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इंटरनेट बंद करना अंतिम उपाय होना चाहिये, पहला कदम नहीं

  • 11 Jul 2017
  • 8 min read

हाल ही में पश्चिम बंगाल में एक आपत्तिजनक फेसबुक पोस्ट के कारण तनाव बढ़ा और उसके बाद सबसे पहले इंटरनेट सर्विस कुछ समय के लिये बंद कर दी गई। पिछले दिनों सहारनपुर में दो समूहों में हुई हिंसा के बाद भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला था। पिछले कुछ समय के दौरान कश्मीर में भी कई बार इंटरनेट और संचार सुविधाओं पर रोक लगाई गई है। इस साल 2017 में अब तक देश में कुल 14 बार ‘इंटरनेट शटडाउन’ हो चुका है जबकि वर्ष 2016 में यह आँकड़ा 31 बार था।

न्यायपालिका का दृष्टिकोण

  • विदित हो कि उच्चतम न्यायालय ने मोबाइल इंटरनेट सेवा पर प्रतिबंध लगाने के राज्यों के अधिकार को चुनौती देने वाली वर्ष 2016 में दायर एक अपील खारिज़ कर दी थी। न्यायालय का मानना था कि कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने के लिये इस तरह का प्रतिबंध लगाना गलत नहीं है।
  • दरअसल, याचिकाकर्त्ता ने दंड विधान संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 के तहत राज्य सरकारों को दिये गए ऐसे अधिकारों को चुनौती दी थी। न्यायालय ने कहा कि कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के लिये कभी-कभी ऐसा कदम उठाना ज़रूरी हो जाता है और कानून व्यवस्था की खराब स्थिति से निपटने के लिये समवर्ती अधिकार होने ज़रूरी हैं।
  • उल्लेखनीय है कि एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट के इस्तेमाल को नागरिकों का अधिकार बताया था। हालाँकि साथ में यह भी कहा था कि जब तक कानून सम्मत तरीके से इसका इस्तेमाल किया जाता है, इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती।
  • शीर्ष अदालत का मानना है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी में ‘सूचनाएँ हासिल करने’ का अधिकार भी शामिल है, जो इंटरनेट महज़ एक क्लिक के ज़रिये हासिल करने का अधिकार देता है।

इन्टरनेट की सुविधा का अधिकार एक उत्तम पहल क्यों ?

  • तेज़ी से बढ़ रहे डिजिटल दौर में जब सरकार कैशलेस इकॉनमी की तरफ बढ़ने के अभियान के साथ ही ई-गवर्नेंस और डिजिटलीकरण को बढ़ावा दे रही है तो ऐसे में इंटरनेट तक सबकी पहुँच ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है।
  • विदित हो कि संयुक्त राष्ट्र ने भी यह कहा है कि विश्व के सभी देशों को इंटरनेट की सुविधा को बुनियादी मानवाधिकार घोषित कर देना चाहिये।
  • विश्व के कई देश पहले ही इस व्यवस्था को अपना चुके हैं। गौरतलब है कि साल 2010 में स्वीडन दुनिया का पहला ऐसा देश बना था, जहाँ हाई-स्पीड इंटरनेट को प्राथमिक कानूनी अधिकार के तौर पर शामिल किया गया था।
  • इसके बाद कनाडा ने भी पिछले साल स्वीडन की तर्ज़ पर फैसला किया कि हर नागरिक को कम से कम 50 एमबीपीएस की स्पीड से इंटरनेट की सुविधा मिलनी चाहिये।

इन्टरनेट शटडाउन अनुचित क्यों ?

  • सवाल यह है कि बार-बार इंटरनेट बंद कर देना कितना सही है वह भी तब, जब सरकार देश को डिजिटल इंडिया बनाने का सपना देख रही है। माना जा रहा है कि इंटरनेट पर रोक नागरिकों की अभिव्यिक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार तो छिनती ही है, इससे देश को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है।
  • दरअसल, सैकड़ों स्टार्टअप या इंटरनेट पर निर्भर रहने वाले व्यवसाय कुछ घंटों की पाबंदी से ही बड़े नुकसान में आ जाते हैं। विदित हो कि एक रिपोर्ट के मुताबिक अकेले 2016 में इंटरनेट के बंद होने के चलते भारत को करीब छह हज़ार करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है।
  • यह समय का वह दौर है, जब व्यावसायिक से लेकर निजी रिश्ते तक डिजिटल कम्युनिकेशन पर निर्भर करते हैं। ऐसे में इंटरनेट बंद होना न सिर्फ असुविधा का कारण बनता है, बल्कि बहुत से मौकों पर सुरक्षा को खतरे में डालने वाला भी साबित हो सकता है।

इन्टरनेट शटडाउन, उचित क्यों

  • हालाँकि कुछ मौकों पर सरकार का यह फैसला सही भी नज़र आता है। कहा जा रहा था कि यदि जाट या पाटीदार आंदोलनों के दौरान अगर इंटरनेट बंद नहीं किया गया होता तो शायद हिंसा और भी विकराल हो सकती थी। धार्मिक समूहों में टकराव की संभावना को टालने के लिये भी ऐसा करना सही लगता है।
  • ऐसी खतरनाक और अप्रिय स्थितियों को टालने के लिये आर्थिक नुकसान को नज़रअंदाज कर देना भी गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन, एक दूसरा वर्ग भी है जो यह मानता है कि इन्टरनेट शटडाउन की यह प्रवृत्ति कभी भी लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के लिये खतरा बन सकती है।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • दरअसल, लगभग प्रत्येक सोशल साईट या एप्प में यह सुविधा दी जाती है कि यूज़र्स स्वयं अफवाहों की पहचान करते हुए प्रेषक को ब्लॉक कर सकें, लेकिन जब प्रशासन ऐसा करने लगे तो इस पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये।
  • वास्तव में इस संबंध में कोई नीति या प्रावधान है ही नहीं, जिसके माध्यम से यह निर्धारित किया जा सके कि किन परिस्थितियों में इन्टरनेट बंद किया जाना चाहिये। जैसे ही कोई अप्रिय घटना सामने आती है, आनन-फानन में इंटरनेट सेवा बंद कर दी जाती है।
  • बेहतर तो यह होगा कि इंटरनेट बंद करने से पहले प्रशासन यह सोचे कि उपद्रव की स्थिति में, उसका सही इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है। प्रशासन लोगों से बात करे, सही तथ्यों को उन तक पहुँचाए और इसके लिये ज़रूरी है कि इंटरनेट सेवा बंद न हो।
  • कोई तरीका निकालना चाहिये कि सभी इंटरनेट उपभोक्ताओं को सामूहिक रूप से सूचना भेजी जा सके और यह तब तक संभव नहीं है, जब तक कि इस संबंध में कोई नीति नहीं बनाई जाती। अतः वक्त आ गया है कि सरकार इस संबंध में एक प्रभावकारी नीति बनाने की प्रक्रिया आरम्भ करे।

निष्कर्ष
आज इंटरनेट हम सब के जीवन का एक अहम् हिस्सा है। यहाँ तक कि सरकार भी अपने कई काम एप के ज़रिये ही करती है। ई-कॉमर्स, होटल, पर्यटन से लेकर तमाम तरह के बिज़नेस इंटरनेट के ज़रिये ही होते हैं। आम लोग भी अब स्मार्टफोन पर उपलब्ध नेट के ज़रिये जीते हैं। ज़ाहिर है इंटरनेट अब हवा-पानी की तरह ही हो चुका है। क्या प्रशासन हिंसक स्थिति में पानी की सप्लाई बंद कर देती है? इंटरनेट बंद करना अंतिम उपाय होना चाहिये, पहला कदम नहीं और इसके लिये आवश्यकता है एक प्रभावी नीति की।

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