अफ्रीका में साझा व्यापार समझौता और इसके निहितार्थ | 10 Jul 2019
इस Editorial में The Hindu, Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल हैं। इस आलेख में अफ्रीका महाद्वीप में संपन्न हुए मुक्त व्यापार समझौते तथा उसके विभिन्न पक्षों की भी चर्चा की गई है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
अफ्रीकी संघ का 12वाँ शिखर सम्मेलन नाइजर की राजधानी नियामे में संपन्न हुआ। इस सम्मेलन में अफ्रीका के देशों ने वस्तु एवं सेवा के लिये अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार समझौते (AfCFTA) पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते के अंतर्गत सीमापारीय मुक्त व्यापार वर्ष 2020 के जुलाई माह से प्रारंभ हो जाएगा। समझौता लागू होने के बाद यह अफ्रीका को एक संयुक्त बाज़ार में बदल देगा। अफ्रीका की 1.2 बिलियन जनसंख्या तथा 2.3 ट्रिलियन आकार की संयुक्त जीडीपी इस समझौते के अंतर्गत होगी।
क्या है AfCFTA समझौता?
अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार समझौता (African Continental Free Trade Agreement) विश्व व्यापार संगठन के गठन के पश्चात् हुआ सबसे बढ़ा मुक्त व्यापार समझौता (FTA) है। इस समझौते का मुख्य उद्देश्य वस्तुओं एवं सेवाओं के लिये एकल महाद्वीपीय बाज़ार स्थापित करना है इसमें व्यापार से जुड़े लोगों और श्रमिकों तथा निवेश का मुक्त रूप से आवागमन भी शामिल है। पिछले वर्ष अफ्रीका के 44 देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये थे तथा आधे देशों (22 देश) द्वारा सत्यापित होने के बाद इस समझौते को आगे बढ़ाया जाना था। कुछ समय पूर्व ही जाम्बिया ने 22वें देश के रूप में इस समझौते को सत्यापित कर दिया था इसके पश्चात् अफ्रीकी संघ की बैठक में इस समझौते को अंतिम सहमति भी दे दी गई।
चुनौतियाँ
समझौता लागू होने के पश्चात् यह विश्व का सबसे बढ़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र बन जाएगा। ज्ञात हो कि अफ्रीका वर्तमान में कई चुनौतियों का सामना कर रहा है, साथ ही अफ्रीकी संघ की क्षमता को लेकर भी अतीत में प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं। ऐसे में अनुमान लगाया जा रहा है कि इस समझौते को निम्नलिखित चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है-
- अफ्रीकी संघ का गठन वर्ष 1963 में हुआ था संघ के गठन के बाद से अफ्रीका के समक्ष कई चुनौतियाँ आती रही हैं जैसे- विऔपनिवेशीकरण, विकास की धीमी गति, इस्लामिक आतंकवाद, अरब स्प्रिंग आदि। किंतु इनसे निपटने तथा इनका समाधान खोजने में अफ्रीकी संघ प्रायः असफल रहा है। इससे पूर्व लीबिया के तानाशाह गद्दाफी ने भी अफ्रीकी संघ के साथ मिलकर अफ्रीकी यूनिटी परियोजना पर कार्य किया था किंतु यह योजना बुरी तरह असफल रही थी। अफ्रीकी संघ के पुराने अनुभव अधिक सकारात्मक नहीं रहे हैं, ऐसे में इस समझौते को ठीक से क्रियान्वित करने और सफल बनाने के लिये संघ को अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।
- अफ्रीका की वर्तमान परिस्थितियाँ गंभीर राजनीतिक संकट का सामना कर रही हैं। साथ ही अफ्रीका में सांगठनिक तथा अवसंरचना से जुड़ी हुई महत्त्वपूर्ण चुनौती भी होगी। अफ्रीका के कुछ देश जैसे-नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका तथा मिस्र मिलकर अफ्रीका की 50 प्रतिशत जीडीपी में योगदान करते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य देश आर्थिक रूप से अत्यधिक कमज़ोर हैं। इन देशों में विनिर्माण क्षमता भी बहुत सीमित है। यह भी ध्यान देने योग्य है, अफ्रीका का 20 प्रतिशत से भी कम व्यापार अफ्रीकी देशों के मध्य है। ऐसे में सीमापारीय व्यापार को इस समझौते के तहत अधिक गति दे पाना मुश्किल होगा।
- विश्व की वर्तमान परिस्थितियाँ संरक्षणवाद को बढ़ावा दे रही हैं। यही संरक्षणवाद अमेरिका-चीन के मध्य व्यापार तनाव, ब्रेक्ज़िट आदि के लिये ज़िम्मेदार है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व व्यापार की गति धीमी हो रही है, साथ ही विभिन्न देश वैश्वीकरण से पीछे हट रहे हैं तथा वस्तु व्यापार की वृद्धि दर भी थम रही है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अफ्रीका का विश्व व्यापार में सिर्फ 3 प्रतिशत ही हिस्सा है ऐसे में यह समझौता विश्व के रुझानों को कैसे निष्प्रभावी कर सकता है, यह समझना महत्त्वपूर्ण होगा।
चुनौतियों से निपटने के प्रयास
उपर्युक्त चुनौतियाँ इस समझौते (AfCFTA) के सफल क्रियान्वयन के लिये बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। किंतु यह समझौता चुनौतियों के साथ-साथ कई संभावनाओं को भी जन्म देता है। जो इन चुनौतियों को दूर करने में कारगर सिद्ध हो सकती हैं। ध्यातव्य है कि वैश्विक परिस्थितियाँ व्यापार की दृष्टि से प्रतिकूल हैं और साथ ही सभी देश संरक्षणवादी नीतियों पर बल दे रहे हैं, ऐसे में अफ्रीका का विकास अन्य देशों के सहयोग की अपेक्षा स्वयं अफ्रीकी प्रयास से ही संभव है। इस दृष्टिकोण से यह समझौता अफ्रीका के आर्थिक विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है। यह समझौता अफ्रीका में स्थित 5 क्षेत्रीय आर्थिक समूहों के अनुभव के आधार पर आगे बढ़ाया जा सकता है। अफ्रीकी संघ प्रायः अपनी अक्षमता के लिये ही जाना जाता है इसलिये इतने बड़े समझौते के सफल कार्यान्वयन के लिये एक व्यापक रूप-रेखा बनानी होगी। साथ ही आरंभिक स्तर पर अधिक शुल्कों को कम करना, शुल्कों के अलावा व्यापार से संबंधित अन्य बाधाओं को दूर करना, आपूर्ति सृंखला तथा विवाद निवारण तंत्र को विकसित करना आदि कार्यों को किया जा सकता है। ज्ञात हो कि वर्ष 2018 के अंत में मिस्र के काहिरा में अंतर-अफ्रीकी व्यापार मेले का आयोजन किया गया था। इस मेले में 32 बिलियन डॉलर के व्यापार समझौते हुए थे। ऐसे ही आयोजनों को बल देकर विभिन्न अफ्रीकी देशों को एक मंच पर लाया जा सकता है। अफ्रीका में अंतर्देशीय उद्योगों जैसे- डैनगोट (Dangote), MTN, इकोबैंक तथा ज़ूमिया (Jumia) आदि की महाद्वीपीय महत्त्वाकांक्षाएँ हैं अफ्रीका ऐसे उद्योगों को बल देकर अपनी विनिर्माण एवं व्यापारिक क्षमता को बढ़ा सकता है। हालाँकि यह भी सत्य है कि अफ्रीका में वित्तीय नेटवर्क बहुत कमज़ोर है, विभिन्न देशों के शुल्कों से संबंधित नियम जटिल हैं। किंतु इस समस्या को मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति द्वारा दूर किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त अफ्रीका में बड़ी मात्रा में सीमापारीय व्यापार अनौपचारिक रूप से होता है जिससे निपटना भी आवश्यक होगा।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, वर्तमान से वर्ष 2050 तक विश्व की जनसंख्या में जो वृद्धि होगी इस वृद्धि का 50 प्रतिशत अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र से होने की संभावना है। यह एक बढ़े उपभोक्ता वर्ग होने की स्थिति को भी दर्शाता है, इस परिप्रेक्ष्य में भी अफ्रीकी देशों के मध्य AfCFTA समय की मांग है।
अफ्रीका-अंध महाद्वीप से आर्थिक प्रगति की ओर
18वीं शताब्दी से पूर्व अफ्रीका विश्व के लिये मुख्य रूप से अनजान था क्योंकि अफ्रीकी परिस्थितियाँ किसी भी आक्रमण एवं खोज की अनुमति नही देती थीं। इसी पृष्ठभूमि में यूरोपीय शक्तियों ने अफ्रीका को अंध महाद्वीप की संज्ञा दी। जब अफ्रीका की मुख्य भूमि में औपनिवेशिक शक्तियों का आगमन हुआ तो उसने दास प्रथा को जन्म दिया। आगे चलकर विऔपनिवेशीकरण के लिये भी अफ्रीका ने संघर्ष किया। निकट अतीत में दक्षिण अफ्रीका एवं अन्य देशों ने नस्लवाद का भी दंश झेला है। वर्तमान में भी अफ्रीका मानव नरसंहार (रवांडा संघर्ष, दक्षिण सूडान आदि), तेल एवं खनिजों के लिये संघर्ष तथा इस्लामिक आतंकवाद को झेल रहा है। किंतु कुछ देश जैसे-नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, मिस्र आदि ने आर्थिक प्रगति भी की है। अब अफ्रीकी संघ के नेतृत्व में अफ्रीका साझा बाज़ार की ओर बढ़ा है।
अफ्रीका को पश्चिमी देशों द्वारा खोजे जाने से पूर्व अफ्रीकी व्यापार मुख्य भूमि से ही होता था। टिम्बकटू, घाना, आदिश अबाबा, दार-एस-सलाम, काहिरा आदि प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे। इन केंद्रों से स्वर्ण, नमक, कीमती पत्थर, दासों आदि का व्यापार होता था। यूरोपीय उपनिवेशीकरण द्वारा इस व्यापारिक व्यवस्था को नष्ट कर दिया गया। अब इस समझौते के माध्यम से अफ्रीका अपने इतिहास को दोहरा रहा है तथा अपने सफल व्यापारिक अतीत को ही पाने की कोशिश कर रहा है।
भारतीय दृष्टिकोण
अफ्रीका भारत का एक मज़बूत साझीदार है। भारत का वर्तमान में अफ्रीका के साथ लगभग 70 बिलियन डॉलर का वस्तु व्यापार है। यह भारत के वैश्विक व्यापार का दसवाँ भाग है। यूरोपियन संघ तथा चीन के बाद भारत अफ्रीका महाद्वीप का सबसे बढ़ा व्यापारिक साझीदार है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि विश्व की बदलती परिस्थितियों के कारण भारत का वैश्विक निर्यात स्थिर बना हुआ है, जबकि अफ्रीका के साथ निर्यात में वृद्धि हो रही है। उदाहरण के लिये भारत का नाइजीरिया के लिये निर्यात पिछले वर्ष की अपेक्षा वर्ष 2018-19 में 33 प्रतिशत बढ़ा है। अभी भी अफ्रीका में भारत की वस्तुओं की मांग बनी हुई है तथा इसके और बढ़ने की भी प्रबल संभावना है। विशेषकर खाद्य पदार्थों, तैयार उत्पादों (ऑटोमोबाइल, दवाओं, उपभोक्ता वस्तुओं) और आईटी तथा संचार सेवाओं, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा, कौशल, प्रबंधन और बैंकिंग तथा वित्तीय सेवाएँ आदि।
भारत को इस समझौते के प्रभावों को समझने की कोशिश करनी चाहिये तथा इस समझौते को किस प्रकार अपने हितों के अनुरूप उपयोग किया जाए इस पर भी विचार करना चाहिये। सैद्धांतिक रूप में अफ्रीका की अर्थव्यवस्था का पारदर्शी एवं औपचारिक होना भारतीय संदर्भ में हितकारी है। भविष्य में अफ्रीकी उत्पाद धीरे-धीरे भारतीय उत्पादों के लिये प्रतिस्पर्द्धी हो जाएंगे, इस बात को ध्यान में रखते हुए भारत विभिन्न उत्पादों जिनकी मांग अफ्रीका के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, का उत्पादन अफ्रीका में ही कर सकता है। साथ ही इसके लिये स्थानीय उत्पादकों को भी साझीदार बनाया जा सकता है। यदि भारत इस समझौते का उपयोग सक्षम रूप से करने में सफल होता है, तो भारत के लिये यह समझौता FMCG उत्पादन, कनेक्टिविटी से संबंधित परियोजनाओं तथा वित्तीय अवसंरचना के निर्माण में अवसरों के नए द्वार खोल सकता है। भारत ने इसी परिप्रेक्ष्य में अफ्रीकी संघ की बैठक, जो नाइजर की राजधानी नियामे में संपन्न हुई, को 15 मिलियन डॉलर से वित्तपोषित किया है। अगले प्रयास के रूप में भारत इस समझौते के लिये ज़रूरी ढाँचा-जैसे साझा वाह्य शुल्क, प्रतिस्पर्द्धी नीतियाँ, बौद्धिक संपदा अधिकार एवं व्यापार से जुड़े लोगों के आवागमन से संबंधित नीतिगत ढाँचे में अफ्रीकी संघ को सहयोग कर सकता है। भारत को अफ्रीका के ऐसे उद्योग, जो आने वाले समय में अफ्रीकी महाद्वीप के साझा बाज़ार (Common Market) में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है, को चिह्नित करना होगा ताकि इन उद्योगों के साथ मिलकर भविष्य में साझीदारी की जा सके। यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारत का 3 मिलियन से अधिक डायस्पोरा अफ्रीका में मौज़ूद है, उसकी भूमिका भी भारत के लिये महत्त्वपूर्ण हो सकती है। अंततः यदि यह समझौता अपने लक्ष्यों को पाने में सफल होता है तो भविष्य में भारत भी संपूर्ण अफ्रीका के साथ मुक्त व्यापार समझौते की ओर बढ़ सकता है। इस प्रकार का समझौता भारत और अफ्रीका दोनों के दृष्टिकोण से लाभदायक होगा।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि अफ्रीकी महाद्वीप में भारत ही एकमात्र व्यापारिक साझीदार नहीं है। चीन की स्थिति अफ्रीका के संदर्भ में भारत से अधिक मज़बूत है। भारत को चीन की चुनौती से निपटने के रास्ते भी खोजने होंगे। भारत जापान के साथ मिलकर अफ्रीकी ग्रोथ कॉरिडोर के अंतर्गत चीन की चुनौती से निपट सकता है, साथ ही ऐसे अफ्रीकी देश जो चीन की नीतियों से असंतुष्ट हैं, उन देशों के साथ मिलकर भारत कार्य कर सकता है।
निष्कर्ष
अफ्रीकी देशों ने इस समझौते के माध्यम से अफ्रीका को एक साझा बाज़ार में बदलने का प्रयास किया है। यह अफ्रीका के विकास की लिये आवश्यक एवं प्रगतिशील कदम है। किंतु अफ्रीका तथा अफ्रीकी संघ का अतीत विभिन्न समस्याओं से जूझता रहा है, ऐसे में इस समझौते को क्रियान्वित करना अफ्रीका के लिये एक कड़ी चुनौती होगी। इससे निपटने के लिये मज़बूत राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ-साथ विभिन्न संगठनों एवं देशों की विशेषज्ञता की भी आवश्यकता होगी। भारत के लिये भी यह आवश्यक होगा कि अफ्रीका के इस प्रयास में भागीदारी निभाए ताकि चीन से मिलने वाली चुनौती का सामना कर सके।
प्रश्न: अफ़्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार समझौता क्या है? इसको सफल बनाने में अफ्रीका के समक्ष आने वाली चुनौतियों का उल्लेख करें।