अंतर्राष्ट्रीय संबंध
बैड लोन: अर्थव्यवस्था का बिगड़ैल बैल
- 04 Apr 2017
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सन्दर्भ
हाल ही में वित्त मंत्रालय और भारतीय रिज़र्व बैंक ने इस बात के संकेत दिये हैं कि वे बैड लोन नाम के बिगड़ैल बैल को उसकी सिंग से पकड़कर काबू में करने वाले हैं। विदित हो कि बैड लोन यानी गैर-निष्पादनकारी परिसम्पतियाँ (non-performing asset-NPA) वर्ष 2016 के अंत तक बैंकों के कुल ऋण के 9 प्रतिशत के चिंताजनक स्तर पर पहुँच गई थी। दरअसल, उस समय तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए उनके द्वारा वितरित ऋण के 12 प्रतिशत के बराबर था, इसके अलावा 3 से 4 प्रतिशत एनपीए का पुनर्गठन किया गया, साथ ही 4 से 5 प्रतिशत ऐसे भी ऋण थे, जिनकी बैड लोन के तौर पर पहचान नहीं की गई थी, हालाँकि उन्हें इस श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिये था। कुल मिलाकर देखें तो भारत के निजी व सार्वजानिक दोनों क्षेत्रों के बैंकों का सम्मिलित एनपीए 20 प्रतिशत के चिंताजनक स्तर तक पहुँच गया है।
अर्थव्यवस्था के लिये कैसे बिगड़ैल बैल के जैसा है “एनपीए”?
गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ (non-performing assets-NPA) किसी भी अर्थव्यवस्था के लिये बोझ हैं। ये देश की बैंकिंग व्यवस्था को रुग्ण बनाते हैं। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से ‘बैड लोन’ और ‘बैड एसेट’ (ख़राब परिसम्पत्तियाँ) में बेतहाशा वृद्धि हुई है। विदित हो कि ‘गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ’, बैड लोन और बैड एसेट से ही मिलकर बनती हैं। बैड लोन से बैंको के लाभांश में कमी आती है, फलस्वरूप बैंक के लिये ऋण देना मुश्किल हो जाता है। जब बैंकों के लिये ऋण देना मुश्किल हो जाता है तो फिर निवेश में कमी आने लगती है और जब निवेश में कमी आने लगे तो अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिलता है।
हम एनपीए को बिगड़ैल बैल की संज्ञा इसलिये दे रहें हैं क्योंकि इसका प्रबंधन करना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है, हम इस पर जितना ही लगाम लगाने की कोशिश करते हैं यह उतना ही बेकाबू होता जाता है। मान लिया जाए कि किसी बैंक ने किसी संस्था को कुछ राशि ऋण के तौर पर दी है, जब बैंक ने ऋण दिया था तब तो परिस्थितियाँ ऐसी थी कि संस्था द्वारा ऋण राशि को चुकाया जाना आसान लग रहा था। लेकिन बाद में प्रतिकूल हालातों में संस्था ऋण चुकाने में असमर्थ हो गई। यदि बैंक उसे वित्तीय संकटों से उबारने के उद्देश्य से और ऋण देता है तो इस बात का डर लगातार बना रहता है कि कहीं बाद में दिया गया ऋण भी न डूब जाए। इस प्रकार से एनपीए किसी भी अर्थयवस्था के लिये बिगड़ैल बैल के जैसा ही है।
बैंक कैसे करते हैं एनपीए का प्रबंधन?
यदि लेनदारों द्वारा तय समय पर ऋण नहीं चुकाया जाता है तो बैंक ऋण के बदले गिरवी रखी गई संपत्ति को ज़ब्त कर सकता है और फिर उस संपत्ति को बेच सकता है। एनपीए की गंभीर होती समस्या के समाधान के लिये भारतीय रिज़र्व बैंक ने सामरिक ऋण पुनर्गठन (Strategic Debt Restructuring-SDR) योजना शुरू की थी। एसडीआर के तहत यदि कोई कंपनी या संस्था ऋण नहीं चूका पा रही है तो उस डिफाल्टर कंपनी के प्रबंधन में बैंक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। यहाँ तक कि एसडीआर योजना के तहत बैंक, कंपनी के प्रमोटरों को भी बदल सकते हैं। बैंक, बैड लोन का पुनर्गठन भी कर सकते हैं जिससे कि लेनदारों को उधार चुकाना थोड़ा आसान हो जाए। बैंक, गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों को डिस्काउंट पर परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनियों को बेचकर भी स्वयं का ऋण चुकता कर सकते हैं।
एनपीए के प्रबंधन में आने वाली दिक्कतें
परिसंपत्तियों के ज़ब्ती के माध्यम से स्वयं का ऋण चुकता करना बैंकों के लिये प्रायः फायदेमंद नहीं होता क्योंकि ज़ब्त की गई परिसंपत्तियों को प्रायः कम दाम पर बेचना पड़ता है जो कि दिये गए ऋण की तुलना में बहुत ही कम होती है। भारत में एसडीआर योजना अभी तक सुचारू ढंग से आरम्भ नहीं हो पाई है, इसका कारण यह है कि भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कंपनियों के प्रबंधन का कोई अनुभव नहीं है और यह उनके लिये एक दुष्कर कार्य है कि कम्पनियों का बेहतर प्रबंधन कर वे अपने ऋण की लागत वसूल कर सकें।
गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों के पुनर्गठन में दो समस्याएँ हैं। पहली यह कि हो सकता है बैंक के प्रबंधक अवैध तरीके से कुछ कम्पनियों के गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों का मूल्य बहुत ही कम कर दें ताकि वे अवैध लाभ कमा सकें। दूसरी समस्या यह है कि यदि गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों को डिस्काउंट दर पर बेचा जाता है तो सीधे इसका प्रतिकूल प्रभाव बैंकों के लाभांश पर देखने को मिलेगा।
क्या हो आगे का रास्ता ?
बैड लोन या एनपीए से निपटना नीति निर्माताओं के लिये हमेशा से एक चुनौती भरा कार्य रहा है। गौरतलब है कि एनपीए से निपटने के उपाय सुझाने हेतु गठित नायक समिति ने वर्ष 2014 में अपनी सिफारिशें आरबीआई को सौंपी थी, नायक समिति ने सरकार को सुझाव दिया कि वह बैंकों के अपने स्वामित्व को कम करके 50 प्रतिशत के नीचे लाए, जो कि एक व्यवहारिक सुझाव था, सरकार को इस पर गंभीरता से अमल करना चाहिये।
नायक समिति ने ही “बैंक्स बोर्ड ब्यूरो-बीबीबी” की स्थापना की भी बात की थी, भारत सरकार ने वर्ष 2016 में इसकी स्थापना भी कर दी और उसे सरकारी बैंकों और वित्तीय संस्थानों में शीर्ष पदों के लिये उम्मीदवार तय करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी। बाद में सरकार ने बैंकों के लिये पूंजी जुटाने की योजना तैयार करने के अलावा व्यवसायिक रणनीति तैयार करने का दायित्व भी बीबीबी को सौंप दिया था। एक विशेषज्ञ संस्था के तौर पर स्थापित बीबीबी को एनपीए के प्रबंधन में निर्णायक भूमिका निभानी होगी।
निर्णायक हो सकता है बैड बैंक
एनपीए के प्रबंधन में बैड बैंक की भूमिका निर्णायक हो सकती है। दरअसल, 'बैड बैंक' एक आर्थिक अवधारणा है जिसके अंतर्गत आर्थिक संकट के समय घाटे में चल रहे बैंकों द्वारा अपनी देयताओं को एक नए बैंक को स्थानांतरित कर दिया जाता है। ये बैड बैंक कर्ज़ में फँसी बैंकों की राशि को खरीद लेगा और उससे निपटने का काम भी इसी बैंक का होगा।
जब किसी बैंक की गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ सीमा से अधिक हो जाती हैं, तब राज्य के आश्वासन पर एक ऐसे बैंक का निर्माण किया जाता है जो मुख्य बैंक की देयताओं को एक निश्चित समय के लिये धारण कर लेता है। विदित हो कि बैड बैंक एआरसी यानी परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनियों की तरह काम करेगा। बैड बैंक, एक ऐसा बैंक होगा जो दूसरे बैंकों के डूबते कर्ज को खरीदेगा। ध्यातव्य है कि बैड बैंक का नाम ‘पब्लिक सेक्टर एसेट रिहैबिलिटेशन एजेंसी’ यानी पीएआरए होगा और यह प्रयोग जर्मनी, स्वीडन, फ्रांस जैसे देशों में सफल रहा है।
बैड बैंक के आने से दूसरे बैंकों से डूबते कर्ज़ को वसूलने का दबाव हट जाएगा। दूसरे बैंक नए ऋण देने पर ध्यान केन्द्रित कर पाएंगे। बैंकों को अपने डूबते कर्ज़ बैड बैंक को बेचने की सुविधा मिलेगी। डिफाल्टर कंपनियों की संपत्ति बेचने के काम में तेजी आएगी। बैंक अधिकारी परिसंपत्तियों की ज़ब्ती की जगह बैंकिंग गतिविधियों को सुचारू ढंग से चला पाएंगे।
बैड बैंक से संबंधित समस्याएँ
बैड बैंक की स्थापना में सबसे बड़ी समस्या बैंक में हिस्सेदारी को लेकर है। यह जानना दिलचस्प है कि समस्या निजी और सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रों के अधिकतम भागीदारी से है। यदि बैड बैंक में सरकार की हिस्सेदारी अधिक हो तो समस्या यह है कि बैंकों की गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ बहुत अधिक हो गईं है और बैड बैंक के माध्यम से इनकी खरीद पर सरकार को उल्लेखनीय व्यय करना पड़ सकता है। साथ ही एक सरकारी बैड बैंक को उन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ेगा जिनका सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों के सन्दर्भ में कर रहे हैं।
यदि बैड बैंक को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया तो सबसे बड़ी समस्या गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों के मूल्य को लेकर हो सकती है| निजी क्षेत्र का बैड बैंक अपने लाभ को ध्यान में रखते हुए गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों का मूल्य तय करेगा। यदि यह मूल्य बहुत अधिक हुआ तो बैड बैंक का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा और यदि यह मूल्य बहुत ही कम हो गया तो बैंकों को उनकी ऋण देयता के अनुपात में राशि नहीं मिल पाएगी।
निष्कर्ष
बैड बैंक निश्चित ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने वाला कदम प्रमाणित हो सकता है, लेकिन सर्वप्रथम बैड बैंक की स्थापना निजी इक्विटी फंड की तरह करनी होगी, जिसमें सरकार की हिस्सेदारी 50% अधिक नहीं हो। इन बैंकों में अलग-अलग बैंकों के ऐसे विशेषज्ञों को रखा जाए जो अलग-अलग बैंकों की बैड एसेट का प्रबंधन और पुनर्गठन कर सकें। बैड बैंक को केन्द्रीय सतर्कता आयोग या सीबीआई जैसी किसी बाह्य निगरानी व्यवस्था के अंतर्गत लाने के बजाय किसी आंतरिक सतर्कता टीम के तहत रखा जाए जो कि बैंकिंग से संबंधित हो।
गौरतलब है कि एक तरह से डूबी संपत्ति को पुनर्जीवित करना या प्राप्त करना कोई आसान काम नहीं है। बैड बैंक के प्रस्तावित ढाँचे के अनुरूप अगर सब कुछ सही चलता रहा, तो निजी निवेशक को बैंकों की इक्विटी में निवेश करने के लिये प्रोत्साहन मिलेगा। ये निजी निवेशक इन बैंकों की गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों के लिये स्वतंत्र बोली लगा सकेंगे। इन सभी उपायों से ही बैड लोन रूपी बिगड़ैल बैल को काबू में किया जा सकता है।