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भारतीय अर्थव्यवस्था

अर्थव्यवस्था पर मंदी के बादल

  • 30 Nov 2019
  • 16 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में सरकार द्वारा जारी GDP के हालिया आँकड़ों और भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति के कारणों पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (NSO) द्वारा जारी हालिया आँकड़ों के अनुसार, चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि दर गिरते हुए 4.5 फीसदी पर जा पहुँची है जो कि बीते 26 तिमाहियों का सबसे निचला स्तर है। गौरतलब है कि इससे पूर्व चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (Q1) में आर्थिक वृद्धि दर 5 प्रतिशत रही थी, जो कि पिछले 6 वर्षों का सबसे निचला स्तर था। विश्लेषकों का मानना है कि विगत कुछ समय से लगातार गिर रही आर्थिक वृद्धि दर के कारण अर्थव्यवस्था पर मंदी की आशंकाएँ और अधिक प्रबल हो गई हैं। हालाँकि कई जानकार यह भी मान रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में सुधार के लिये सरकार द्वारा उठाए गए हालिया कदमों का प्रभाव जल्द ही देखने को मिल सकता है और चालू वर्ष की तीसरी तिमाही में कुछ सुधार देखा जा सकता है।

निराशाजनक हैं हालिया आर्थिक आँकड़े

  • NSO द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, चालू वित्त वर्ष (2019-20) की दूसरी तिमाही (Q2) में देश की GDP का कुल मूल्य लगभग 35.99 लाख करोड़ है, जो कि इसी वर्ष की पहली तिमाही (Q1) में 34.43 लाख करोड़ था। यह दर्शाता है कि भारत की GDP वृद्धि दर तकरीबन 4.5 प्रतिशत है।
  • वहीं इस तिमाही के निजी अंतिम उपभोग व्यय (PFCE) में भी कमी देखने को मिली है। जहाँ एक ओर पिछले वित्तीय वर्ष (2018-19) की इसी तिमाही में यह PFCE 9.8 प्रतिशत था वहीं चालू वर्ष की इसी तिमाही में गिरकर 5.1 प्रतिशत पर जा पहुँचा है। ध्यातव्य है कि यह गिरावट देश में आम नागरिकों के मध्य आत्मविश्वास के संकट को स्पष्ट रूप से उजागर करती है।
  • इसके अलावा NSO के आँकड़ों के अनुसार, चालू वित्तीय वर्ष के Q2 में सकल स्थायी पूंजी निर्माण (GFCF) भी बीते वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही (11.8 प्रतिशत) से गिरकर 1.0 प्रतिशत पर आ गया है।
    • विदित हो कि GFCF का आशय सरकारी और निजी क्षेत्र में स्थायी पूंजी पर किये जाने वाले शुद्ध पूंजी व्यय के आकलन से है। माना जाता है कि यदि किसी देश के GFCF में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है तो उस देश के आर्थिक विकास में भी तेज़ी से वृद्धि होगी। वहीं इसके विपरीत GFCF में गिरावट अर्थव्यवस्था के नीति निर्माताओं के लिये चिंताजनक विषय होता है।
    • बीते कुछ वर्षों से भारत के GFCF में गिरावट की प्रवृत्ति ही देखा जा रही है जो कि भारत की आर्थिक वृद्धि के लिये बिल्कुल भी संतोषजनक खबर नहीं है।

विनिर्माण क्षेत्र का सबसे खराब प्रदर्शन

  • इस तिमाही में विनिर्माण क्षेत्र का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है और वह पिछले दो वर्षों के सबसे निचले स्तर पर आ गया है। आँकड़ों के अनुसार, Q2 में विनिर्माण क्षेत्र ने (-) 1 प्रतिशत की दर से वृद्धि की है, वहीं पिछले वर्ष (2018-19) की दूसरी तिमाही (Q2) में यह दर 6.9 प्रतिशत थी।
    • ज्ञात हो कि चालू वर्ष की पहली तिमाही में यह आँकड़ा 0.6 प्रतिशत रहा था।
  • कुछ विश्लेषक विनिर्माण क्षेत्र में आई गिरावट का प्रमुख कारण उपभोक्ता मांग में आई कमी को मान रहे हैं। साथ ही इसकी वजह से बीते 2-3 वर्षों में इसकी क्षमता के इस्तेमाल में भी कमी आई है।
  • NSO के हालिया आँकड़े औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) की ही कहानी को दोहरा रहे हैं। IIP में सामने आया था कि सितंबर माह में विनिर्माण क्षेत्र का उत्पादन 3.9 फीसदी पर सिकुड़ गया था।

आर्थिक मंदी की ओर

  • कुछ एजेंसियों ने पहले ही इसकी चेतावनी दे दी थी। SBI ने अपने GDP संबंधी अनुमान में बताया था कि चालू वर्ष की दूसरी तिमाही में GDP वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत रह सकती है। साथ ही कई अर्थशास्त्रियों ने जुलाई-सितंबर की तिमाही के लिये GDP विकास दर 4.5 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया है।
  • आँकड़ों के अनुसार, आर्थिक वृद्धि के सभी चार प्रमुख कारक - निजी उपभोग, निजी निवेश, सार्वजनिक निवेश और निर्यात बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
  • ध्यातव्य है कि पिछली 10 तिमाहियों में केवल 3 बार ही ऐसा हुआ जब देश के निजी उपभोग में वृद्धि देखने को मिली। जबकि इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि भारतीय अर्थव्यवस्था काफी हद तक लोगों की मांग पर ही टिकी हुई है।
    • इस वर्ष अक्तूबर में अपनी मौद्रिक नीति रिपोर्ट में RBI ने निजी खपत में गिरावट के रुझान पर चिंता भी व्यक्त की थी।
  • विदित हो कि सकल स्थायी पूंजी निर्माण या GFCF के रूप में निजी निवेश भी पिछली 29 तिमाहियों के सबसे निचले स्तर पर आ पहुँचा है।

वर्तमान आर्थिक स्थिति के कारण

  • विमुद्रीकरण का प्रभाव
    उल्लेखनीय है कि विमुद्रीकरण या नोटबंदी के प्रभाव ने देश के निजी उपभोग को लगभग धराशायी कर दिया है। अब उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च करने के बजाय नकद जमा करना या बैंक में रखना पसंद कर रहे हैं। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्र में भी मांग काफी कम हो गई है, क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था अधिकांशतः नकदी पर ही निर्भर करती है। बंगलूरू स्थित शोधकर्त्ताओं के अनुसार, नोटबंदी के बाद वर्ष 2016 और वर्ष 2018 के बीच तकरीबन पाँच मिलियन लोग बेरोज़गार हो गए थे। ज्ञात हो कि इसने देश की निजी खपत को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इसके अलावा नोटबंदी ने छोटे और मध्यम व्यवसायों को भी प्रभावित किया है, क्योंकि वे भी अधिकांशतः नकदी के आधार पर ही कार्य करते हैं। दरअसल यह कहा जा सकता है कि नोटबंदी ने देश की वर्तमान स्थिति को काफी प्रभावित किया गया है, क्योंकि एक ओर जहाँ इससे देश में मांग काफी कम हो गई तो दूसरी ओर वस्तुओं की आपूर्ति में भी अड़चनें पैदा हुईं।
  • बैंकों का NPA
    ध्यातव्य है कि अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक उच्च NPA अर्थात् नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स की समस्या से त्रस्त हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके समक्ष और अधिक ऋण देने में समस्या उत्पन्न हो रही है। ऐसे में जब बैंक ऋण ही नहीं देंगे तो सरकार के लिये भी देश में मांग को बढ़ाकर आर्थिक स्थिति को सुधारना काफी चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। साथ ही देश के बैंकिंग और नॉन बैंकिंग सेक्टर की स्थिति भी काफी अच्छी नहीं है, हालाँकि सरकार द्वारा इसे सुधारने के काफी प्रयास किये जा रहे हैं और संभवतः इन प्रयासों के परिणाम जल्द ही हमें देखने को मिलेंगे।
  • वस्तु एवं सेवा कर (GST)
    एक देश एक कर के रूप में GST को भारत में आर्थिक क्षेत्र के सबसे बड़े सुधारों में से एक माना जाता है किंतु इसके ढाँचे तथा क्रियान्वयन को लेकर उत्पन्न समस्याओं ने उद्यमों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। कुछ जानकार यह भी मान रहे हैं कि छोटे व्यवसायों पर नोटबंदी से अधिक GST का प्रभाव देखने को मिला है। GST के संबंध में जारी आँकड़ों से यह जानकारी मिलती है कि अगस्त माह के लिये GST संग्रहण घटकर एक लाख करोड़ रुपए से भी कम हो गया था।
  • वैश्विक कारक
    अमेरिका तथा चीन के बीच चल रहे व्यापार युद्ध और उससे जनित वैश्विक मंदी को भी भारत की वर्तमान आर्थिक स्थिति का बड़ा कारण माना जा सकता है। वैश्विक स्तर पर लगातार निर्यात में गिरावट देखी जा रही है और वस्तुओं का निर्यातक होने के कारण भारत पर इसका काफी प्रभाव पड़ा है।
  • रोज़गार में कमी
    विमुद्रीकरण तथा GST के कारण असंगठित क्षेत्र में रोज़गार की कमी देखी गई है तथा विदेशी निवेश के सीमित होने से भी नए रोज़गारों का सृजन नहीं हो सका है। कुछ समय पूर्व NSO के आँकड़ों में यह रेखांकित किया गया था कि बेरोज़गारी पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक बढ़ी है। उपरोक्त कारकों से जहाँ रोज़गार में कमी आई, वहीं गुणवत्तापरक रोज़गार का सृजन नहीं हो सका, परिणामस्वरूप मांग में कमी आई।
  • मौद्रिक नीति
    भारत में वर्ष 2013-14 में खुदरा मुद्रास्फीति दर 9.4 प्रतिशत थी। इस परिप्रेक्ष्य में नीति निर्माताओं और भारतीय रिज़र्व बैंक ने मुद्रास्फीति को कम करने के लिये मौद्रिक नीति का सहारा लिया। पिछले कुछ वर्षों से कठोर मौद्रिक नीति पर बल दिया गया और इसके तहत रेपो दरों को ऊँचा रखा गया जिससे बाज़ार में उधार लेने की क्षमता कम हो गई क्योंकि ऋण महँगे हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि मुद्रास्फीति में कमी आई, जो वर्ष 2018-19 के लिये 3.4 प्रतिशत रही लेकिन इसने मौद्रिक नीति बाज़ार को भी कमज़ोर कर दिया। पिछले कुछ समय से इसी को ध्यान में रखकर RBI लगातार रेपो दरों को कम कर रहा है ताकि स्थिति में सुधार किया जा सके।

आत्मविश्वास की कमी

  • गौरतलब है कि देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति उसके समाज की स्थिति का प्रतिबिंब होती है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार, किसी भी अर्थव्यवस्था का कामकाज उसमें मौजूद लोगों और संस्थानों के बीच आदान-प्रदान तथा सामाजिक संबंधों का संयुक्त परिणाम होता है।
  • अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत भरोसे और आत्मविश्वास का ताना-बाना टूटता दिखाई दे रहा है।
  • कई विश्लेषक मान रहे हैं कि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्वास में कमी का सामना कर रही है। कई बैंक NPA की वजह से ऋण नहीं दे पा रहे हैं और उद्यमी जोखिम के डर से नई परियोजनाओं को शुरू करने में हिचकिचा रहे हैं।
  • आर्थिक विकास के एजेंट के रूप में कार्य करने वाले लोगों के मध्य गहरा भय और अविश्वास पैदा हो गया है। गौरतलब है कि यह अविश्वास और भय समाज में आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। जिसके कारण अंततः अर्थव्यवस्था में ठहराव या स्थिरता आ जाती है।
  • देश के कुछ बड़े अर्थशास्त्रियों का मानना है कि लोगों के बीच मौजूद इसी भय और अविश्वास ने आर्थिक मंदी को बल दिया है।

तीसरी तिमाही में हो सकता है सुधार

  • अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर में संभवतः चालू वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही (Q3) में सुधार देखा जा सकता है, क्योंकि हाल के दिनों में सरकार द्वारा ऐसे कई कदम उठाए गए हैं जिनके प्रभाव आने वाले समय में देखने को मिल सकते हैं।
    • ज्ञातव्य है कि केंद्र सरकार ने अगस्त महीने में घोषणा की थी कि वह पब्लिक सेक्टर के बैंकों की सहायता करने के उद्देश्य से 70 हज़ार करोड़ रुपए की राशि जारी करेगी।
    • इसके अलावा सरकार ने विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों पर लगने वाले अधिभार को भी वापस ले लिया था।
    • सभी स्टार्टअप्स और उनके निवेशकों पर लागू होने वाले एंजेल टैक्स को समाप्त करने की भी बात कही गई थी।
    • साथ ही सरकार ने GST परिषद की बैठक में आर्थिक विकास, निवेश और रोज़गार सृजन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कॉरपोरेट कर की दर में कटौती की घोषणा भी की थी।
  • वहीं दूसरी ओर RBI भी लगातार अपनी ओर से रेपो रेट में कटौती कर मांग को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। RBI की मौद्रिक ‍नीति समिति (MPC) की बैठक अगले महीने ही होने वाली है और आशा है कि हालिया आर्थिक आँकड़े RBI की मौद्रिक नीति को प्रभावित करेंगे।

आगे की राह

  • आँकड़े आने के बाद कई अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सर्वप्रथम सरकार को यह सोचना बंद करना होगा कि सब कुछ नियंत्रण में।
  • देश की आर्थिक स्थिति के लिये मात्र वैश्विक कारकों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो चीन और बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था क्रमशः 6 और 7 फीसदी की दर से विकास नहीं करती।
  • जानकारों का मानना है कि क्षेत्र विशेष में हस्तक्षेप का दृष्टिकोण कुछ हद तक देश की आर्थिक स्थिति में सुधार कर सकता है, परंतु स्थिर और टिकाऊ विकास के लिये अर्थव्यवस्था को मज़बूती देने वाले गहन संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता है।

प्रश्न: GDP के संबंध में जारी हालिया आँकड़ों के परिप्रेक्ष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति का मूल्यांकन कीजिये।

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