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जैव विविधता और पर्यावरण

विकास बनाम पर्यावरण: अवसर और चुनौतियाँ

  • 27 Oct 2021
  • 11 min read

यह एडिटोरियल 25/10/2021 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘Development that is mindful of nature’’ लेख पर आधारित है। इसमें अवसंरचनात्मक विकास की समस्याओं और संवहनीय विकास की आवश्यकता के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ 

केरल एक बार पुनः पर्यावरण संकट की चपेट में है। कोट्टायम और इडुक्की में असामान्य भारी बारिश के कारण भूस्खलन की घटनाएँ दर्ज की गई हैं। इससे जानमाल का भारी नुकसान हुआ है।

जीवन की हानि का एक प्रमुख कारण केरल में भूमि उपयोग पैटर्न में आया परिवर्तन है, जिसकी गंभीर समीक्षा किये जाने की आवश्यकता है। 368 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के अखिल भारतीय औसत की तुलना में 860 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या घनत्त्व (2011 की जनगणना के अनुसार) के साथ केरल अपनी भूमि पर सर्वाधिक दबाव का सामना कर रहा है और इसलिये न केवल केरल के संदर्भ में बल्कि पूरे भारत में विकास बनाम पर्यावरण के विषय पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

केरल में भूमि उपयोग पैटर्न में परिवर्तन

  • केरल में ऐतिहासिक रूप से अधिकांश बसावट तटीय मैदान, निकटवर्ती तराई क्षेत्र और मध्यभूमि के कुछ हिस्सों में केंद्रित रही थी।
  • हालाँकि, स्थलाकृतिक सीमाओं में उल्लेखनीय भूमि-उपयोग परिवर्तन के साथ अब यह परिदृश्य बदल गया है।
  • जनसंख्या वृद्धि, कृषि विस्तार, आर्थिक विकास, अवसंरचनात्मक विकास (विशेष रूप से सड़क निर्माण) और अंतर-राज्य प्रवासन- इन सभी कारणों ने उच्चभूमि में बसावट को प्रेरित किया है।
  • केरल में आवासीय भवनों की संख्या में भी तेज़ी से वृद्धि हो रही है। जनगणना के आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2001-11 के एक दशक के दौरान केरल की जनसंख्या में 5% की वृद्धि हुई, लेकिन इसी अवधि में आवासीय भवनों की संख्या में लगभग 20% की वृद्धि दर्ज की गई।

असंवहनीय अवसंरचनाओं से संबद्ध समस्याएँ

  • भू-पर्यावरण पर प्रभाव: भारी निर्माण का भू-पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। न केवल बस्तियों के निर्माण के लिये प्रयोग की जा रही जगह बल्कि निर्माण सामग्री की पूर्ति हेतु उत्खनन और खुदाई, स्लोप मोडिफिकेशन, शैल उत्खनन और सड़कों के निर्माण के माध्यम से भी भूदृश्य को लगातार बदला जा रहा है। 
  • नदी बेसिन में परिवर्तन: भारी निर्माण के कारण सभी नदियों के बेसिन में भी परिवर्तन आ रहा है। इसके परिणामस्वरूप, प्राकृतिक वनस्पति आच्छादन के अंतर्गत अपक्षय और मृदा निर्माण के माध्यम से विकसित क्षेत्रों के स्वरूप में भारी परिवर्तन हुआ है।  
    • इसके साथ ही, नदी जलग्रहण क्षेत्र की जल-अवशोषण क्षमता समाप्त होती जा रही है, जिससे सतही अपवाह में वृद्धि हो रही है और भूजल पुनर्भरण में कमी आ रही है।
    • पहाड़ी क्षेत्रों में सड़क निर्माण (भले वह ढलान को काटते हुए किये जाते हों) भी भूदृश्य को अस्थिर बना रहा है और भूस्खलन के लिये अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करता है।
  • निचले ढलान के पर्यावासों पर प्रभाव: पहाड़ी ढलानों पर किये गए निर्माण भारी पर वर्षा के दौरान ढह जाने का खतरा रहता हैं।

विकास बनाम पर्यावरण

  • विकास के साथ पर्यावरण का संबंध: 
    • आर्थिक विकास के वांछित स्तरों की प्राप्ति के लिये तीव्र औद्योगीकरण और शहरीकरण अपरिहार्य हैं।
    • प्रति व्यक्ति आय में उल्लेखनीय वृद्धि लाने के लिये भी यह आवश्यक माना जाता है।
    • हालाँकि, इन आय-सृजनकारी गतिविधियों से प्रदूषण जैसे नकारात्मक पर्यावरणीय परिणामों का उत्पन्न होना भी तय है।
    • निश्चय ही, बड़े पैमाने पर रोज़गार सृजन और गरीबी में कमी लाने के लक्ष्यों की पूर्ति के लिये पर्यावरणीय गुणवत्ता से समझौता किया जा रहा है।
    • ऐसी धारणा है कि वित्तीय और तकनीकी क्षमताओं में वृद्धि के साथ-साथ आय के स्तर में क्रमिक वृद्धि से पर्यावरण की गुणवत्ता को पुनर्बहाल किया जा सकता है।
    • लेकिन वास्तविकता यह है कि निरंतर विकास सृजनकारी गतिविधियाँ पर्यावरण की गुणवत्ता को और बदतर ही बनाती हैं।
  • पर्यावरणीय संवहनीयता को प्रभावित करने वाले विकास-संबंधी कारक: 
    • पर्यावरण अनुपालन की कमी: 
      • पर्यावरणीय सिद्धांतों की उपेक्षा एक प्रमुख कारण है कि प्राकृतिक आपदाएँ परिहार्य हताहतों की बड़ी संख्या का कारण बनती हैं।
      • किसी क्षेत्र पर प्राकृतिक खतरों के जोखिम का वैज्ञानिक आकलन करने का कोई भी अभ्यास पूर्णतः लागू नहीं किया जाता है।
      • अनियंत्रित उत्खनन और पहाड़ी ढलानों की अवैज्ञानिक तरीके से कटाई मृदा कटाव का खतरा बढ़ा देती है, जिसके परिणामस्वरूप भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।
    • सब्सिडी के दुष्परिणाम: 
      • समाज के कमज़ोर वर्गों के कल्याण के प्रयास में सरकार भारी मात्रा में सब्सिडी प्रदान करती रही है।
      • लेकिन ऊर्जा और बिजली जैसी सेवाओं की सब्सिडी-युक्त प्रकृति उनके अति प्रयोग की ओर ले जाती है और पर्यावरणीय संवहनीयता को कमज़ोर करती है।
      • इसके अलावा, सब्सिडी राजस्व आधार को भी कमज़ोर करती है और नई, स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश करने की सरकार की क्षमता को सीमित करती है।
    • लागत-रहित पर्यावरणीय संसाधन: 
      • प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच पूर्णतः स्वतंत्र है और कोई भी व्यक्तिगत उपयोगकर्त्ता पर्यावरणीय क्षरण की पूरी लागत का वहन नहीं करता और इसके परिणामस्वरूप संसाधनों के अति-उपयोग या दोहन की स्थिति बनती है।
    • जनसंख्या गतिशीलता की जटिलता: 
      • बढ़ती हुई जनसंख्या अविकास और पर्यावरणीय क्षरण के बीच के समस्याजनक संबंधों को और मज़बूत कर देती है।
      • इसके अलावा, निर्धनता प्रवासन को बढ़ावा देती है, जो शहरी क्षेत्रों को पर्यावरण की दृष्टि से अस्थिर या असंवहनीय बनाता है।
      • ये दोनों ही परिणाम संसाधनों पर दबाव बढ़ाते हैं और नतीजतन पर्यावरणीय गुणवत्ता बदतर होती जाती है, उत्पादकता का ह्रास होता है और निर्धनता और गहरी ही होती जाती है।

आगे की राह

  • पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील विकास: विकास-संबंधी हस्तक्षेप विवेकपूर्ण और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील होने चाहिये ताकि अनपेक्षित परिणामों से बचा जा सके।  
    • संबंधित सरकारों को लागत-लाभ विश्लेषण (Cost-Benefit Analysis) जैसे उपाय करने की आवश्यकता है। 
  • तकनीकी विशेषज्ञता: पृथ्वी वैज्ञानिकों, स्वतंत्र सार्वजनिक नीति विशेषज्ञों, निर्वाचित प्रतिनिधियों और प्रभावित क्षेत्रों के नागरिकों के सहयोग के साथ हमारी पृथ्वी की पुनर्रचना (Re-Engineering) के लिये तकनीकी विशेषज्ञता की आवश्यकता है। 
  • स्वदेशी ज्ञान को शामिल करना: स्वदेशी लोगों के ज्ञान और व्यापक पारितंत्र की उनकी समझ से क्षेत्र और देश लाभान्वित हो सकते हैं। 
    • इस प्रकार, पारंपरिक संस्थाओं और प्रबंधन प्रणालियों सहित शासन व्यवस्था को प्रकृति की रक्षा करने और जलवायु परिवर्तन के संबंध में समझ विकसित करने के लिये स्वदेशी लोगों और स्थानीय समुदायों को अपनी योजना में शामिल करना चाहिये।
  • जैव विविधता का संरक्षण: जैव विविधता और पर्यावरणीय संवहनीयता का आपसी संबंध किसी भी निर्णय-निर्माण में जैव विविधता संबंधी विचारों को एकीकृत करने की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।  
    • इस प्रकार, किसी भी आधारभूत संरचना परियोजना को स्वीकार किये जाने से पहले पर्यावरण प्रभाव आकलन (Environment Impact Assessment- EIA) अवश्य किया जाना चाहिये।  

निष्कर्ष

मानव विकास दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने वाले ‘संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम’ (UNDP) ने ‘ग्रहीय दबाव समायोजित मानव विकास सूचकांक’ (Planetary-Pressures Adjusted Human Development Index) का प्रस्ताव किया है, जो किसी देश के मानव विकास का उसके पारिस्थितिक पदचिह्न के आधार पर मूल्यांकन करता है।

एंथ्रोपोसीन युग में रहते हुए हमें अपनी प्राकृतिक दुनिया को आगे किसी अतिरिक्त क्षति से बचाने हेतु प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: 'आर्थिक विकास के वांछित स्तरों की प्राप्ति के लिये तीव्र अवसंरचनात्मक विकास अपरिहार्य है।' इस कथन के आलोक में पर्यावरण की संवहनीयता के लिये विवेकपूर्ण निर्माण की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये।

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