उत्कृष्टता तक पहुँच | 17 Jun 2017
संदर्भ
- हाल ही में क्यू.एस. विश्वविद्यालय रैंकिंग सूची में भारत के मात्र तीन संस्थानों को ही प्रथम 200 में स्थान मिला है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर किन कारणों से भारत की उच्च शिक्षण संस्थाएँ विश्व रैंकिंग में इतनी पीछे रहती हैं। दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि देश में उच्च शिक्षा तक पहुँच की स्थिति इतनी बदतर क्यों है? उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश से लाखों छात्र वंचित रह जाते हैं। इस लेख में इन्हीं मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है।
विश्लेषण
- भारत में प्रत्येक वर्ष लगभग एक करोड़ छात्र बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं, परन्तु देश के विश्वविद्यालयों में नामांकन अनुपात लगभग 24.3% रहता है। इस तरह लगभग 30 लाख छात्र बारहवीं की परीक्षा में अथवा उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिये आयोजित प्रवेश-परीक्षाओं में अच्छे अंक लाने के लिये कठिन परिश्रम करते हैं। जिन छात्रों को अच्छे अंक प्राप्त होते हैं, उनका दाखिला अच्छे से अच्छे उच्च शिक्षण संस्थानों में हो जाता है, परन्तु जिनके अंक कट-ऑफ अंक से कम रहते हैं उनको उनमें दाखिला नहीं मिल पाता है और उनको निराशा का सामना करना पड़ता है। देश में प्रत्येक वर्ष ऐसी ही तस्वीर देखने को मिलती है।
अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी
- भारत में उच्च शिक्षा के लिये अच्छे शिक्षण संस्थानों की भारी कमी है। जो थोड़े-बहुत उत्कृष्ट संस्थान हैं, उनमें प्रवेश के लिये गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा है। एक अनुमान के अनुसार देश के टॉप दस कालेजों में सभी विषयों को मिलाकर लगभग एक लाख सीटें उपलब्ध हैं। जरा सोचिये, कहाँ 30 लाख छात्र और कहाँ एक लाख सीटें? प्रत्येक सीट के लिये कितनी प्रतिस्पर्द्धा होगी? देश के टॉप IITs में चयन दर 0.01% है।
- कुल मिलाकर भारत में अच्छे उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या में भारी कमी है। जो थोड़े बहुत उत्कृष्ट संस्थान हैं, उनमें प्रवेश के लिये अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धा के कारण कट-ऑफ काफी ऊँची चली जाती है। देश की राजधानी दिल्ली में दिल्ली विश्वविद्यालय के टॉप कालेजों में कट-ऑफ 95 फीसदी से उपर ही रहता है।
शैक्षिक आपदा
- इसका दुष्प्रभाव अधिकांश छात्रों के भविष्य पर पड़ता है। उनका दाखिला सामान्य स्तर के कालेजों में होता है। उन्हें अपने अस्तित्व के लिये लगातार संघर्ष करना पड़ता है। कमोवेश यही हाल उन छात्रों का भी होता है जो प्रवेश परीक्षाओं में असफल होते हैं। जो संसाधन संपन्न हैं, वे विदेशों में चले जाते हैं शेष छात्रों के हाथ निराशा ही लगती है। इसे यदि शैक्षिक आपदा कहा जाए तो गलत नहीं होगा, जिसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। इनमें से अनेक छात्र आगे चलकर अपने जीवन में सफल हो सकते हैं परन्तु तात्कालिक पीड़ा तो उन्हें सहनी ही पड़ती है ।
- हमें इस पर विचार करना चाहिए कि ये किस तरह की शैक्षणिक संरचना हमने बना दी है, जिसमें अधिकांश छात्रों को गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है। किस विचारधारा (School of Thought) ने यह तय किया है कि कट-ऑफ से नीचे रहने वाला उम्मीदवार योग्य नहीं है। अंक प्राप्ति के आधार पर नागरिकों के चरित्र का मूल्यांकन करने का अधिकार समाज व देश को किसने दिया है?
- क्या हम इतने असंवेदनशील हो गये हैं कि हम अपनी आवश्यकता एवं मांग के बीच अंतर नहीं कर पा रहे हैं। क्या हम अर्थव्यवस्था से मानवता की ओर प्रतिस्पर्द्धा के प्रदर्शन के विचार को आँख बंद करके आयात किये जा रहे हैं? या यह नहीं समझ पा रहे हैं कि क्षमता बढ़ाने के लिये स्वाभाविक रूप से योग्यता के विचार का विरोध किया जाता है?
- इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। असफलता सबसे डरावनी इकाई बन जाती है। अतः समाज का नया लक्ष्य इस असफलता से बचना है। यही हमारे चरित्र, व्यक्तित्व एवं जीवन के सार को परिभाषित करता है। Costica Bradatan, एक रोमन-अमेरिकन दार्शनिक हैं। उनका कहना है कि असफल रहने की हमारी क्षमता ज़रूरी है कि हम क्या हैं और यही क्षमता छात्रों से छीन ली गई है। दीर्घकाल में असफलता के प्रति यह घृणा छात्रों को सब कुछ छोड़कर जीत के लिये प्रेरित करती है, बजाय क्या उचित है उसके ।
- इस बुराई के केंद्र में हमारी विकृत शिक्षा प्रणाली है जो विशिष्टता तथा अभिजात वर्ग पैदा करती है। हमारी व्यवस्था सभी के लिये उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान बनाने में विफल रही है ताकि सभी प्रसन्नता के साथ – साथ बढ़े एवं सीखते हुए बढ़ें ।
- अरस्तु प्रत्येक वस्तु के सार और उद्देश्य के बारे में बात करते हैं। उनका कहना है कि न्याय और नीतिशास्त्र नीतिगत हैं। किसी विश्वविद्यालय में किसको प्रवेश दिया जाय यह इस कारक से तय होता है कि उस विश्वविद्यालय का नीति क्या है ? यह निर्णय मात्र विद्वानों की उत्कृष्टता के आधार पर नहीं बल्कि समाज में चरित्रवान नागरिकों को बढ़ावा देने के आधार पर भी लिया जाना चाहिए।
- विश्वविद्यालय जीवन मूल्यों को सीखने का स्थान है न की मात्र रोज़गार का। केवल अकादमिक योग्यता वाले ही सम्माननीय नागरिकों में शामिल हों, ऐसा नहीं माना जा सकता। जो विश्वविद्यालय यह दावा करते हैं कि वे राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगे हैं, उन्हें कम अंक प्राप्त करने वाले छात्रों को भी प्रवेश देना चाहिए।
निष्कर्ष :
हम इसकी शुरुआत गैर-अभिजात ‘बी-ग्रेड’ मानी जाने वाली संस्थाओं की ओर नीतिओं को मोड़कर कर सकते हैं, क्योंकि देश का अधिकांश युवा इन्ही संस्थाओं से उस देश के लिये शिक्षा ग्रहण कर रहा है, जिसने उसे उम्मीद से कम ही दिया है।