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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत में दल-बदल विरोधी कानून

  • 09 Dec 2017
  • 9 min read

संदर्भ

  • हाल ही में जनता दल (यूनाइटेड) पार्टी के दो राज्यसभा सांसदों को दल बदल विरोधी कानूनों के तहत अयोग्य घोषित कर दिया गया है।
  • अयोग्य घोषित सदस्यों ने मामले को न्यायालय में ले जाने की बात कही है और पूरा मामला विवादों की भेंट चढ़ता नज़र आ रहा है।
  • दल-बदल कानून को कई बार अभिव्यक्ति की आज़ादी के हनन से भी जोड़कर देखा गया है, हालाँकि एक स्वस्थ लोकतंत्र के निर्माण में यह कानून काफी प्रभावी भी रहा है।

क्या है संविधान की दसवीं अनुसूची?

  • भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची जिसे लोकप्रिय रूप से 'दल बदल विरोधी कानून' (Anti-Defection Law) कहा जाता है, वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के द्वारा लाया गया है।
  • यह ‘दल-बदल क्या है’ और दल-बदल करने वाले सदस्यों को अयोग्य ठहराने संबंधी प्रावधानों को परिभाषित करता है।
  • इसका उद्देश्य राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल बदल करने वाले जन-प्रतिनिधियों को अयोग्य करार देना है, ताकि संसद की स्थिरता बनी रहे।

दसवीं अनुसूची की ज़रूरत क्यों?

  • लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल सबसे अहम् हैं और वे सामूहिक आधार पर फैसले लेते हैं।
  • लेकिन आज़ादी के कुछ वर्षों के बाद ही दलों को मिलने वाले सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी।
  • विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं। 1960-70 के दशक में ‘आया राम गया राम’ अवधारणा  प्रचलित हो चली थी।
  • जल्द ही दलों को मिले जनादेश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को चुनाव में भाग लेने से रोकने तथा अयोग्य घोषित करने की ज़रूरत महसूस होने लगी।
  • अतः वर्ष 1985 में संविधान संशोधन के ज़रिये दल-बदल विरोधी कानून लाया गया।

अयोग्य घोषित किये जाने के आधार

  • दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जा सकता है:
    ⇒ यदि एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है।
    ⇒ यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
    ⇒ यदि किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है।
    ⇒ यदि कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है।
    ⇒ छह महीने की समाप्ति के बाद यदि कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।

दल-बदल अधिनियम के अपवाद

  • यदि कोई व्यक्ति स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में चुना जाता है तो वह अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है और जब वह पद छोड़ता है तो फिर से पार्टी में शामिल हो सकता है। इस तरह के मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।
  • यदि किसी पार्टी के एक-तिहाई विधायकों ने विलय के पक्ष में मतदान किया है तो उस पार्टी का किसी दूसरी पार्टी में विलय किया जा सकता है।

अपवादों का प्रभाव

  • दल-बदल विरोधी कानून एक उचित सुधार था लेकिन इसके अपवादों ने इस कानून की मारक क्षमता को कम कर दिया। जो दल-बदल पहले एकल होता था अब सामूहिक तौर पर होने लगा।
  • अतः वर्ष 2003 को संसद को 91वां संविधान संशोधन करना पड़ा, जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं बल्कि सामूहिक दल-बदल को भी असंवैधानिक करार दिया गया।

संविधान का 91वां संशोधन

  • इस संशोधन के ज़रिये मंत्रिमंडल का आकार भी 15 फीसदी सीमित कर दिया गया। हालाँकि, किसी भी कैबिनेट सदस्यों की संख्या 12 से कम नहीं होगी।
  • इस संशोधन के द्वारा 10वीं अनुसूची की धारा 3 को खत्म कर दिया गया, जिसमें प्रावधान था कि एक-तिहाई सदस्य एक साथ दल बदल कर सकते थे।

दल-बदल विरोधी कानून के पक्ष में तर्क

दल-बदल कानून के विपक्ष में तर्क

  • लोकतंत्र में संवाद की संस्कृति का अत्यंत महत्त्व है, लेकिन दल-बदल विरोधी कानून की वज़ह से पार्टी लाइन से अलग लेकिन महत्त्वपूर्ण विचारों को नहीं सुना जाता है।
  • जनता का, जनता के लिये और जनता द्वारा शासन ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है।
  • लेकिन दल-बदल विरोधी कानून जनता का नहीं बल्कि दलों के शासन की व्यवस्था अर्थात् ‘पार्टी राज’ को बढ़ावा देता है।
  • दुनिया के कई परिपक्व लोकतंत्रों में दल-बदल विरोधी कानून जैसी कोई व्यवस्था नहीं है।
  • इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में जनप्रतिनिधि प्रायः अपने दलों के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं, फिर भी वे उसी पार्टी में बने रहते हैं।

इस संदर्भ में विभिन्न समितियों के विचार

  • दिनेश गोस्वामी समिति
    ⇒ वर्ष 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति ने कहा था कि दल-बदल कानून के तहत प्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने का निर्णय चुनाव आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा तय किया जाना चाहिये।
  • विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट:
    ⇒ विदित हो कि वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि चुनाव से पूर्व दो या दो से अधिक पार्टियाँ यदि गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ती हैं तो दल-बदल विरोधी प्रावधानों में उस गठबंधन को ही एक पार्टी के तौर पर माना जाए।
    ⇒ राजनैतिक पार्टियों को व्हिप (दल के पक्ष में वोट न देने या किसी भी पक्ष को वोट न देने की स्थिति में अयोग्य घोषित करने का आदेश) केवल तभी जारी करनी चाहिये, जब सरकार खतरे में हो।
  • चुनाव आयोग का मत:
    ⇒ चुनाव आयोग का विचार है कि इस संबंध में उसकी स्वयं की भूमिका व्यापक होनी चाहिये।
    ⇒ अतः दसवीं अनुसूची के तहत आयोग की बाध्यकारी सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा निर्णय लेने की व्यवस्था की जानी चाहिये।

आगे की राह

निष्कर्ष

  • दल बदल विरोधी कानून संसद की आंतरिक राजनीति और सांसदों/विधायकों की खरीद-फरोख्त को रोकने का एक महत्त्वपूर्ण यंत्र है। लेकिन दल-बदल विरोधी कानून के सन्दर्भ में यह कथन सटीक बैठता है कि ‘इलाज़ ही अब स्वयं बीमारी बन गई है’।
  • ऐसा इसलिये है क्योंकि इस कानून के कुछ प्रावधान विसंगतियुक्त हैं, उदाहरण के लिये यदि कोई अपनी ही पार्टी के फैसले की सार्वजनिक आलोचना करता है तो यह माना जाता है कि संबंधित सदस्य 10वीं अनुसूची के तहत स्वेच्छा से दल छोड़ना चाहता है। यह प्रावधान पार्टियों को किसी स्थिति की मनमाफिक व्याख्या की सुविधा प्रदान करता है।
  • दल-बदल विरोधी कानून संसदीय प्रणाली में अनुशासन और सुशासन सुनिश्चित करने में अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है, लेकिन इसे परिष्कृत किये जाने की ज़रूरत है, ताकि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे बेहतर लोकतंत्र भी साबित हो सके।
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