यूरेशिया के प्रति भारतीय दृष्टिकोण | 11 Nov 2021
यह एडिटोरियल 10/11/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “The Eurasia Opportunity” लेख पर आधारित है। इसमें भारत के लिये यूरेशिया के प्रति एक नए एवं एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता के संबंध में चर्चा की गई है।
संदर्भ
हाल के वर्षों में नई दिल्ली की गहन कूटनीति के परिणामस्वरूप भारत की ‘हिंद-प्रशांत रणनीति’ को राजनीतिक और संस्थागत सफलता प्राप्त हुई है। हालाँकि, ‘हिंद-प्रशांत’ (Indo-Pacific) विशिष्ट रूप से समुद्री भू-राजनीति तक सीमित है, जबकि भारत को अपनी महाद्वीपीय रणनीति पर भी समान रूप से ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
यह उपयुक्त समय है कि भारत यूरोप के साथ यूरेशिया की सुरक्षा पर रणनीतिक वार्ता शुरू करे, क्योंकि यूरेशिया भारत की महाद्वीपीय रणनीति के पुनर्संयोजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
भारत को अब ‘हिंद-प्रशांत’ की ही तरह ‘यूरेशियाई’ नीति के विकास पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिये, क्योंकि यह हिंद-प्रशांत में भारत और यूरोप की नवीन संलग्नता को स्वाभाविक रूप से एक पूरकता प्रदान करेगा।
यूरेशिया के विषय में
- यूरेशिया का संघटन: भौगोलिक रूप से, यूरेशिया एक विवर्तनिक प्लेट है जो यूरोप और एशिया के अधिकांश हिस्सों के अंदर निहित है। लेकिन यदि हम इसकी राजनीतिक सीमाओं की बात करें तो इसके संघटन के संबंध में कोई साझा अंतर्राष्ट्रीय परिभाषा मौजूद नहीं है।
- नई दिल्ली के लिये यह उपयुक्त है कि इस क्षेत्र की पुनर्कल्पना में यूरेशिया की व्यापक संभव परिभाषा का उपयोग करे।
- भारत-यूरेशिया ऐतिहासिक संबंध: यूरेशिया के साथ भारत के प्राचीन सभ्यतागत संबंधों के संदर्भ प्राप्त होते हैं। बौद्ध युग में संघ और श्रेणी के बीच सहयोग ने दोनों भूभागों के बीच दीर्घकालिक अंतःक्रिया को जन्म दिया।
- भारत में अंग्रेज़ों के आगमन और उपमहाद्वीप में एक क्षेत्रीय इकाई के रूप में ‘राज’ के समेकन ने मध्य एशिया में भारत के प्रभाव का बाह्य प्रक्षेपण देखा।
- 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के आरंभ में ‘ग्रेट गेम’ के दौरान रूस के साथ ब्रिटिश प्रतिद्वंद्विता ने यूरेशियाई भू-राजनीति को अविभाजित भारत के सुरक्षा एजेंडे में सबसे ऊपर रख दिया था।
- लेकिन वर्ष 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन और आंतरिक एशिया से भारत के भौतिक अलगाव ने भारत को यूरेशियाई भू-राजनीति से अलग-थलग कर दिया।
- यूरेशियाई भू-राजनीति में विस्तारित भारतीय भूमिका के लिये भौगोलिक सीमितता (जो पाकिस्तान के अस्तित्व से संपुष्ट होता है) से पार पाना अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगा।
- भारत में अंग्रेज़ों के आगमन और उपमहाद्वीप में एक क्षेत्रीय इकाई के रूप में ‘राज’ के समेकन ने मध्य एशिया में भारत के प्रभाव का बाह्य प्रक्षेपण देखा।
- भारत की यूरेशियाई रणनीति: हाल ही में आयोजित ‘अफगानिस्तान पर दिल्ली की क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता’ भारत द्वारा एक यूरेशियाई रणनीति विकसित करने का ही एक अंग है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) ने इस चर्चा में शामिल होने के लिये पाकिस्तान, ईरान, मध्य एशिया, रूस और चीन के अपने समकक्षों को आमंत्रित किया था।
- हालाँकि, पाकिस्तान और चीन इस बैठक में शामिल नहीं हुए। अफगानिस्तान के मामले में भारत के साथ संलग्न होने की पाकिस्तान की अनिच्छा से एक नई यूरेशियाई रणनीति को आकार देने में दिल्ली की इस्लामाबाद के साथ लगातार बनी रही समस्या रेखांकित होती है।
- यह यूरेशिया के संबंध में एक भारतीय रणनीति की तात्कालिकता की भी पुष्टि करता है।
- यूरेशिया में संयुक्त राज्य अमेरिका के हित: वाशिंगटन की हिंद-प्रशांत रणनीति यूरेशिया के उभार के संबंध में प्रमुखता से विचार करती प्रतीत नहीं होती।
- एशिया में अमेरिका के हित मुख्य रूप से पश्चिमी प्रशांत और दक्षिण चीन सागर में निहित हैं और ये दोनों ही क्षेत्र यूरेशियाई थिएटर के केंद्र से दूर हैं।
- हालाँकि, हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में चीन की ओर से बढ़ती चुनौतियों के बीच वाशिंगटन ने यूरेशिया के लिये अपनी रणनीतिक प्रतिबद्धताओं पर पुनर्विचार करना शुरू कर दिया है।
- यूरोप की सामूहिक सुरक्षा के लिये अमरीका और यूरोपीय संघ अपने ट्रांस-अटलांटिक उत्तरदायित्वों के पुनर्संतुलन संबंधी संवाद में संलग्न हो रहे हैं।
- यूरेशिया में एक मुख्य पक्ष के रूप में चीन: यूरेशिया में हाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना चीन का नाटकीय उदय और उसकी बढ़ती रणनीतिक मुखरता, आर्थिक शक्ति का विस्तार एवं बढ़ता राजनीतिक प्रभुत्व है।
- भूटान और भारत के साथ लंबी एवं विवादित सीमा के प्रति बीजिंग का दृष्टिकोण, ताजिकिस्तान में सैन्य उपस्थिति का उसका प्रयास, अफगानिस्तान में एक बड़ी भूमिका निभाने की उसकी तीव्र इच्छा, और विस्तृत उप-हिमालयी क्षेत्र के मामलों में उसकी अधिकाधिक संलग्नता उसके बढ़ते प्रभाव की पुष्टि करती है।
- विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में चीन के वाणिज्यिक प्रभाव को दुनिया भर में महसूस किया जाता है और भौतिक निकटता आंतरिक एशियाई क्षेत्रों पर चीन के आर्थिक प्रभाव को कई गुना बढ़ा देती है।
- मध्य एशिया, रूस और अटलांटिक क्षेत्र में चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल के विस्तार और चीन पर यूरोप की बढ़ती आर्थिक निर्भरता ने यूरेशिया क्षेत्र में बीजिंग के प्रभुत्वशाली लाभ की स्थिति को और सुदृढ़ किया है।
- चीन की इस लाभ की स्थिति को रूस के साथ उसके गहन गठबंधन से बल मिला है जो यूरेशियाई हृदयभूमि पर व्यापक विस्तार रखता है।
- भूटान और भारत के साथ लंबी एवं विवादित सीमा के प्रति बीजिंग का दृष्टिकोण, ताजिकिस्तान में सैन्य उपस्थिति का उसका प्रयास, अफगानिस्तान में एक बड़ी भूमिका निभाने की उसकी तीव्र इच्छा, और विस्तृत उप-हिमालयी क्षेत्र के मामलों में उसकी अधिकाधिक संलग्नता उसके बढ़ते प्रभाव की पुष्टि करती है।
आगे की राह
- यूरोप को भारत के महाद्वीपीय समीकरण में वापस लाना: स्वतंत्रता से पहले कई भारतीय राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद से देश की मुक्ति के लिये यूरोप का रुख किया था।
- लेकिन स्वतंत्रता के बाद, मास्को के साथ गठबंधन के लिये नई दिल्ली के झुकाव के कारण यूरोप के रणनीतिक महत्त्व की उपेक्षा की गई है।
- चूँकि भारत अब यूरोप के साथ अपनी संलग्नता बढ़ा रहा है, यह उपयुक्त समय है कि वह यूरेशियाई सुरक्षा पर ’ब्रसेल्स’ (जिसे प्रायः यूरोपीय संघ की राजधानी के रूप में देखा जाता है) के साथ रणनीतिक वार्ता शुरू करे।
- यूरोपीय संघ और नाटो के सदस्यों के साथ संलग्नता: भारत की यूरेशियाई नीति में अनिवार्य रूप से यूरोपीय संघ और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) के साथ अधिकाधिक संलग्नता शामिल होनी चाहिये।
- ब्रसेल्स—जहाँ यूरोपीय संघ और नाटो दोनों के मुख्यालय स्थित हैं, में भारत को अपने इंडियन मिशन में एक समर्पित सैन्य कार्यालय की स्थापना करनी चाहिये जो यूरोप के साथ निरंतर सुरक्षा वार्ता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित होगा।
- यूरेशियाई सुरक्षा पर भारत-रूस संवाद को गहन करना: यद्यपि हिंद-प्रशांत, क्वाड, चीन और तालिबान जैसे विभिन्न विषयों में भारत और रूस के बीच वास्तविक मतभेद मौजूद हैं, किंतु दोनों देशों के पास अफगानिस्तान के मामले में अपने मतभेदों को कम करने यूरेशियाई सुरक्षा पर सहयोग बढ़ाने के तार्किक कारण भी मौजूद हैं।
- इसके अलावा, रूस ने हाल के वर्षों में तालिबान के साथ अपने संबंध विकसित किये हैं। तालिबान के साथ किसी भी तरह की प्रत्यक्ष संलग्नता के विषय में भारत को रूस के समर्थन की आवश्यकता होगी।
- भू-आर्थिक सहयोग: यदि सुरक्षा के दृष्टिकोण से नहीं तो कम-से-कम भू-आर्थिक दृष्टिकोण से यूरोपीय संघ को ‘हिंद-प्रशांत’ से संलग्न किया जाना लाभदायक होगा और भारत को इसके लिये प्रयास करना चाहिये।
- यह क्षेत्रीय अवसंरचना के सतत् विकास के लिये बड़े पैमाने पर आर्थिक संसाधन जुटाने, राजनीतिक प्रभाव को नियंत्रित कर सकने और यूरेशियाई दृष्टिकोण को आकार देने के लिये अपनी ‘सॉफ्ट पावर’ का लाभ उठा सकता है।
- ईरान और अरब देशों के साथ सहयोग: ईरान की भौगोलिक अवस्थिति उसे अफगानिस्तान और मध्य एशिया के भविष्य के लिये महत्त्वपूर्ण बनाती है, तो अरब देशों का धार्मिक प्रभाव भी इस भूभाग के लिये बेहद अहम है।
- भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख रखने वाले तुर्की-पाकिस्तान गठबंधन पर काबू पाने के लिये भी ईरान और अरब देशों के साथ भारत की साझेदारी महत्त्वपूर्ण है।
- यूरेशिया में एकीकृत दृष्टिकोण: इसके लिये कहीं अधिक सूक्ष्म प्रतिक्रिया की आवश्यकता होगी।
- प्रतिरोध को मजबूत करना और इसके साथ-साथ बहु-संरेखण की दिशा में सक्रियता से आगे बढ़ना समाधान हो सकता है जिसके लिये ईरान के साथ बिगड़ते संबंधों को ठीक कर, रूस के साथ एक ठोस भू-राजनीतिक सौदेबाजी कर और पाकिस्तान की ओर शांति का हाथ बढ़ाकर यूरेशिया को फिर से अपनी रणनीति के केंद्र में लाने की आवश्यकता होगी।
निष्कर्ष
- भारत ने गुज़रते दशकों में यूरेशिया के संघटक क्षेत्रों के साथ अलग-अलग संलग्नता रखी है, लेकिन यूरेशिया में मजबूती से पैर जमाने के लिये नई दिल्ली को अब एक एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
- भारत को निश्चित रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, रूस, चीन, ईरान और अरब की खाड़ी के प्रसंग में अपने रास्ते में कई विरोधाभासों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन इन अंतर्विरोधों से उसके कदम रुकने नहीं चाहिये।
- भारत की कुंजी व्यापक रणनीतिक सक्रियता में निहित है, जो यूरेशिया में सभी दिशाओं में अवसर के द्वार खोल सकती है।
अभ्यास प्रश्न: भारत की महाद्वीपीय रणनीति में यूरेशिया द्वारा निभाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण भूमिका और इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव की भारत की 'यूरेशिया नीति' पर प्रभाव की चर्चा कीजिये।