भारत की UNSC में अस्थायी सदस्यता | 27 Jul 2019

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल है। इस आलेख में भारत की UNSC में अस्थायी सदस्यता एवं इसके भारत के लिये निहितार्थ की चर्चा की गई है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

एशिया-प्रशांत के 55 देशों ने एकमत से वर्ष 2021-22 की समयावधि के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (United Nation Security Council-UNSC) में भारत की अस्थायी सदस्यता का समर्थन किया है। आश्चर्यजनक बात यह है कि अन्य देशों के अतिरिक्त चीन और पाकिस्तान के साथ भारत की कूटनीतिक चुनौतियों के बावजूद दोनों देशों ने भारत की सदस्यता का समर्थन किया। भारत अब आसानी से 193 देशों के समूह वाले UN महासभा के 2/3 सदस्यों का समर्थन प्राप्त करके UNSC की अस्थायी सदस्यता प्राप्त कर लेगा। भारत इसके पहले 7 बार UNSC का अस्थायी सदस्य रह चुका है। आरंभ में अफ़ग़ानिस्तान इस सदस्यता को लेकर भारत का प्रमुख प्रतिस्पर्द्धी था लेकिन भारत से मित्रता के चलते अफ़ग़ानिस्तान ने स्वयं को इस दौड़ से अलग कर लिया। भारत अपने स्वतंत्रता दिवस की 75वीं वर्षगाँठ पर UNSC की सदस्यता प्राप्त करेगा साथ ही उसी वर्ष G-20 की बैठक भी नई दिल्ली में आयोजित होगी, जो वैश्विक पटल पर भारत को एक उभरती महाशक्ति के रूप में दर्शाता है।

वर्ष 2021-22 के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थायीसदस्य के रूप में भारत का एकल उद्देश्य यह होना चाहिये कि वह एक स्थिर व सुरक्षित विश्व माहौल के निर्माण में सहायता करे। ऐसा करके न केवल वह अपनी आबादी की सुरक्षा व समृद्धि को बढ़ावा देगा बल्कि क्षेत्रीय व वैश्विक सुरक्षा निर्माण और एक नियम आधारित विश्व व्यवस्था के अनुपालन में योगदान करेगा। इस प्रकार, वह विकासशील और विकसित, दोनों ही तरह के देशों के साथ एकसमान भागीदारी निभा सकता है।

बदलता विश्व परिदृश्य

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत का प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है। 10 वर्षों के अंतराल के बाद उसे सुरक्षा परिषद में पुनः अस्थायी सदस्यता प्राप्त हुई है। इससे पूर्व वर्ष 2011-12 में 20 वर्षों के अंतराल के बाद उसे अस्थायी सदस्य के रूप में शामिल किया गया था। सुरक्षा परिषद में भारत का कुल कार्यकाल मात्र 14 वर्षों का रहा है जो संयुक्त राष्ट्र की कुल कार्य अवधि का मात्र लगभग पाँचवां हिस्सा है। इस बार भारत को पुनः प्राप्त हुए अवसर का लाभ स्वयं को एक उत्तरदायी राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करने के लिये उठाना चाहिये।

भारत पश्चिम और पूर्वी एशिया के अशांत भूभाग के मध्य में स्थित है जहाँ उग्रवाद, आतंकवाद, मानव तथा मादक पदार्थों की तस्करी और बड़ी शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता की संकटपूर्ण स्थिति विद्यमान है। पश्चिम एशिया में विघटनकारी अव्यवस्था नज़र आती है तो खाड़ी क्षेत्र उथल-पुथल का शिकार है। यद्यपि इस्लामिक स्टेट (IS) को पराजित करने में विश्व सफल रहा है लेकिन इराक और सीरिया की स्थिति संघर्ष पूर्व के समान होती नहीं दिखाई दे रही है। आइएस के बच गए और तितर-बितर हुए लड़ाके नए क्षेत्रों में आतंक का प्रसार कर सकते हैं तथा विशेष रूप से वे अपने गृह देशों के लिये खतरा बने हुए हैं। पश्चिम एशिया की अशांति की ऐसी ही गूँज उत्तर और दक्षिण एशिया में सुनी जा सकती है जहाँ उत्तर कोरिया के परमाणु व मिसाइल परीक्षणों और अफगानिस्तान के निकटवर्ती क्षेत्रों में हक्कानी नेटवर्क, तालिबान तथा अल-कायदा जैसे समूहों के समर्थन, सहयोग व आश्रय से खतरे की स्थिति बनी हुई है। इसके साथ ही एशिया के विभिन्न देशों के बीच सामरिक अविश्वास व संदेह, सीमा व क्षेत्रों को लेकर विवाद, एक सर्व-एशिया सुरक्षा अवसंरचना का अभाव और ऊर्जा व रणनीतिक खनिजों के लिये प्रतिस्पर्द्धा के रूप में कई समस्याएँ विद्यमान हैं।

शीत युद्ध के बाद उभरी हितकारी व समर्थनकारी अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली लगभग पूर्ण रूप से लुप्त हो गई है। इस शताब्दी के आरंभ में ‘राष्ट्रीय हित’ की अवधारणा ने लगभग एक अवमानसूचक अर्थ ग्रहण कर लिया था लेकिन मौजूदा समय में देश पुनः राष्ट्रीय हित की ओर लौटते हुए दिखाई दे रहे हैं। भय, लोकलुभावनवाद, लामबंदी और अति-राष्ट्रवाद कई देशों में राजनीति के मुख्य आधार के रूप में उभरे हैं। आश्चर्य की बात नहीं नहीं कि पाँच वर्ष पहले हेनरी किसिंजर (अमेरिकी कूटनीतिज्ञ) ने अपनी नई किताब ‘वर्ल्ड ऑर्डर’ में निष्कर्ष दिया कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से यह सर्वाधिक वैश्विक अराजकता का कालक्रम है।

फिर भी जिस समय संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी, विश्व अभी उस समय से बेहतर स्थिति में है। अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की स्थापना (जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का प्रमुख उद्देश्य है) के मामले में संयुक्त राष्ट्र के सहयोग के साथ अथवा उसके बिना वैश्विक परिदृश्य सकारात्मक रहा है। विश्व अपने अन्य साझा लक्ष्यों, विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक और आर्थिक सहयोग के मामले में विचलित अवश्य रहा है। यद्यपि विश्व के 193 संप्रभु देशों के बीच समन्वय स्थापित करना कठिन है लेकिन इसके लिये अवश्य किया जाना चाहिये। इसके लिये सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों (P-5) एवं अन्य सदस्यों को परिषद में सुधार के लिये प्रयासों के क्रम में विशेष विचार करना चाहिये।

PwC (PricewaterhouseCoopers) की ‘विश्व-2050’ (World in 2050) शीर्षक रिपोर्ट में अनुमान जताया गया है कि वर्ष 2050 तक चीन विश्व का शीर्षस्थ आर्थिक शक्ति बन जाएगा और भारत दूसरे स्थान पर होगा। चीन को यह स्थान तब मिलेगा जब वह मध्यम-आय जाल (Middle Income Trap) में फँसने से बचने में सफल रहेगा। भारत की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह हाल के वर्षों की तुलना में और बेहतर स्थायी आर्थिक प्रदर्शन करे। वर्तमान में समस्या यह है कि विश्व शक्तियों एवं अन्य देशों द्वारा उपर्युक्त चुनौतियों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

भारत का लक्ष्य

सुरक्षा परिषद में दुर्ग्राह्य स्थायी सदस्यता के लिये भारत को कूटनीतिक सद्भावना पर अपना समय गँवाने की आवश्यकता नहीं है। उसे यह सदस्यता आत्म-प्रचार से प्राप्त नहीं होगी बल्कि आमंत्रण से ही प्राप्त होगी। भारत को अपना वित्तीय योगदान बढ़ाना होगा क्योंकि पाँचों स्थायी सदस्यों की तुलना में भारत का अंशदान बेहद कम है। यहाँ तक कि जापान और जर्मनी भी भारत से कई गुना अधिक अंशदान करते हैं। यद्यपि शांति सैनिकों की आपूर्ति में भारत प्रमुख देश रहा है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में उसका कुल योगदान मामूली ही रहा है।

ऐसे समय जब सुरक्षा, शरणार्थी समस्या, निर्धनता और जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों पर एक अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव नज़र आता है, भारत के पास संतुलित, साझा समाधानों को बढ़ावा देने का अवसर है।

अपनी अस्थायी नई सदस्यता के साथ सर्वप्रथम भारत को सुरक्षा परिषद को यह राह दिखानी चाहिये कि वह मानवतावादी हस्तक्षेप अथवा ‘सुरक्षा के प्रति उत्तरदायित्व' के सिद्धांत को लागू करने के खतरों से दूर रहे। एक ओर सुरक्षा परिषद के इस दृष्टिकोण के अराजक परिणाम सामने आए हैं, तो दूसरी ओर विश्व में ऐसे अलोकतांत्रिक व निरंकुश देश भी मौजूद हैं जहाँ यह मापदंड कभी भी लागू नहीं किया जा सकता। चूँकि अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली नाजुक व जटिल प्रकृति की है जो और भी अप्रत्याशित एवं संकटपूर्ण हो सकती है, भारत को एक नियम आधारित विश्व व्यवस्था के अनुपालन की दिशा में कार्य करना चाहिये। सतत् विकास और लोगों के कल्याण को बढ़ावा देना इसके नए प्रेरक तत्व बन सकते हैं।

दूसरा, भारत को इस बात का दबाव बनाना चाहिये कि सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध समिति उन सभी व्यक्तियों व निकायों पर लक्षित हो जिन पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है। संकीर्ण राष्ट्रीय हितों के कारण सुरक्षा परिषद द्वारा बहुपक्षीय कार्रवाई सुस्त रही है। परिषद के प्रस्तावों 1267, 1989 और 2253 के अनुसार 21 मई, 2019 तक 260 व्यक्ति और 84 निकाय संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों के लिये विचाराधीन थे। अमेरिकी वित्त विभाग का विदेशी आस्ति नियंत्रण कार्यालय (OFAC) उन व्यक्तियों व निकायों की एक अधिक बड़ी सूची रखता है जो अमेरिकी प्रतिबंधों के दायरे में हैं। इसी प्रकार यूरोपीय संघ की अपनी प्रतिबंध सूची है।

तीसरा, सभी प्रमुख शक्तियों के साथ अच्छे संबंध के लिये भारत को समावेशन, विधि के शासन, संवैधानिकता और तर्कसंगत अंतर्राष्ट्रीयवाद का अनुपालन करते हुए उदाहरण पेश करना चाहिये।

भारत को पुनः एक बार सर्वसम्मति से आगे बढ़ने का दृष्टिकोण अपनाना चाहिये, बजाय इसके कि वह इन मामलों में बाहरी बना रहे जो निकट अतीत में भारत की प्रवृत्ति भी होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन, निरस्त्रीकरण, आतंकवाद, व्यापार और विकास संबंधी वैश्विक समस्याओं से निपटने के लिये एक सामंजस्यपूर्ण प्रतिक्रिया अनिवार्य शर्त है। वैश्विक सार्वजनिक कल्याण के विस्तार और नए क्षेत्रीय सार्वजनिक कल्याण के निर्माण के लिये भारत को एक बड़ी भूमिका स्वीकार करनी चाहिये। उदाहरण के लिये भारत को सुरक्षा परिषद के सैन्य कर्मचारी समिति (Military Staff Committee) को सक्रिय करने का बीड़ा उठाना चाहिये जो संयुक्त राष्ट्र के अस्तित्व में आने के बाद से कभी भी कार्यान्वित नहीं हो सकी। इसके अभाव में सुरक्षा परिषद की सामूहिक सुरक्षा और संघर्ष-समाधान में भूमिका सीमित ही बनी रहेगी।

निष्कर्ष

एक नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था भारत के लिये अवरोध के बजाय अवसर का निर्माण करेगी और भारत के लिये बहुपक्षीय नैतिकता का अनुपालन, आगे बढ़ने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग होगा। भारत का भविष्य उज्जवल है तथा वह आर्थिक एवं सामरिक स्तर पर एक महाशक्ति बनने की संभावना रखता है किंतु सामाजिक कल्याण से जुड़ी समस्याओं से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। भारत एक महान राष्ट्र है लेकिन एक महान शक्ति बनने से अभी दूर है। गैर-ध्रुवीयता (Apolarity), एक ध्रुवीयता अथवा द्वि-ध्रुवीयता – इनमें से कोई भी स्थिति भारत के अनुकूल नहीं है। भारत को बहुकेंद्रीयता (Polycentrism) को आत्मसात करना चाहिये जो अपने प्रभाव क्षेत्र की स्थापना की मंशा रखने वाली प्रमुख शक्तियों पर एक संतुलनकारी स्थिति है। भारत उस स्थिति में विश्व मंच पर अधिक आत्मविश्वास से कदम नहीं बढ़ा सकता जब उसके अपने पड़ोसी देशों से स्थिर संबंध न हों। संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद में अपने लक्ष्यों की पूर्ति के साथ ही भारत को दक्षिण एशिया के अपने वृहत पड़ोस में अपनी भूमिका बढ़ाने की आवश्यकता है। पड़ोसियों के साथ मधुर संबंध क्षेत्रीय स्थिरता के साथ-साथ भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिये भी आवश्यक है।

प्रश्न: भारत को प्रदान की गई संयुक्त राष्ट्र की अस्थायी सदस्यता के क्या निहितार्थ हैं। साथ ही यह भी बताइये कि भारत अपने अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव की वृद्धि में किस प्रकार इसका प्रयोग कर सकता है?