बैंकिंग व्यवस्था में बदलाव का नया दौर | 09 Nov 2017

भूमिका

बेल-आउट्स के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण (Recapitalisation of public sector banks - PSBs) (यह बैंकों के बजटीय आवंटन या किसी प्रकार के सीमित अवधि के बॉण्ड इश्यू करने संबंधी मुद्दे होते हैं) करने के विषय में एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गई है। इसी क्रम में भारत सरकार द्वारा इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (Insolvency and Bankruptcy Code) लाया गया है। इस संहिता को  उधारकर्त्ता कंपनियों द्वारा उधार न चुकाने के संबंध में पर्याप्त सज़ा के रूप में उद्धृत किया गया है। 

प्रमुख बिंदु

  • इस संहिता के तहत, संकल्प प्रक्रिया के द्वारा बैंकों को थोड़ी राहत भी प्रदान की गई है, क्योंकि डीफाल्टइंग बोर्रोवर कंपनियों (Defaulting Borrower Companies) की वसूली दर को अब केवल मूल राशि के 15-20% तक देय कर दिया गया है। 
  • हालाँकि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) द्वारा इस प्रकार की संस्थाओं को और अधिक ऋण प्राप्त करने से रोकने हेतु ब्लैक-लिस्ट करने के संबंध में दिशा-निर्देश जारी करने का कोई प्रयास किया गया है। 
  • और न ही आरबीआई द्वारा इस संबंध में बैंकों को उनके प्रबंधन को संकल्प प्रक्रिया के दौरान बहुसंख्य इक्विटी हिस्सेदारी को बरकरार रखने से रोकने के संदर्भ में ही कोई प्रयास किया गया है। 
  • इसका नतीजा यह हुआ है कि बैंकों को लगातार प्रत्येक तिमाही में घाटे की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा छह पीएसबी को पहले ही सुधारात्मक कार्रवाई के तहत शामिल किया जा चुका है। 
  • यहाँ तक कि जून 2017 तक भारतीय स्टेट बैंक की गैर-निष्पादित संपत्तियों की कीमत भी तकरीबन ₹ 1,88,068 आँकी गई है। स्पष्ट रूप से यह गंभीर चिंता का विषय है।

बैंकों में जमा धनराशि भी जोखिम की स्थिति में है 

  • फाइनेंशियल स्टेबिलिटी बोर्ड (Financial Stability Board - FSB) की अगस्त 2016 की पीयर रिव्यू रिपोर्ट के मुताबिक, बैंकिंग प्रणाली के भीतर 63% वित्तीय निवेश आम भारतीयों का है, पीएसबी की बाज़ार हिस्सेदारी 63% है, जबकि निजी बैंक की 18% भाग पर नियंत्रण है। 
  • अधिकांश सार्वजनिक बैंकों की अस्थिर वित्तीय स्थिति को देखते हुए, इन बैंकों में जमा धनराशियाँ भी अत्यधिक जोखिम की स्थिति में हैं।
  • हालाँकि इस संबंध में सुरक्षा प्रदान करने की सबसे अच्छी स्थिति यह हो सकती है कि यहाँ एक सरकारी बेल-आउट मौजूद हो। 
  • अन्य संभावनाएँ यह भी हो सकती हैं कि इन सभी परिसंपत्तियों और देनदारियों का स्थानांतरण एक ब्रिज सेवा प्रदाता के द्वारा किया जाए अथवा किसी मौजूदा बैंक के साथ विलय या परिसमापन कर दिया जाए। परंतु, इसके बावजूद इनमें से कोई भी विकल्प ग्राहक के पैसे की सुरक्षा की गारंटी नहीं देता है।

एफ.आर.डी.आई. विधेयक, 2017

  • इस संबंध में अधिक चिंता का कारण एफ.आर.डी.आई. विधेयक [Financial Resolution and Deposit Insurance (FRDI) Bill], 2017 है। कैबिनेट की मंज़ूरी के बाद अगस्त में एक संयुक्त संसदीय समिति द्वारा इस विधेयक का प्रस्ताव पेश किया गया था। 
  • इस विधेयक के अंतर्गत बैंकों और बीमा जैसे व्यवसायों में दिवालियापन को शामिल किया गया है। 
  • इस विधेयक में वित्तीय रिज़ॉल्यूशन के अंतर्गत पूंजी और परिसंपत्ति मूल्य के आधार पर व्यवहार्यता आधारित 'भौतिक' अथवा 'आसन्न' जोखिम जैसी स्थितियों का सामना कर रहे बैंकों के किये समाधान को भी शामिल किया गया हैं।
  • इस विधेयक में ‘बेल-इन’ के प्रावधान का भी परिचय दिया गया है, जिसका उद्देश्य बैंक के नुकसान को अवशोषित करने और इसके अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिये पूंजी प्रदान करना है। 
  • यहाँ यह स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि यहाँ अस्तित्व का मतलब जमाकर्त्ताओं के पैसे की सुरक्षा नहीं है, बल्कि बैंक की पूंजी को बहाल करना है। 
  • ‘बेल-इन’ का प्रावधान प्रस्तावित संकल्प निगम (Resolution Corporation) को बैंक द्वारा देय दायित्व को रद्द करने या किसी अन्य सुरक्षा के मौजूदा दायित्व के रूप को परिवर्तित करने का भी अधिकार प्रदान करता है।
  • हम सभी जानते हैं कि बचत या फिक्स्ड डिपॉजिट अकाउंट में जमा पैसा बैंक द्वारा अपने ग्राहक के लिये देय होता है। जब भी ग्राहक द्वारा इस धन की वापसी की मांग की जाती है तब बैंक को ग्राहक को इस दे राशि का भुगतान करना पड़ता है। चूँकि ग्राहक बैंक को अपना पैसा सौंपते समय बैंक से कोई सुरक्षा नहीं लेता है, तो कानूनी तौर प ग्राहक बैंक का असुरक्षित लेनदार बन जाता है। 
  • ‘बेल-इन’ के तहत बैंक सरलता से ग्राहक के पैसे का पुनर्भुगतान करने से या तो मना कर देता है या इसके बजाय वरीयता शेयरों यानि परेफरेंस शेयरों  (निश्चित लाभांश की कोई गारंटी नहीं) के रूप में ग्राहक को प्रतिभूतियाँ जारी करता है। यह सब ग्राहक द्वारा  की गई जमाराशियों के बदले किया जाता है, क्योंकि इन सभी जमाराशियों का बैंक के पुनर्पूंजीकरण के लिये उपयोग किया जाता है।
  • ध्यान देने वाली बात यह है कि केवल जमाकर्त्ताओं के बकाया धन को इसके तहत ज़ब्त नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह इंश्योरेंस द्वारा कवर की गई डिपाजिट राशि होती है। 
  • ध्यातव्य है कि प्रत्येक जमाकर्त्ता के लिये एक लाख रुपए की जमाराशि को बीमाकृत करने संबंधी जमा बीमा और क्रेडिट गारंटी निगम अधिनियम (Deposit Insurance and Credit Guarantee Corporation Act), 1961 को कैबिनेट द्वारा निरस्त कर दिया गया है। 
  • एफ.आर.डी.आई. विधेयक के अंतर्गत प्रत्येक जमाकर्त्ता हेतु बीमा राशि तय करने के संबंध में संकल्प निगम को पहले की अपेक्षा और भी अधिक सक्षम बना दिया गया है। 
  • इस प्रकार यह संभव है कि अलग-अलग बैंकों के ग्राहकों के लिये केवल बीमा राशि ही भिन्न नहीं होगी बल्कि एक ही बैंक के विभिन्न ग्राहकों के लिये भी यह अलग-अलग हो सकती है। 

सुरक्षा संबंधी पक्ष

  • ‘बेल-इन’ के प्रावधानों ने ग्राहक और बैंक के बीच संबंधों की प्रकृति को पूरी तरह से बदल दिया है। इसका अर्थ यह है कि अब ग्राहक का धन बैंकों में कोई खास सुरक्षित नहीं रह गया है। अब स्थिति यह है कि ग्राहक का खाता अपनी संप्रभु गारंटी भी खो सकता है और एक निवेश भी बन सकता है। 
  • वस्तुतः वर्तमान की बैंकिंग स्थिति में तीन पक्ष सबसे महत्त्वपूर्ण हैं- इनमें पहला है वृहद शेयरधारक के रूप में  सरकार और कॉर्पोरेट उधारकर्त्ता तथा ग्राहक। इनमें सबसे कमज़ोर स्थिति में बेचारा ग्राहक ही प्रतीत होता जान पड़ता है क्योंकि अंततः सबसे अधिक नुकसान उसका ही होता है।

निष्कर्ष

वास्तविकता यह है कि यदि ग्राहक ही बैंक में अपना पैसा जमा नहीं करें तो कोई भी बैंक अपने व्यवसाय को जारी नहीं रख सकता है। यहाँ इस बात को विशेष रूप से समझ लेने की आवश्यकता है कि बैंकिंग व्यवसाय दूसरे अन्य व्यवसायों के समान नहीं है। अत: एक बैंक ग्राहक के साथ किसी नियमित व्यापार के असुरक्षित लेनदार के समान व्यवहार नहीं किया जा सकता है। किसी भी विक्रेता या किसी कंपनी के साथ काम करने वाले निवेशक के विपरीत ग्राहक किसी बैंक के उधार संबंधी फैसले पर नियंत्रण नहीं करता है। यही कारण है कि किसी नियमित व्यापार के दिवालियापन के नियमों को बैंक की विफलताओं पर लागू नहीं किया जा सकता है। इसके लिये आवश्यक है कि अपने नागरिकों हेतु न्याय एवं निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिये सरकार द्वारा कठोर कदम उठाए जाने चाहिये। साथ ही इस क्रम में सरकार द्वारा 'बेल-इन' प्रावधान पर एफ.एस.बी. के आदेश का विरोध किया जाना चाहिये।