पर्यावरण संरक्षण के संबंध में मूल बातों की ओर वापसी | 27 Jul 2017
संदर्भ
दिनोंदिन बढ़ती आय एवं बदलती जीवनशैली के परिणामस्वरूप मनुष्य की कचरा उत्पन्न करने की क्षमता में निरंतर वृद्धि होती जा रही है| इस समस्या को मद्देनज़र रखते हुए भारत सरकार के द्वारा स्वच्छ भारत मिशन का शुभारंभ किया गया| परंतु, बहुत तेज़ी से बढ़ती इस समस्या के विषय में विचार करने पर ज्ञात होता है कि हमें इस दिशा में और भी अधिक कठोर एवं प्रभावी कार्यवाही करने की आवश्यकता है| ताकि समय रहते इस समस्या का कोई सार्थक हल निकाला जा सकें|
अतीत के संदर्भ में विचार करें तो
- 1970 से पहले तक भारत वर्ष में अपशिष्टों के निस्तारण संबंधी कोई बड़ी समस्या विद्यमान नहीं थी| देश के ग्रामीण क्षेत्रों से निष्कासित होने वाले अपशिष्ट को वापस मिट्टी में ही निस्तारित कर दिया जाता था|
- मनुष्यों द्वारा स्वयं के उपभोग के पश्चात् शेष बचे भोजन को पशुओं को दे दिया जाता था तथा पशुओं द्वारा निस्तारित मल को एक गढ्डे में एकत्रित करके उसका संस्करण कर दिया जाता था| तत्पश्चात् इसका इस्तेमाल अगले वर्ष की फसलों में खाद के रूप में किया जाता था|
- इस प्रक्रिया के तहत यह खाद एन.पी.के. (नाइट्रोजन, फोस्फोरस एवं पोटेशियम) एवं सूक्ष्मजीवों से युक्त होकर एक उच्च गुणवत्ता वाली खाद के रूप में परिणत हो जाती थी|
- इसके साथ-साथ शहरी क्षेत्रों से निष्कासित होने वाले खाद्य पदार्थों के संस्करण के लिये भी यही विधि अपनाई जाती थी| पुर्तगाली समय के गोवा में, भैंसा गाड़ी के माध्यम से किसान घर-घर से बचे हुए भोजन के अंशों के साथ-साथ अन्य व्यर्थ खाद्य सामग्रियों को एकत्रित करते थे जिनका इस्तेमाल वे खाद संस्करण में करते थे|
- वहीं दूसरी ओर बैंगलोर जैसे बड़े शहरों में किसान दिन के पहले पहर में ही साग-सब्जियाँ बेचने के लिये शहरों में आते थे तथा घर वापसी के समय सड़कों के किनारे रखे सीमेंट के गोलाकार कचरे के पात्र में से अपशिष्ट निकाल कर अपने साथ ले जाते थे|
- परंतु वर्ष 1970 के पश्चात् प्लास्टिक के प्रयोग ने इस समस्त परिदृश्य में परिवर्तन कर दिया| जैसे – जैसे प्लास्टिक की थैलियों की पहुँच आम आदमी तक बढ़ती चली गई वैसे-वैसे ही इनका हस्तक्षेप हमारी आम दिनचर्या के साथ-साथ हमारी खाद्य श्रंखला में भी होता चला गया|
- किसानों के द्वारा एकत्रित किये जाने वाले खाद्य पदार्थों में यदा-कदा आने वाली प्लास्टिक की थैलियों ने खेतों की उपजाऊ मिट्टी के साथ-साथ पशुओं को भी हानी पहुँचानी आरम्भ कर दी|
- मिट्टी में मिलाई जाने वाली जैविक खाद में अब प्लास्टिक का अंश भी शामिल होने लगा, जैवनिम्नीकरणीय पदार्थ होने के कारण मिट्टी पर प्लास्टिक की एक परत सी चढ़ गई जिसने मिट्टी की जल सोखने की क्षमता को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया| इस बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ा|
- वस्तुतः जब दो बहुत महत्त्वपूर्ण संसाधन जैवनिम्नीकरणीय अपशिष्ट तथा प्लास्टिक को आपस में मिलाया जाता है तो वे कचरे का रूप धारण कर लेते है तथा इसके बाद इनका संस्करण करना बहुत कठिन हो जाता है|
- इस कचरे में दूसरे अन्य सूखे कचरे तथा निर्माण क्षेत्र से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थों को मिलने के पश्चात् यह स्थिति और भी अधिक भयावह हो जाती है| इस प्रकार के अपशिष्ट का संस्करण एवं प्रबंधन करना एक अत्यंत ही कठिन कार्य होता है|
प्रभाव
- वस्तुतः पर्यावरण में अपशिष्ट पदार्थों की बढ़ती मात्रा के कारण वायु में ऑक्सीजन की मात्रा में कमी आना, मीथेन गैस का उत्सर्जन बढ़ना तथा कार्बन डाई आक्साइड का चक्र प्रभावित होने जैसी घटनाएँ होने लगती है|
- ध्यातव्य है कि बिना किसी अन्य तरीके के यदि केवल वायु के स्तर पर इन अपशिष्ट पदार्थों का संस्करण करना हो इसके लिये तक़रीबन 25 – 30 वर्षों तक इन्हें खुली हवा में अपघटित होने के लिये छोड़ना होगा|
- परंतु इस प्रक्रिया को अपनाने में आने वाली सबसे बड़ी समस्या यह है कि ऐसा करने से इन पदार्थों से निरंतर मीथेन एवं दूषित जल का रिसाव होने लगेगा| यह दूषित जल धीरे-धीरे मिट्टी में प्रवेश कर भूमिगत जल को भी दूषित करेगा जिससे न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा बल्कि बहुत सी नईं बीमारियाँ भी पैदा होंगी|
इस समस्या से निपटने हेतु आवश्यक कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव
- इस समस्त समस्या से निपटने के लिये आवश्यक यह है कि मनुष्य द्वारा अपनी दैनिक कार्यों में प्लास्टिक का कम से कम प्रयोग किया जाए ताकि पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकें|
- तथापि ऐसे बहुत से उपाय है जिनका इस्तेमाल करके कुछ हद तक इस समस्या को और अधिक भयावह रूप धारण से बचाया जा सकता है| यथा; घरों से निकलने वाले अपशिष्ट पदर्थों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित किया जाना चाहिये| कागज़, प्लास्टिक, ग्लास जैसी वस्तुओं को एक अलग थैले में रखा जाना चाहिये जबकि दूसरे अन्य कचरों को अलग|
- उल्लेखनीय है कि ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम (Solid Waste Management Rules), 2016 के अनुसार, भारत के प्रत्येक नागरिक द्वारा अपने घरों से निकलने वाले कचरे को सूखे कचरे (recyclable) एवं गीले कचरे (compostable) तथा आरोग्यकर कचरे (disposable diapers and sanitary napkins) के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिये|
- वस्तुतः गीले कचरे के रूप में वर्गीकृत कचरे को जितना जल्द हो सकें, किसी खुले स्थान पर फैला दिया जाना चाहिये ताकि पर्याप्त मात्र में हवा एवं प्रकाश की मौजूदगी के द्वारा इसका भली – भाँति निस्तारण किया जा सकें|
- ध्यातव्य है कि समस्त संसार में इस प्रकार के अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण के लिये इसी विधि का इस्तेमाल किया जाता है|
- इस प्रकार के कचरे के ढेर को दो मीटर से अधिक की ऊँचाई तक ही रखा जाता है, साथ ही इसे एक हफ्ते में कम से कम चार बार उल्टा जाता है| ऐसा करने का उद्देश्य यह होता है कि कचरे के ढेर के लगभग प्रत्येक हिस्से को हवा एवं सूर्य का प्रकाश मिल सकें, जिससे कि यह जल्द से जल्द निस्तारित हो सकें, ठीक उसी तरह से जैसे घने वनों में गिरने वाली पत्तियों का ढेर मात्र हवा एवं प्रकाश के सम्पर्क में आने से ही अपघटित हो जाता है|
- इस प्रकार के ताजा अपशिष्ट में तीन से चार दिनों के भीतर तक़रीबन 55°C से 60°C तक की गर्मी उत्पन्न हो जाती है| चार बार इसे पलटे जाने के पश्चात् इसकी मात्रा में तक़रीबन 40 फीसदी की कमी आ जाती है साथ ही इसका वज़न एवं नमी भी कम हो जाते है| इसके बाद न तो इससे दूषित जल का रिसाव ही होता है और न ही मीथेन गैस निकलती है|
- स्पष्ट है कि अपशिष्ट प्रसंस्करण के माध्यम से जहाँ एक ओर पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकता है वहीं दूसरी और निरंतर नये स्थानों की खोज संबंधी परेशानी से भी बचा जा सकता है|