वधारणा पर टिका हुआ है कि आपत्तिजनक भाषण को हटाना कभी भी बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों के व्यावसायिक हित में नहीं होगा क्योंकि यह सामग्री अधिक आसानी से वायरल हो जाती है और अधिक दर्शक तथा अधिक डेटा के साथ अधिक विज्ञापन राजस्व प्राप्त करने का अवसर प्रदान करती है।
  • सार्वजनिक हितों की रक्षा: इसके अतिरिक्त राज्य जनहित के रक्षक होते हैं और एक लोकतांत्रिक समाज में सरकारें लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करने के लिये चुनी जाती हैं। 
    • ऐसे में बोलने या विचारों की स्वतंत्रता को सीमित करने या इसकी अनुमति के बीच कठिन निर्णय लेने की स्थिति में सरकार का रुख करना प्राकृतिक है।

ऑनलाइन कंटेंट के विनियमन से जुड़े मुद्दे:

  • इनेबलर की भूमिका (Role of Enabler):  बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियाँ छोटे प्रकाशकों या स्व-वित्तपोषित उद्यमियों को अपने उत्पादों/सेवाओं के मूल्यवर्द्धन का अवसर प्रदान करती हैं।
  • ‘विवशतावश दिया गया भाषण-मुक्त भाषण नहीं’: कभी-कभी इन प्लेटफाॅर्मों को नियंत्रित करने के प्रयासों से अभिव्यक्ति और विचार की स्वतंत्रता के लिये स्थापित अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का उल्लंघन होता है।    
    • भारत में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिये जारी हालिया दिशा-निर्देशों के अनुसार, यदि किसी सोशल मीडिया पर प्रकाशित कोई भी पोस्ट या सामग्री “भारत की एकता, अखंडता, रक्षा, सुरक्षा या संप्रभुता, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, या सार्वजनिक शांति, या किसी संज्ञेय अपराध करने के लिये उकसाना या किसी अपराध की जाँच को रोकता है या किसी भी विदेशी राज्य का अपमान करता है,” तो उसे सोशल मीडिया पेज से हटाया जा सकता है।   
    • हालाँकि सरकार द्वारा जारी इस दिशा-निर्देश में शामिल उपर्युक्त शब्दों का अर्थ बहुत व्यापक है और यह भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों में सरकार के हस्तक्षेप को बढ़ावा दे सकता है।
  • वंचितों की आवाज़: यहाँ यह बताना महत्त्वपूर्ण है कि सोशल मीडिया की वजह से ही #ब्लैकलाइव्समैटर (#BlackLivesMatter), #लिविंगव्हाइलब्लैक (#LivingWhileBlack) और #मीटू (#MeToo) जैसे मुद्दे सार्वजनिक चर्चा में शामिल हुए।   
    •  ऐसे में बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों को विनियमित करने के प्रयास समाज के कमज़ोर वर्गों की आवाज़ को दबा सकते हैं।
  • स्व-नियमन: बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों के समर्थकों का तर्क है कि ये कंपनियाँ अपने सिस्टम पर आक्रामक सामग्री की अनुमति देने के जोखिमों के बारे में सजग हो रही हैं और ऐसे में अंततः ये कंपनियाँ स्वयं ही ऐसी सामग्रियों को हटाने में अपना हित देखेंगी। 

आगे की राह: 

  • व्यक्तिगत डेटा विनियमन को प्राथमिकता देना: वर्तमान में जब डेटा एक नया मानक बनकर उभरा है, ऐसे में  तकनीकी कंपनियों द्वारा बाज़ार पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिये उपभोक्ताओं के व्यक्तिगत डेटा का उपयोग करने की प्रक्रिया का विनियमन बहुत ही आवश्यक है।
  • गोपनीयता का अधिकार सुनिश्चित करना:  विश्व भर में सरकारों द्वारा उपभोक्ताओं की गोपनीयता के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिये कड़े कानून लागू किये गए हैं, जिसके तहत तकनीकी कंपनियों को कुछ बुनियादी और आवश्यक डेटा सुरक्षा तथा गोपनीयता उपायों का पालन करना अनिवार्य है।    
  • सूचना का मौद्रीकरण: बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों को समाचार एजेंसियों और अन्य संस्थाओं की सामग्री को अपने प्लेटफॉर्म (जैसे-फेसबुक के न्यूज़फीड और गूगल सर्च) पर उपयोग करने के बदले सभी हितधारकों को उचित भुगतान करने के संदर्भ में बातचीत करनी चाहिये।

निष्कर्ष:

वर्तमान में विश्व के देश वैश्विक कूटनीति के एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं। अब सिर्फ देश ही अन्य देशों से प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर रहे हैं बल्कि विश्व की कई विशाल तकनीकी कंपनियाँ भी वैश्विक भू-राजनीतिक को प्रभावित करती हैं। ऐसे में वर्तमान में देशों और बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों के बीच सौदेबाज़ी की शक्ति से जुड़े बदलते समीकरणों को पहचानने की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: वर्तमान समय के डिजिटल भू-राजनीतिक परिदृश्य में देशों और बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों के बीच सौदेबाज़ी की शक्ति से जुड़े बदलते समीकरणों को पहचानने की आवश्यकता है। चर्चा कीजिये।