जैव विविधता और पर्यावरण
आसान नहीं धरती को वायु प्रदूषण से मुक्त कराना
- 06 Apr 2019
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संदर्भ
हाल ही में अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट ने ‘स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2019’ रिपोर्ट जारी की, जिसमें यह दावा किया गया है कि 2017 के दौरान हार्ट अटैक, फेफड़े का कैंसर, डायबिटीज जैसे रोगों की वज़ह से विश्व में 50 लाख लोगों की मौत हुई। इनमें से 30 लाख लोगों की मौत हवा में मौजूद पीएम 2.5 की वज़ह से हुई। इस अवधि में भारत में वायु प्रदूषण के कारण 12 लाख लोगों की मौत हुई।
रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु
- दक्षिण एशिया में मौजूदा स्थिति में जन्म लेने वाले बच्चों का जीवन ढाई साल कम हो जाएगा. वहीं वैश्विक जीवन प्रत्याशा में 20 महीने की कमी आएगी।
- प्रदूषण की वज़ह से दक्षिण एशिया में जन्म लेने वाले बच्चों की आयु ढाई साल तक घट गई है। वैश्विक स्तर पर इसकी वज़ह से बच्चों की आयु के 20 माह तक कम होने की आशंका है।
- दक्षिण एशिया (भारत, पाक, बांग्लादेश और नेपाल) को सबसे प्रदूषित क्षेत्र माना गया है। यहाँ हर साल 15 लाख लोग प्रदूषण की वज़ह से असमय मौत का शिकार हो रहे हैं।
- विश्व में सड़क दुर्घटनाओं और मलेरिया की तुलना में प्रदूषण से लोगों की मौत अधिक हो रही है। इस मामले में चीन और भारत के हालात एक जैसे हैं।
- भारत में हर साल होने वाली मौतों की तीसरी सबसे बड़ी वज़ह वायु प्रदूषण है।
- 2017 में विश्व की आधी जनता यानी 3.6 अरब लोग घर में होने वाले प्रदूषण से प्रभावित हुए।
- भारत में अभी भी 60%, बांग्लादेश में 79% और चीन में 32% लोग ठोस ईंधन से खाना बनाते हैं, जिसकी वज़ह से घर के भीतर प्रदूषण बढ़ रहा है।
चुनौतियाँ बहुत अधिक हैं
बढ़ते प्रदूषण को लेकर बढ़ रही वैश्विक चिंता के साथ ब्रिटेन में मौसम विभाग के कार्यालय और एक्जेटर विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्त्ताओं का यह खुलासा और भी परेशान करने वाला है कि इस वर्ष कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में और तेज़ी आ सकती है। अनुसंधानकर्त्ताओं के अनुसार, हवाई स्थित मोनालोआ वेधशाला में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता में 1958 से अब तक 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इसका मुख्य कारण जीवाश्म ईधनों का इस्तेमाल, वनों की कटाई और सीमेंट का उत्पादन तथा उसका बढ़ता इस्तेमाल है।
तापमान में वृद्धि होगी
यदि शोधकर्ताओं का यह कहना सही है कि इस साल कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन अधिक होगा, तो 2019 अब तक का सबसे गर्म साल साबित हो सकता है। उल्लेखनीय है कि 2018 में पृथ्वी का तापमान 1880 के बाद से अब तक का चौथा सबसे अधिक तापमान रहा। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस स्टडीज़ के मुताबिक, 2018 में वैश्विक तापमान 1951 से 1980 के औसत तापमान से 0.83 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा था। इस स्थिति के लिये काफी हद तक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन ही जिम्मेदार है। यदि यही स्थिति रही तो 2050 तक पृथ्वी का तापमान चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाने की संभावना जताई जा रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस बढ़ते तापमान के लिये मुख्यत: ग्लोबल वार्मिंग ही ज़िम्मेदार है।
अमेरिकी वैज्ञानिकों का निष्कर्ष
अमेरिकी वैज्ञानिकों के अनुसार, पृथ्वी का तापमान जिस तेज़ी से बढ़ रहा है उस पर काबू नहीं पाया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच सकता है। यदि पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक की भी वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अंटार्कटिका के विशाल हिमखंड पिघल जाएंगे। देखने में भी आया है कि बढ़ते तापमान के कारण उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की बर्फ तेज़ी से पिघल रही है।
जीवों के भौगोलिक वितरण पर प्रभाव
भूमंडलीय ताप में होने वाले इस उलटफेर से जीवों का भौगोलिक वितरण भी प्रभावित हो सकता है। कई प्रजातियाँ धीरे-धीरे ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित हो जाएंगी। पृथ्वी से जीवों की कई प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का प्रमुख कारण भूमंडलीय ताप को ही माना जाता है।
पर्यावरणविदों के अनुसार, बढ़ते तापमान के लिये मुख्यत: ग्रीनहाउस गैस, वनों की कटाई और जीवाश्म ईधन का दहन बड़े कारण हैं। तापमान में कमी तभी आएगी जब वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी होगी।
भारत के प्रयासों की सराहना
स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर-2019 में कहा गया है कि भारत ने प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिये प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, भारत चरण-4 स्वच्छ वाहन मानक और नए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम जैसे बड़े कदम उठाए हैं। इन कदमों और भावी पहलों को वायु गुणवत्ता की प्रतिबद्धता के तहत पूरी तरह लागू किया जाए तो आने वाले वर्षो में स्वास्थ्य संबंधी महत्त्वपूर्ण लाभ मिल सकते हैं।
इसके अलावा, भारत ने पेरिस जलवायु समझौते को मंज़ूरी देने के बाद क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे लक्ष्य को अंगीकार करने की भी मंज़ूरी दे दी है। इसके तहत देशों को 1990 की तुलना में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 18% तक घटाना होगा।
क्योटो प्रोटोकॉल
उद्योगों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिये 11 दिसंबर, 1997 को जापान के क्योटो शहर में संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में 192 देशों के बीच एक संधि हुई, जो 16 फरवरी, 2005 से प्रभावी हुई। इसे क्योटो प्रोटोकॉल के नाम से जाना जाता है। विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को लक्ष्य पूरा करने के लिये आर्थिक और तकनीकी मदद उपलब्ध कराना भी इस संधि का हिस्सा है।
क्योटो प्रोटोकॉल का पहला लक्ष्य 2008-12 के लिये तय हुआ था। इसमें औद्योगिक अर्थव्यवस्था वाले 52 देशों ने चार ग्रीनहाउस गैसों (कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फर हेक्साफ्लोराइड) का उत्सर्जन 1990 की तुलना में 5% तक घटाने का लक्ष्य रखा था। अन्य देशों ने भी इसके लिये अपने-अपने लक्ष्य रखे थे।
पेरिस जलवायु समझौता
पेरिस जलवायु समझौते पर भी भारत ने प्रयास शुरू कर दिये हैं। 2020 से कार्बन उत्सर्जन को घटाने संबंधित प्रयास शुरू करने के लिये दिसंबर 2015 में यह संधि हुई थी। इस पर 192 देशों ने हस्ताक्षर किये और अब तक भारत सहित 126 देश इसे अंगीकार कर चुके हैं।
UN ग्लोबल फॉरेस्ट रिसोर्स एसेसमेंट रिपोर्ट
पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने और कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव को कम करने के लिये कंक्रीट के जंगलों का विस्तार रोकने और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर नियंत्रण की ज़रूरत है। जलवायु परिवर्तन से बचने के लिये जंगल और वृक्षों का दायरा बढ़ाना होगा, लेकिन विडंबना है कि वृक्षों और जंगलों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल फॉरेस्ट रिसोर्स एसेसमेंट रिपोर्ट में कहा गया है कि 1990 से 2015 के बीच कुल वन क्षेत्र में 3% की कमी आई है। प्राकृतिक वन क्षेत्र में कुल वैश्विक क्षेत्र की दोगुनी अर्थात् 6% की कमी आई है। उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों में सबसे अधिक 10% की दर से कमी आई है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रतिवर्ष दो अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमंडल में घुल-मिल रही है। इससे जीवन का सुरक्षा कवच मानी जाने वाली ओजोन परत को नुकसान पहुँच रहा है।
पिछले वर्ष लैंसेट प्लैनेट हेल्थ 2018 में एक शोध के बारे में जानकारी दी गई थी। यह शोध, ICMR, पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, स्वास्थ्य शोध विभाग और स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण मंत्रालय ने मिलकर किया था। इसके तहत देश के हर राज्य में मृत्यु, रोग और आयु पर वायु प्रदूषण के असर का व्यापक अध्ययन किया गया। 2017 में 12.4 लाख मौतें वायु प्रदूषण से हुईं, जिसमें 6.7 लाख मौतें PM 2.5 की वज़ह से और 4.8 लाख मौतों का कारण घर में होने वाला वायु प्रदूषण था। इन लोगों में आधे से अधिक 70 वर्ष से कम उम्र के थे।
देश के किसी भी कोने में ऐसी हवा नहीं मिलती जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर खरी उतरती हो। ऐसे में वायु प्रदूषण को कम करने के लिये युद्धस्तर पर समयबद्ध तरीके से प्रयास करने होंगे। राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के तहत प्रदूषण कम करने के लक्ष्य तय होने चाहिये। सभी की जवाबदेही तय होनी चाहिये और इसके तहत उठाए जाने वाले कदमों तथा पहलों को कानूनी समर्थन प्राप्त होना चाहिये।