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मूलभूत ज़रूरतें, बुनियादी हक और न्यूनतम सभ्य जीवन का अधिकार

  • 02 Jul 2019
  • 14 min read

यह Editorial 25 जून को The Hindu में प्रकाशित आलेख India must recognise the right to a minimally decent life का भावानुवाद है। इस आलेख में बिहार में हुई बच्चों की मृत्यु के संदर्भ में लोगों के बुनियादी अधिकारों को लेकर चर्चा की गयी है।

संदर्भ

बिहार के मुज़फ्फरपुर में स्वास्थ्य देखभाल सेवा की संस्थागत विफलता से सौ से अधिक बच्चों की मृत्यु एक भयावह त्रासदी है, जिससे कुछ विमर्श उठ खड़े हुए हैं। जैसे-

  1. जिस प्रकार संविधान में प्रमुख अवधारणाओं के लिये बुनियादी संरचना (Basic Structure) के सिद्धांत का प्रावधान है, उसी प्रकार बुनियादी अधिकारों के लिये भी एक सशक्त सिद्धांत की अभिव्यक्ति होनी चाहिये।
  2. ये अधिकार सिर्फ राज्य के हस्तक्षेप के विरुद्ध उपलब्ध अधिकार (नकारात्मक अधिकार) न हों, बल्कि अधिकारों से संबंधित प्रावधानों का स्पष्ट रूप से उल्लेख भी किया जाना चाहिये।
  3. जिस प्रकार कानून के उल्लंघन के लिये दंड का प्रावधान होता है, उसी प्रकार मुज़फ्फरपुर जैसी घटना में हुई संस्थागत विफलता के लिये भी ज़िम्मेदारी तय करके दंडित किया जाना चाहिये।
  4. इस प्रकार से होने वाला मूल अधिकारों का व्यवस्थित उल्लंघन संवैधानिक मशीनरी की असफलता के समान माना जाना चाहिये।

ऐसे में भारत को न्यूनतम सभ्य जीवन के अधिकार को मान्यता देनी चाहिये, ताकि इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके और इनके लिये लीची या मच्छर पर दोष मढ़ने के बजाय विफलता के लिये ज़िम्मेदार तंत्र पर कार्रवाई होनी चाहिये।

बुनियादी आवश्यकताएँ

बुनियादी अधिकारों पर चर्चा से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि बुनियादी अधिकार अन्य अधिकारों से अलग कैसे हैं? बुनियादी अधिकार बुनियादी आवश्यकता को निरूपित करते हैं, जैसे- भौतिक सुरक्षा और जीवन निर्वाह से जुड़ी आवश्यकता। ये आवश्यकताएँ इच्छाओं से अलग होती हैं...इच्छाओं की पूर्ति के बिना भी जीवन निर्वाह संभव है, किंतु भोजन, वायु तथा स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के अभाव में जीवन निर्वाह संभव नहीं हो सकता। जैसे- किसी बीमार व्यक्ति के लिये इलाज आवश्यक होता है, अन्यथा उसकी मृत्यु भी सकती है। किंतु इच्छाएँ व्यक्तिनिष्ठ होती हैं जो स्वयं की आकांक्षाओं से जुड़ी होती हैं, लेकिन आवश्यकताएँ आकांक्षाओं से प्रेरित नहीं होतीं। संभव है कि कोई व्यक्ति यह बताना नहीं चाहता कि उसे उचित इलाज की आवश्यकता है, इसलिये उसकी इस आवश्यकता का निर्धारण अधिक वस्तुनिष्ठ कसौटी पर किया जाता है। ये आवश्यकताएँ मानव शरीर की संरचना पर निर्भर करती हैं। ये ठोस आवश्यकताएँ हैं, जिनकी पूर्ति के बिना काम नहीं चलेगा, न ही इनकी पूर्ति अन्य विकल्पों से हो सकती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पानी, भोजन और हवा की पूर्ति किसी अन्य विकल्प से नहीं हो सकती।

निस्संदेह, यह भी सच है कि बुनियादी आवश्यकताएँ भले ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन हम केवल उन्हीं के लिये जीवन नहीं जीते। लेकिन यह भी सच है कि जीवन की किसी भी सार्थकता की तलाश बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही निर्भर होती है। यदि हम लगातार मूलभूत आवश्यकताओं के लिये ही जूझते रहें, तो एक सार्थक जीवन की तलाश तो दूर...हम उसकी परिकल्पना भी नहीं कर सकते। यदि लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं की अपर्याप्त या देरी से पूर्ति होती है तो उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता है। इससे वे न्यूनतम सभ्य जीवन से वंचित कर दिये जाते हैं, जिसके लिये इस प्रकार की बुनियादी आवश्यकताओं का होना अपरिहार्य है।

जब बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती तो लोग कमज़ोर और असहाय महसूस करते हैं। इसके लिये लोग दुखी होते हैं तथा सहायता की मांग करते हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ऐसे लोग अपने समुदाय तथा सरकार से न्याय की मांग करते हैं। न्याय के लिये आवश्यक है कि अन्य सब बातों से पहले सरकार अपने नागरिकों की सभी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपने स्तर पर सभी प्रयास करे। विशेष रूप से उन नागरिकों के लिये जो स्वयं इन आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम नहीं हैं। लेकिन सरकारें प्रायः अपने नागरिकों की उचित ज़रूरतों के लिये अपेक्षित कदम नहीं उठातीं।

सुरक्षा और निर्वाह

अब सवाल उठता है कि बुनियादी आवश्यकताओं के इस विचार में अधिकार का क्या अभिप्राय है? सर्वप्रथम, यह स्पष्ट होना चाहिये कि बुनियादी अधिकार एक ऐसी चीज़ है जो हमें देय है, यह हम पर किया गया कोई अनुग्रह या कृपा नहीं है। इस प्रकार अधिकार उस प्रत्येक चीज़ को चिह्नित करने में सहायता करता है जो हमारे हक या पात्रता के रूप में बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। बुनियादी अधिकार हमारा ऐसा अधिकार है, जिसमें सरकार से यह अपेक्षित होता है कि वह उन वस्तुओं व सेवाओं की पूर्ति करे जो इन अधिकारों के लिये ज़रूरी हैं।

जब किसी बात को बुनियादी अधिकार के रूप में चिह्नित किया जाता है तो फिर यह सरकार का दायित्व हो जाता है कि वह इसकी पूर्ति सुनिश्चित करे। उदाहरण के लिये, भौतिक/शारीरिक सुरक्षा के अधिकार की सामाजिक आश्वस्ति तब प्राप्त होती है जब सरकार अपने नागरिकों को एक सुप्रशिक्षित पेशेवर पुलिस बल की सेवा प्रदान करती है। जब समाज और सरकारें इस प्रतिबद्धता से मुँह चुराती हैं तो हम उन्हें उत्तरदायी ठहराते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि भुखमरी, महामारी और बीमारी जैसे भयावह खतरों के विरुद्ध बुनियादी अधिकार एक ढाल की तरह काम करते हैं।

दार्शनिक हेनरी शुए (Henry Shue) ने कहा है कि बुनियादी अधिकार शक्तिहीनों को उन्हें नुकसान पहुँचाने वाली कुछ आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक शक्तियों के प्रति वीटो पावर प्रदान करते हैं।

ये अधिकार इसलिये भी बुनियादी माने जाते हैं क्योंकि कई मूलभूत मूल्यवान अधिकारों का उपभोग तभी किया जा सकता है जब ये बुनियादी अधिकार सुरक्षित हों। उदाहरण के लिये हमें सार्वजनिक रूप से स्वतंत्रतापूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन यदि इस अधिकार के उपभोग के समय हमले, बलात्कार अथवा हत्या की धमकी दी जाती है तो अधिकांश लोग पीछे हट जाएंगे। गुंडे, बाहुबलि राजनेता और दमनकारी सरकारें भौतिक सुरक्षा पर हमले की धमकी के इसी सबसे प्रचलित हथियार का इस्तेमाल करते हैं।

एक अन्य बुनियादी अधिकार है न्यूनतम आर्थिक सुरक्षा और निर्वाह का अधिकार, जिसमें स्वच्छ हवा, शुद्ध पेयजल, पौष्टिक भोजन, वस्त्र और आवास शामिल हैं। मुजफ्फरपुर के हालिया घटनाक्रम की भयावहता यह पुष्टि करती है कि प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का अधिकार भी निर्वाह के अधिकार का अभिन्न अंग है। कुपोषण और रोग के बीच एक प्रत्यक्ष संबंध देखा गया है।

डॉ. टी. जैकब जॉन ने अपने अध्ययन में बताया है कि लीची खाने से उत्पन्न जैव-रासायनिक बीमारी एन्सेफ्लोपैथी (Encephalopathy) केवल कुपोषित बच्चों में पाई जाती है। यह सहज विदित है कि कुपोषण से रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। रोग, बेरोज़गारी और निर्धनता के बीच यही प्रत्यक्ष संबंध नजर आता है।

इन अधिकारों को होने वाले खतरों को (मुजफ्फरपुर के परिप्रेक्ष्य में) चिकित्सा संस्थानों की स्थापना करके व उपयुक्त कदम उठाकर कम किया जा सकता है, जो निर्धन, असहाय लोगों का इलाज करेंगे। उदाहरण के लिये पर्याप्त संख्या में डॉक्टरों, नर्सों, बिस्तरों, चिकित्सा उपकरणों, गहन चिकित्सा इकाइयों, आवश्यक दवाओं और आपातकालीन उपचारों के साथ अस्पतालों की स्थापना से ऐसे खतरे स्वतः कम हो जाएंगे। इसके लिये पर्याप्त बजटीय आवंटन के साथ मज़बूत राजनीतिक प्राथमिकता और प्रतिबद्धता भी होनी चाहिये। जब कोई सरकार असहाय व निर्धन नागरिकों को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सेवा उपलब्ध कराने में विफल रहती है, तो वह उनके बुनियादी अधिकारों का हनन करती है।

भेद्यता और उत्तरदायित्व

इन दो बुनियादी अधिकारों के साथ ही एक तीसरा बुनियादी अधिकार भी है...और वह है अन्य बुनियादी अधिकारों की वंचना की स्थिति में विवशता व निराशा की स्वतंत्र सार्वजनिक अभिव्यक्ति का अधिकार। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा अत्यंत व्यापक है और यह संपूर्ण रूप से बुनियादी अधिकार के दायरे में नहीं लाया जा सकता। लेकिन इसके प्रासंगिक हिस्से निस्संदेह बुनियादी अधिकार का हिस्सा हैं। आबादी के किसी हिस्से की भेद्यता को सार्वजनिक करने, बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित करने वाले सरकार के किसी कृत्य के बारे में जानकारी प्राप्त करने, उनका गंभीर परीक्षण करने और राज्य अधिकारियों को इसके लिये उत्तरदायी बनाने का अधिकार भी भौतिक सुरक्षा व निर्वाह के समान ही बुनियादी अधिकार है और उनसे अविभाज्य रूप से जुड़ा है।

स्पष्ट है कि सरकार को ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना चाहिये जहाँ लोग अपने बुनियादी अधिकारों की पूर्ति की मांग कर सकें तथा मांगों की पूर्ति न होने पर शिकायत कर सकें, सरकार की तरफ से हुई चूक या लापरवाही को उजागर कर सकें, उदासीन सरकारी अधिकारियों पर उंगली उठा सकें, सरकार की विफलताओं के लिये उसकी आलोचना कर सकें...और ऐसा करते समय उन्हें किसी प्रकार का भय न हो।

इन तीन बुनियादी अधिकारों को एक वाक्यांश में न्यूनतम सभ्य जीवन के अधिकार के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है। कोई समाज एक विराट सामूहिक उपलब्धि की आकांक्षा रख सकता है तथा एक बेहतर जीवन की लालसा की भी कोई सीमा नहीं है। किंतु न्यूनतम सभ्य जीवन के पैमानों या मापदंडों का निर्धारण अवश्य होना चाहिये। व्यक्ति के अस्तित्व का एक निश्चित न्यूनतम स्तर अवश्य होना चाहिये, जिससे नीचे जीवन बिताने की कल्पना भी न की जा सके। इस न्यूनतम सभ्य जीवन से कम मानदंडों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

मुजफ्फरपुर घटनाक्रम के आलोक में बिहार सरकार और सामान्य रूप से देश की अन्य सरकारें जब इसी सीमा का पालन करती नज़र नहीं आतीं तो स्थिति चिंताजनक बन जाती है। ये शासन प्रतिष्ठान नियमित रूप से उस उत्तरदायित्व को स्वीकार करने से बचते रहे हैं जिसके कारक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वे खुद हैं।

प्रश्न: जब सरकारें स्वयं बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करती हैं तो उन्हें भी दंडित करने की व्यवस्था होनी चाहिये। कथन का परीक्षण कीजिये।

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