मुक्त व्यापार के आदर्शवाद से परे | 16 May 2019

यह लेख 25 अप्रैल, 2019 को द हिंदू में प्रकाशित 'Beyond The Free Trade Idealism' का भावानुवाद है। यह लेख सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-III के खंड 8 से संबद्ध है। इस लेख में ‘मुक्त व्यापार की आदर्शवादी’ अवधारणा से परे भारतीय अर्थव्यवस्था का वैश्विक परिदृश्य में अवलोकन किया गया है।

संदर्भ

पिछले कुछ समय से भारत के संदर्भ में अमेरिका के रवैये में तल्खी देखने को मिल रही है। हाल ही में अमेरिका ने न केवल भारत द्वारा इलेक्ट्रॉनिक सामानों पर आयात शुल्क बढ़ाए जाने को लेकर अपनी आपत्ति जताई बल्कि यह इच्छा भी व्यक्त की कि भारत अमेरिका-निर्मित मोटरसाइकिलों पर लगने वाले शुल्क को भी कम करें। ऐसी स्थिति में विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व पर स्वत: ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है जब वह अपने अधिकारों का प्रयोग कर मामले में हस्तक्षेप करने की बजाय एक मूकदर्शक बना बैठा है। निश्चित तौर पर यह एक ऐसा समय है जब वैश्विक हित (जिसमें विकसित राष्ट्रों के साथ-साथ विकासशील राष्ट्रों के हितों को भी समान महत्त्व दिया जाए) को ध्यान में रखते हुए व्यापार व्यवस्था को नया आकार देने के लिये मूलभूत सिद्धांतों को लागू किया जाए जो सभी के लिये अनुकूल हों।

मुक्त व्यापार

  • यदि प्रत्येक व्यक्ति केवल वह कार्य करे जिसे वह अन्य किसी से भी बेहतर करता है और प्रत्येक एक-दूसरे के साथ व्यापार करें तो सभी के कल्याण में वृद्धि होगी। साथ ही इससे वैश्विक आर्थिक हिस्सेदारी के आकार में भी वृद्धि होगी क्योंकि ऐसे परिवेश में किसी प्रकार की कोई अक्षमता नहीं होगी।
  • परंतु समस्या यह है कि वर्तमान समय में विश्व के बहुत से लोग ऐसे कार्यों में संलग्न हैं जिन्हें अन्य दूसरे देशों में रहने वाले लोग उनसे बेहतर कर सकते हैं।
  • स्पष्ट रूप से अर्थशास्त्रियों के आदर्शात्मक परिदृश्य के अनुकूल होने के लिये कई लोगों को उनके वर्तमान कार्यों को छोड़कर कुछ अन्य कार्य करने में कौशल प्राप्त करना होगा ताकि वे अपने ज्ञान, बु​​​द्धिमत्ता एवं अनुभव का और बेहतर एवं सटीक इस्तेमाल कर सकें।
  • इससे न केवल मानव संसाधनों को सही ढंग से व्यवस्थित किया जा सकेगा बल्कि आर्थिक संवृद्धि को भी बल मिलेगा।
  • डानी रोड्रिक के आकलन के अनुसार, वैश्विक आय में समग्र वृद्धि के लिये प्रत्येक इकाई का एक दूसरे से फेरबदल करना होगा। इस सिद्धांत के अनुसार लोगों को ऐसी वस्तुओं के उत्पादन से बचना चाहिये जिनका अन्य लोगों द्वारा पहले से ही उत्पादन किया जा रहा है, क्योंकि जब तक वे लोग उस वस्तु विशेष के उत्पादन में पूर्णतया कुशल नहीं हो जाते है, तब तक वे कम कुशलता वाले उत्पादन में ही लगे रहेंगे।
  • मुक्त व्यापार के इस सिद्धांत के अनुसार, भारतीयों को स्वतंत्रता के बाद इस बात के लिये परेशान नहीं होना चाहिये था कि ट्रकों, बसों और दोपहिया वाहनों का उत्पादन करना किस प्रकार सीखना है, बल्कि इसके स्थान पर उन्हें अमेरिकी, यूरोपीय और जापानी कंपनियों से इन वस्तुओं का आयात जारी रखना चाहिये था।
  • मुक्त व्यापार के समर्थकों का मानना है कि अन्य देशों से किये जाने वाले सरल व सहज आयात से उपभोक्ता कल्याण में वृद्धि होती है। इसका कारण यह है कि आयात के संबंध में आने वाली बाधाओं में कमी होने से उपभोक्ताओं को उनकी इच्छित वस्तुएँ उनके पास की दुकानों पर उपलब्ध हो जाती हैं। इससे उपभोक्ताओं की ऐसी वस्तुओं तक आसान पहुँच सुनिश्चित हो पाती है जो अभी तक कीमतों और सीमा पार मौजूदगी के कारण असंभव थी।
  • मिल्टन फ्रीडमैन के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में होने वाले निर्यात से कंपनियों को लाभ होता है और आयात से संबंधित देशों के नागरिकों को। इस प्रकार मुक्त व्यापार के संबंध में उपभोक्ताओं की ओर से प्रतिरोध नहीं किया जाता है बल्कि यह प्रतिरोध सामान्यतः उन कंपनियों की ओर से किया जाता है जो प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर पाती हैं ये कंपनियाँ अधिकतर अल्प विकसित देशों में सक्रिय होती हैं जो तब तक प्रतिस्पर्द्धी नहीं बन सकती हैं जब तक कि संबंधित देश की आधारभूत संरचना में सुधार नहीं होगा।
  • आधारभूत संरचनाओं के विकसित स्वरूप के दम पर ही ये कंपनियाँ पर्याप्त सक्षमता अर्जित कर सकती हैं। गौर करने वाली बात यह है कि ऐसी कंपनियों का अस्तित्व विकसित देशों में भी हो सकता है जहाँ इन कंपनियों का कारोबार विकासशील देशों की कंपनियों द्वारा पछाड़ दिया गया हो।

रोज़गार विकास

  • यहाँ प्रश्न यह उठता है कि महज आयात का लाभ प्राप्त करने के लिये नागरिकों की पर्याप्त आय होनी चाहिये जिससे वे उपलब्ध उत्पादों व सेवाओं की खरीद कर सकें। इसके लिये उन्हें रोज़गार की आवश्यकता है ताकि उनके पास पर्याप्त मात्रा में धन हो।
  • नागरिकों के कल्याण के लिये किसी भी उत्तरदायी सरकार को देश में रोज़गार विकास पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता होती है ताकि आर्थिक संवृ​द्धि के साथ-साथ जन कल्याण को भी बढ़ावा दिया जा सके।
  • सभी के लिये रोज़गार उपलब्ध कराने की राह में घरेलू उत्पादक सहायक साबित हो सकते हैं, इसके लिये आवश्यक है कि विकासशील देशों में एक अच्छी ‘औद्योगिक नीति’ को अपनाया जाए जो अपने प्रतिस्पर्द्धी लाभों को अर्जित कर घरेलू उत्पादन की वृद्धि में तेज़ी ला सके और इन क्षमताओं के विकास से ऐसे देशों के उत्पादकों से प्रतिस्पर्द्धा करने में सक्षम हो सकें जो पहले से विकसित हैं।

No Barrier to Free Trade

  • जब 1990 के दशक में वाशिंगटन सहमति के साथ ‘मुक्त व्यापार में बाधा नहीं’ आंदोलन को बढ़ावा दिया गया, तो उस समय औद्योगिक नीति की अवधारणा (जो घरेलू उद्योगों के ‘संरक्षण’ के विचार से एकाकार प्राप्त कर चुकी थी) से असंगत हो गई।
  • भारत ने 1990 के दशक में आयात को उदार बनाया, जिससे भारतीय उपभोक्ताओं को काफी लाभ पहुँचा। हालाँकि वर्ष 2009 तक, भारतीय विनिर्माण उद्योगों की कमज़ोर स्थिति अर्थव्यवस्था के समक्ष एक बड़ी चिंता के रूप में उभरी।
  • यदि तुलनात्मक अध्ययन करें तो वर्ष 1990 में भारत और चीन की विनिर्माण क्षेत्र क्षमता लगभग एकसमान थी, किन्तु वर्ष 2009 तक चीन की क्षमता में भारत से 10 गुना अधिक वृद्धि दर्ज की गई और इसका पूंजीगत वस्तु उत्पादन क्षेत्र भारत की तुलना में अपेक्षाकृत 50 गुना अधिक हो गया। इसका प्रभाव यह हुआ कि भारतीय बाज़ार में न केवल चीनी वस्तुओं की भरमार हो गई बल्कि चीनी विद्युत व दूरसंचार उपकरणों की पहुँच भारत सहित पूरे विश्व तक हो गई।
  • स्पष्ट है कि भारत की प्रभावशाली जीडीपी वृद्धि भारत की बड़ी युवा आबादी के लिये पर्याप्त रोज़गार उत्पन्न नहीं कर पा रही थी जबकि वास्तविकता यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को एक शक्तिशाली रोज़गार सृजक होना चाहिये था। इस संबंध में कुछ लोगों द्धारा औद्योगिक नीति की सिफारिश भी गई, ताकि घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहन दिया जा सकें।
  • हालाँकि कुछ भारतीय अर्थशा​स्त्रियों तथा विश्व बैंक के अर्थशा​स्त्रियों द्वारा इस विचार को ​स्वीकार न करने पर बल दिया गया। उनके तर्कानुसार, औद्योगिक नीति का विचार सोवियत संघ के समय का है जिसकी वर्तमान में कोई प्रासंगिकता नहीं है।
  • इसके इतर भारत को अपनी आधारभूत संरचना को मज़बूत करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। ऐसा किये आवश्यक यह है कि व्यापार सुगमता, कौशल विकास जैसे बुनियादी स्तंभों को सुद्ढ़ बनाया जाए क्योंकि बगैर भारतीय उद्योग विकास नहीं कर सकते हैं।  

आगे की राह

  • वर्ष 2019 तक यह स्पष्ट हो गया कि भारत के नीति-निर्माताओं को ऐसे उपायों को तलाशने की आवश्यकता है जिनके अनुपालन से आर्थिक संवृद्धि के साथ-साथ भारतीय नागरिकों की आय में वृद्धि के लिये अवसरों का निर्माण किया जा सके।
  • वर्तमान में भारत के समक्ष रोज़गार और आय दो महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं। ऐसे में एक महत्त्वाकांक्षी ‘रोज़गार एवं आय नीति’ सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये।
  • भारत की बढ़ती जनसंख्या उद्यमों के विकास के लिये एक प्रेरणा बन सकती है, यदि नागरिकों की आय में वृद्धि होती है तो वे अधिक व्यय करने में सक्षम हो पा पाएंगे, जिससे अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। ‘रोज़गार एवं आय नीति ’ के संदर्भ में औद्योगिक नीति को प्रोत्साहन प्रदान करने की आवश्यकता है।
  • ‘उद्योग’ के दायरे को विस्तृत करते हुए इसमें उन सभी क्षेत्रों को शामिल किया जाना चाहिये जो भारत के प्रतिस्पर्द्धी लाभों का उपयोग कर सकें। उदाहरण के लिये, भारत की विशिष्ट सांस्कृतिक विविधता और प्राकृतिक सुंदरता का लाभ उठाते हुए पर्यटन एवं आतिथ्य उद्योग में देश के लाखों लघु उद्यमों को समर्थन प्रदान करने की क्षमता मौजूद है।
  • भारत के मानव संसाधनों का लाभ उठाते हुए डिजिटल तकनीकों के साथ लघु उद्यमों की पहुँच में विस्तार तथा विनिर्माण व सेवा क्षेत्र में ऐसे  कई घरेलू उद्योगों और निर्यात अवसरों हेतु मार्ग प्रशस्त किये जा सकते हैं जो अभी तक विकास से अछूते हैं।
  • उदारीकरण के पहले से ही भारत सरकार ने चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रमों में उत्पादन और प्रौद्योगिकी के स्वदेशीकरण पर बल दिया जिसके परिणामस्वरूप भारत का ऑटोमोबाइल क्षेत्र भारतीय उपभोक्ताओं हेतु बेहतर उत्पाद उपलब्ध कराने में सक्षम हो सका।
  • वर्तमान समय में भी यह क्षेत्र लाखों लोगों को रोज़गार एवं आय प्रदान कर रहा है। इसके अलावा, भारतीय ऑटो-पार्ट निर्माता और वाणिज्यिक वाहन निर्माता विश्व के सबसे अधिक प्रतिस्पर्द्धी बाज़ारों में निर्यात कर रहे हैं, जिससे अर्थव्यवस्था को बल मिल रहा है।
  • हालाँकि इन सबके बावजूद भारतीय इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र पिछड़ेपन का शिकार रहा है, जबकि चीन ने इसमें व्यापक उन्नति की है। भारत ने वर्ष 1996 में विश्व व्यापार संगठन के सूचना प्रौद्योगिकी समझौते पर हस्ताक्षर किये और आईटी-संबंधी उत्पादों पर आयात शुल्क घटाकर शून्य कर दिया। चीन इस समझौते से उस समय तक दूर रहा जब तक कि उसका इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र पूरी तरह से मज़बूत नहीं हो गया। इसी का परिणाम है कि वर्तमान समय में अमेरिका और यूरोप को अपने बाज़ारों में चीन के दूरसंचार एवं इलेक्ट्रॉनिक सामानों के निषेध के लिये प्रयास करने पड़ रहे हैं।

निष्कर्षतः

  • सभी देशों में, विशेषकर निर्धन देशों में नागरिकों के कल्याण के लिये विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, बजाय इस बात पर बल दिया जाए कि मुक्त व्यापार की आदर्शवादवादी अवधारणा की आड़ में अमीर देशों की कंपनियों के समक्ष आने वाली निर्यात की बाधाओं को कम किया जाए।
  • इसके साथ-साथ सार्वभौमिक बुनियादी आय के गणित से विचलित भारतीय अर्थशास्त्रियों को आर्थिक विकास के मूल सिद्धांतों की ओर रूख करने की आवश्यकता है जहाँ मुख्य बल इस बात पर देना है कि नई क्षमताओं के विकास के साथ-साथ उत्पादन कार्यों से आय सृजन के अधिक अवसरों का निर्माण कैसे किया जाए? अन्तत: यह कहना गलत नहीं होगा कि एक कल्पनाशील औद्योगिक नीति द्वारा समर्थित सुदृढ़ आय एवं रोज़गार नीति को भारत की व्यापार नीति का मार्गदर्शन करना चाहिये।

संभावित प्रश्न: 'मुक्त व्यापार' की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए इस संदर्भ में WTO की भूमिका को रेखांकित कीजिये।