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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

समावेशी हों एंटी-क्लाइमेट चेंज नीतियाँ

  • 03 Jul 2017
  • 9 min read

सन्दर्भ

भविष्य में जलवायु परिवर्तन का गरीबी पर क्या प्रभाव होगा? क्या जलवायु परिवर्तन या गरीबी, दोनों में से किसी एक का तोड़ निकालने से दोनों समस्याओं का समाधान हो जाएगा? भारत समेत विश्व के लगभग सभी विकासशील देशों के नीति निर्माताओं के लिये इन सवालों का उत्तर देना टेढ़ी खीर बन गया है। अनेकों अध्ययनों द्वारा यह प्रमाणित किया गया है कि बढ़ती गरीबी और जलवायु परिवर्तन के ख़तरे आज एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं। ऐसे में हमें ऐसी नीतियों की ज़रूरत है जो एंटी-क्लाइमेट चेंज होने के साथ-साथ सतत विकास के मूल्यों को समाहित करने वाले हों। गरीबी और जलवायु परिवर्तन में सबंध और समस्याओं के समाधान की बात करने से पहले हमारे लिये यह जानना आवश्यक है कि भारत में गरीबों की वास्तविक संख्या है क्या ?

क्या हो गरीबी की वास्तविक परिभाषा?

  • दरअसल, पिछले तीन दशकों में गरीबी की परिभाषा में व्यापक एवं स्वागतयोग्य बदलाव आया है, अब केवल किसी व्यक्ति की आय ही गरीबी रेखा के निर्धारण का मूल घटक नहीं है।
  • यदि किसी के पास पर्याप्त धन है फिर भी शिक्षा,पोषण, स्वास्थ्य एवं अन्य आवश्यक मानकों पर वह कमज़ोर पड़ सकता है। फिर भी, भारत और कई अन्य देशों में, गरीबी का अनुमान लगाने के लिये सरकारें आय या उपभोग विधि का उपयोग कर रही हैं।
  • विदित हो कि आय व उपभोग विधि का इस्तेमाल कर पूर्ववर्ती योजना आयोग ने यह बताया है कि भारत की  22 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है। हालाँकि इस विधि की अपनी सीमाएँ हैं और गरीबी की गणना और उससे लड़ने के लिये नए तरीके इस्तेमाल करने की ज़रूरत है।
  • मानव विकास को सिर्फ आमदनी और खर्च के हिसाब से मापने की बजाय जीवन प्रत्याशा और शिक्षा की गुणवत्ता जैसी चीज़ो से भी मापना होगा और इसके लिये बहुआयामी गरीबी सूचकांक(एमपीआई) की मदद ली जा सकती है।
  • विदित हो वर्ष 2010 में एचडीआर ने इसकी शुरुआत की थी, जो कि शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर के अभाव को दिखाता है। इसमें इन तीनों आधारों को एक समान महत्त्व दिया गया है। प्रत्येक आधार में कई संकेतक शामिल हैं, जिनका अध्ययन किया जाता है और एक-तिहाई संकेतकों के स्तर पर वंचित को गरीब मान लिया जाता है। 
  • एमपीआई गरीबी की गणना का अत्यंत ही उपयोगी तरीका है, एमपीआई के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, भारत की 41 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है।

जलवायु परिवर्तन से कैसे बढ़ती है गरीबी?

  • जलवायु परिवर्तन से फसल की पैदावार में गिरावट हो सकती है (सबसे खराब स्थिति 2030 तक वैश्विक फसल की उपज में 5 फीसदी गिरावट हो सकती है ) जिस कारण भोजन महँगा हो सकता है। विदित हो कि खाद्य वस्तुओं के मूल्य में हुई वृद्धि के कारण विश्व भर में वर्ष 2008 में 100 मिलियन एवं 2010-11 में 44 मिलियन लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए थे।
  • स्वस्थ और निरोग मानव संसाधन विकास की कुंजी है किन्तु तापमान में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस अधिक वृद्धि होने से विश्व भर में मलेरिया का जोखिम 5 फीसदी एवं अन्य संक्रामक रोगों का खतरा 10 फीसदी बढ़ सकता है। खाद्य पदार्थ महँगे होंगे एवं लोग ज़रूरी पोषक तत्व लेने में असमर्थ हो सकते हैं। तापमान में वृद्धि होने से श्रम उत्पादकता में 1 से 3 फीसदी की कमी हो सकती है।
  • प्राकृतिक विपत्तियों, जैसे कि बाढ़, सूखा और उच्च तापमान जैसी घटनाओं में तीव्रता के साथ वृद्धि हो सकती है। जलवायु परिवर्तन से दुनिया भर में सूखे की मार झेलने वाले लोगों की संख्या में 9 से 17 फीसदी की वृद्धि एवं बाढ़ की मार झेलने वालों की संख्या में 4 से 15 फीसदी की वृद्धि हो सकती है।
  • दरअसल, इन प्राकृतिक विपत्तियों का शिकार अमीर लोगों की तुलना में आर्थिक रुप से कमज़ोर लोग अधिक होते हैं। आमतौर पर उनकी अपनी संपत्ति जैसे कि आवास एवं पशु जिन्हें काफी पैसे एवं समय लगा कर वे बनाते हैं, वे पल भर में प्राकृतिक आपदा की बलि चढ़ जाते हैं।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2030 तक जो भी परिवर्तन होंगे वह पिछले उत्सर्जन के कारण होंगे और नई नीतियों का केवल दीर्घकालिक प्रभाव हो सकता है। शायद जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के संबंध में कुछ नहीं किया जा सकता है, लेकिन सरकारें गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों के लिये अवश्य कुछ कर सकती हैं। सरकार सबसे अधिक जोखिम में रहने वाले लोगों को सुरक्षा और सहायता प्रदान कर सकती है।
  • सरकार की ओर से प्राकृतिक आपदा की स्थिति में शीघ्र सहायता प्रदान की जानी चाहिये क्योंकि यदि सहायता में विलम्ब हो तो परिवार खुद के जीवन को सुरक्षित रखने के लिये अपनी संपत्ति को बेचने की कोशिश करता है। समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग के लोगों तक योजना की पहुँच होनी चाहिये।
  • प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये सुरक्षित बुनियादी ढाँचे में सुधार जैसे कि बाढ़ से बचने के लिये जल निकासी व्यवस्था एवं पूर्व चेतावनी प्रणाली को दुरुस्त बनाया जाना चाहिये। आपदा प्रभावित लोगों को एक स्थिर नौकरी या आय प्रदान की जा सकती  है।

निष्कर्ष
‘ट्रांस्फॉर्मिंग आवर वर्ल्ड: द 2030 एजेंडा फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट' के संकल्प को, जिसे सतत विकास लक्ष्यों के नाम से भी जाना जाता है को भारत सहित 193 देशों ने सितंबर, 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्च स्तरीय पूर्ण बैठक में इसे स्वीकार किया था और 1 जनवरी, 2016 को यह लागू किया गया। इसके तहत 17 लक्ष्य तथा 169 उपलक्ष्य निर्धारित किये गए थे, जिन्हें 2016-2030 की अवधि में प्राप्त करना है। सतत विकास से हमारा अभिप्राय ऐसे विकास से है, जो हमारी भावी पीढ़ियों की अपनी ज़रूरतें पूरी करने की योग्यता को प्रभावित किये बिना वर्तमान समय की आवश्यकताएँ पूरी करे। सतत विकास लक्ष्यों का उद्देश्य सबके लिये समान, न्यायसंगत, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्ध और रहने योग्य विश्व का निर्माण करना और विकास के तीनों पहलुओं, अर्थात सामाजिक समावेश, आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण को व्यापक रूप से समाविष्ट करना है। भारत को यदि अपनी आधी से भी अधिक आबादी को गरीबी के जाल में फँसने से रोकना है तो उसे इन 2030 तक इन लक्ष्यों की प्राप्ति कर लेनी होगी, क्योंकि वह सतत विकास ही है जो पहले हो चुकी क्षति की पूर्ति कर सकता है।

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