शासन व्यवस्था
क्या असम का दर्द समझता है केंद्र?
- 23 May 2018
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संदर्भ
असम में बांग्लादेशी, अफगानिस्तानी एवं पाकिस्तानी शरणार्थियों का मुद्दा राज्य की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक रहा है। वर्ष 1971 में बांग्लादेश के अलग देश बनने से पहले और उसके बाद भारी संख्या में लोग असम में आकर बसने लगे थे। इस संबंध में ब्रह्मपुत्र घाटी में रहने वाले और बराक घाटी में रहने वाले लोगों के बीच व्यापक मतभेद हैं। बंगाली प्रभुत्व वाली बराक घाटी में ज़्यादातर लोग इन लोगों को नागरिकता दिये जाने के पक्ष में हैं, जबकि ब्रह्मपुत्र घाटी में रहने वाले लोग इसके विरोध में हैं। गौर करने वाली बात यह है कि यह मुद्दा कोई नया नहीं है बल्कि इसकी जड़े बहुत गहरी (बहुत हद तक विभाजन या उससे भी पहले की) हैं।
- इससे यहाँ की जनसांख्यिकी में भारी परिवर्तन हुए और स्थानीय विरोधी गुटों के उग्र प्रतिरोध के बाद असम समझौता अमल में आया। इसमें तय किया गया कि 24 मार्च, 1971 से पहले असम आए लोग ही भारतीय नागरिकता के हकदार होंगे। इसके बाद 1986 में नागरिकता अधिनियम में संशोधन किया गया। 1947 से 1971 तक जो भी विदेशी असम आए थे उन्हें भारत की नागरिकता मिल चुकी है।
नागरिकता अधिनियम-1955?
- नागरिकता अधिनियम-1955 कहता है कि किसी भी ‘अवैध प्रवासी’ को भारतीय नागरिकता नहीं दी जा सकती। इस कानून के तहत ‘अवैध प्रवासी’ की परिभाषा में दो तरह के लोग आते हैं—
♦ वे विदेशी जो बिना वैध पासपोर्ट या अन्य यात्रा दस्तावेज़ों के भारत आए हैं;
♦ 2. वे विदेशी जो वीज़ा अवधि समाप्त होने या अनुमत समय बीतने के बाद भी भारत में रुके हुए हैं।
क्या है इस संशोधन विधेयक-2016 में?
- नागरिकता अधिनियम-1955 में संशोधन करने वाले इस नागरिकता संशोधन विधेयक-2016 में पड़ोसी देशों (बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान) से आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी तथा ईसाई अल्पसंख्यकों (मुस्लिम शामिल नहीं) को नागरिकता प्रदान करने की बात कही गई है, चाहे उनके पास ज़रूरी दस्तावेज़ हों या नहीं।
- विधेयक के कारण और उद्देश्यों में कहा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के कई भारतीय मूल के लोगों ने नागरिकता के लिये आवेदन किया है, लेकिन उनके पास भारतीय मूल के होने का प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
- फिलहाल जो नागरिकता कानून लागू है, उसके तहत नैसर्गिक नागरिकता के लिये अप्रवासी को तभी आवेदन करने की अनुमति है, जब वह आवेदन से ठीक पहले 12 महीने से भारत में रह रहा हो और पिछले 14 वर्षों में से 11 वर्ष भारत में रहा हो।
- प्रस्तावित विधेयक के माध्यम से अधिनियम की अनुसूची 3 में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है ताकि वे 11 वर्ष की बजाय 6 वर्ष पूरे होने पर नागरिकता के पात्र हो सकें। इससे वे ‘अवैध प्रवासी’ की परिभाषा से बाहर हो जाएंगे।
- यह प्रस्तावित संशोधन ‘अवैध प्रवासी’ की इस परिभाषा में बदलाव करते हुए कहता है कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई लोगों को ‘अवैध प्रवासी’ नहीं माना जाएगा।
- यह संशोधन पड़ोसी देशों से आने वाले मुस्लिम लोगों को ही ‘अवैध प्रवासी’ मानता है, जबकि लगभग अन्य सभी लोगों को इस परिभाषा के दायरे से बाहर कर देता है।
इस विधेयक को लेकर ब्रह्मपुत्र घाटी में रहने वाले और बराक घाटी में रहने वाले लोगों के बीच मतभेद हैं। बंगाली प्रभुत्व वाली बराक घाटी में ज़्यादातर लोग इस विधेयक के पक्ष में हैं, जबकि ब्रह्मपुत्र घाटी में लोग इसके विरोध में हैं।
विभाजन से उपजती पीड़ा
- विभाजन, देश के इतिहास की एक भयावह मानव त्रासदी थी। असम ने भी इस पीड़ा और इसके परिणामों को झेला है लेकिन कुछ अन्य राज्यों के समान व्यावहारिक रूप से इसका अनुभव नहीं किया। फिर भी, विभाजन के बाद इस क्षेत्र में हुए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि किस प्रकार से इस दर्दनाक घटना के प्रभाव असम के अस्तित्व में समा गए।
- विभाजन के कई परिणामों की अंतःक्रिया, भाषायी, धार्मिक और अन्य पहचानों के बदलते रंग ने असम और पूर्वोत्तर क्षेत्र पर स्थायी प्रभाव डाला हैं।
- राजनीतिक वैज्ञानिक संजीब बरुआ के शब्दों पर गौर करें तो यह एक "असफल विभाजन" था। उनका तर्क है कि विभाजन के सभी पक्षों एवं घटनाओं के संदर्भ में विचार करें तो आज़ादी के बाद से असम की राजनीति में सबसे अहम मुद्दा 1947 के विभाजन की विफलता से निपटने रहा है।
- ब्रिटिश शासन के 125 वर्षों के दौरान विभाजन का सामाजिक-मनोवैज्ञानिक तनाव अभी भी असम के उपर तलवार की भाँति लटका रहा है। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों ने पहाड़ी लोगों की विशेष संस्कृति और जातीयता की रक्षा करने के लिये एक इनर लाइन सिस्टम तैयार किया। यह सिस्टम आज भी कुछ रूपों में जारी है।
- शायद इसी तरह की चिंता ने क्राउन कॉलोनी बनाने के प्रस्ताव को जन्म दिया, जिसमें असम की पहाड़ियों, बर्मा और चटगाँव हिल ट्रैक्ट्स के पहाड़ी इलाकों को शामिल किया गया।
- असम के तत्कालीन गवर्नर के समर्थन से इसे 1941 के उत्तरार्द्ध में पुनर्जीवित किया गया। वाइसराय लॉर्ड वेवेल ने इस प्रस्ताव को खारिज़ कर दिया और सौभाग्य से यह असम के इतिहास में "क्या होगा यदि" (what if) से अधिक किसी महत्त्व का नहीं रहा।
एक अलग प्रान्त के रूप में जन्मा असम
- 1905 में बंगाल का विभाजन करते हुए ब्रिटिश सरकार ने पूर्वी बंगाल और असम के रूप में एक नया प्रांत बनाया। नए प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर का मुख्यालय दाक्का (ढाका) में स्थापित किया गया।
- बंगाल विभाजन के विरोध के मद्देनज़र इस निर्णय को 1911 में संशोधित किया गया जिसके परिणामस्वरूप 1912 में असम मुख्य आयुक्त के प्रांत के रूप में उभरकर सामने आया।
- कैबिनेट मिशन योजना और कुख्यात "ग्रुपिंग स्कीम" के दौरान असम को एक बार फिर से बंगाल के साथ टैग किया गया। इससे आमजन में चिंता का माहौल बना क्योंकि लोगों को यह डर सताने लगा था कि कहीं विभाजन की शर्तों में असम को पूर्वी पाकिस्तान के साथ जोड़कर भारत से अलग न कर दिया जाए।
- गोपीनाथ बोर्डोली (Gopinath Bordoloi) के नेतृत्व में (जो असम के पहले मुख्यमंत्री बने, इन्हें यहाँ का प्रधानमंत्री कहा जाता था) ने असम विद्रोह शुरू कर दिया। हालाँकि इस निरी से जवाहरलाल नेहरू खुश नहीं थे, लेकिन महात्मा गांधी के आशीर्वाद से असम अपनी रक्षा करने में सफल हो गया।
- वह जंग तो जीत ली गई लेकिन ढाका या बंगाल का प्रभुत्व में आना आज भी असम के लिये चिंता का विषय बना हुआ है। जहाँ एक ओर विभाजन ब्रह्मपुत्र घाटी के लिये एक बड़ी राहत थी।
- लेकिन वहीं, दूसरी ओर असम की बराक घाटी में इसके कारण बहुत सी संचार और सामाजिक बाधाए उत्पन्न हुईं। इसने इन दो घाटियों के बीच मतभेद और संघर्ष को जन्म दिया।
- अपनी पुस्तक ‘Sons of the Soil: Migration and Ethnic Conflict in India’ में म्य्रोन वेंएर ने लिखा है कि विभाजन से पहले बंगाली हिन्दु और बंगाली मुसलमान दोनों ही असम के निर्माण में महत्त्वपूर्ण कारक थे, एक का अपना सांस्कृतिक प्रभुत्व था, जबकि दूसरा जनसांख्यिकीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था।
- 1905 में जब असम को पूर्वी बंगाल से सम्बद्ध किया गया तो असम के ब्रिटिश कमिश्नर पी.आर.टी. गॉर्डन ने कहा था कि ब्रिटिश सरकार के इस फैसले के बाद असमिया भाषा और स्थानीय रोज़गार खतरे में आ गए हैं। हालाँकि विभाजन ने कम-से-कम अस्थायी रूप से एक डर को तो कम किया। लेकिन विभाजन के बाद के इतिहास ने असम में बंगाली हिंदुओं और स्थानीय असमिया लोगों के बीच एक नई खाई को उभारा।
- ऐसे में असम की वर्तमान समस्याओं के संबंध में विचार करने के लिये इसके इतिहास को देखना और समझना बहुत ज़रुरी है।
- लेखक कायस अहमद ने एक बार टिप्पणी की थी कि ‘एक शरणार्थी की आज़ादी का एकमात्र विकल्प विभाजन ही था।‘ शरणार्थी समझौता असम में हमेशा से एक विवादित मुद्दा रहा है, जो अक्सर सार्वजनिक भावनाओं को उकसाता रहता है।
1985 का असम समझौता
- 1983 की भीषण हिंसा के बाद समझौते के लिये बातचीत की प्रक्रिया शुरू की गई, जिसके परिणामस्वरूप 15 अगस्त, 1985 को केंद्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच समझौता हुआ जिसे असम समझौते (Assam Accord) के नाम से जाना जाता है।
- इस समझौते से विभाजन के बाद (1951 से 1961 के बीच) असम आए सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार दिये जाने का फैसला हुआ।
- इस समझौते के तहत 1961 से 1971 के बीच असम आने वाले लोगों को नागरिकता तथा अन्य अधिकार दिये गए, लेकिन उन्हें मतदान का अधिकार नहीं दिया गया। इसके अंतर्गत असम के आर्थिक विकास के लिये विशेष पैकेज भी दिया गया।
- साथ ही यह फैसला भी किया गया कि असमिया भाषी लोगों के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषायी पहचान की सुरक्षा के लिये विशेष कानून और प्रशासनिक उपाय किये जाएंगे। असम समझौते के आधार पर मतदाता सूची में संशोधन किया गया।
इसका प्रभाव क्या हुआ?
- इसके परिणामस्वरूप पश्चिम बंगाल और भारत सरकार के मध्य लगातार टकराव हुआ। यहाँ तक कि वैज्ञानिक और सांसद मेघनाद साहा ने भी असम की आलोचना की।
- एक रिपोर्ट के अनुसार, सरदार पटेल ने असम प्रशासन से स्थानीय भावनाओं को दरकिनार करते हुए शरणार्थियों को राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी के रूप में प्राथमिकता देने की बात कही।
- सरकार के फैसले के विरोध में ब्रह्मपुत्र घाटी में जनमत ने ‘सहानुभूति’ के इस कृत्य के संबंध में नाराज़गी व्यक्त की। 19वीं और 20वीं सदी में असम में प्रवासन को प्रोत्साहित करने की ब्रिटिश नीति का हवाला देते हुए इसे औपनिवेशिक विरासत की निरंतरता के रूप में देखा गया। जिस प्रकार इस मुद्दे के आलोक में असम राज्य में अविश्वास और अलगाव के बीज बोए गए, उसी के अनुरूप असम में केंद्र द्वारा उपेक्षापूर्ण व्यवहार किये जाने संबंधी शिकायतें घर करती गई।
"पूर्वोत्तर दृष्टि 2020" दस्तावेज़
- विभाजन के आघात के रूप में "पूर्वोत्तर दृष्टि 2020" दस्तावेज़ बताता है कि यह हादसा इस क्षेत्र को कम-से-कम एक-चौथाई सदी पीछे ले गया। इसने न केवल असम के भविष्य की प्रगति में बाधा डाली बल्कि इसके कारण उत्पन्न हुए "आर्थिक गतिरोध" ने विकास परिदृश्य को "अराजक" बनाने का भी काम किया।
- आर्थिक बंदीकरण के अलावा शेष भारत से अलगाव और भौगोलिक दूरी ने असम के संदर्भ में गैर-आर्थिक लागतों के विषय में भी एक गंभीर सवाल खड़ा किया।
- अनुभवी पूर्वोत्तर निरीक्षक बी.जी. वर्गीज़ के शब्दों पर गौर करें तो देश में कहीं भी असम के इस शारीरिक और मनोवैज्ञानिक नुकसान की गंभीरता को समझकर न तो इसकी देखभाल की गई और न ही इसे उबरने के लिये प्रोत्साहित किया गया। अंततः परिणाम यह हुआ कि ‘पृथक और आघात से भरा, पूर्वोत्तर क्षेत्र अपने में ही सिमटता चला गया।’
असमिया समाज का गौरव सहनशीलता और बहुलवाद की परंपरा से भरा हुआ है, जो शंकरदेव जैसे महान पुरुष से होते हुए अजन फकीर जैसे प्रभावशाली व्यक्तियों के रूप में इसे सजाए हुए है। गौर करने वाली बात यह है कि क्या विभाजन और इससे प्राप्त विरासत समग्र असमिया पहचान में स्थायी आघात, संघर्ष और पीड़ा के रूप में स्थापित हो जाएंगी या फिर इसका भविष्य संपूर्ण भारत की भाँति खुबसूरत और उन्नतिशील होगा?
प्रश्न: असम में विद्यमान शरणार्थियों की समस्या की मूल वज़ह क्या है? क्या नागरिकता संशोधन अधिनियम की इस समस्या का एकमात्र हल है अथवा इस विषय में कुछ और कदम उठाए जाने चाहिये?