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नदी जोड़ो परियोजना: समग्र विश्लेषण

  • 08 Sep 2017
  • 13 min read

संदर्भ

हाल के कुछ दिनों में बिहार, बंगाल, असम, राजस्थान जैसे राज्यों को भीषण बाढ़ से दो-चार होना पड़ा था। नदियों में जलीय अधिशेष को कम करने से बाढ़ से बचाव हो सकता है और इस अधिशेष को उपयुक्त जगह पहुँचाकर सूखे की समस्या से भी निज़ात पाई जा सकती है। यही कारण है कि कई दशकों से नदी जोड़ो परियोजना को अमल में लाने की बात होती रही है।

नदी जोड़ो परियोजना एक बार फिर से चर्चा में है क्योंकि केंद्र सरकार जल्द ही 87 अरब डॉलर की एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना आरंभ करने जा रही है। इस नदी जोड़ो परियोजना को बाढ़ और सूखे के हालातों का सामना करने के लिये उपयुक्त माना जा रहा है। नदी जोड़ो परियोजना एक ओर जहाँ संभावनाओं का द्वार खोल सकती है, वहीं दूसरी तरफ यह एक दिवास्वप्न भी साबित हो सकती है। इस लेख में हम इन सभी बिन्दुओं की चर्चा करेंगे।

पृष्ठभूमि

  • विदित हो कि नदियों को आपस में जोड़ने का विचार सबसे पहले वर्ष 1919 में मद्रास प्रेसिडेंसी के मुख्य इंजीनियर सर आर्थर कॉटोन ने रखा था। आज़ाद भारत में सबसे पहले वर्ष 1960 में तत्कालीन केंद्रीय ऊर्जा और सिंचाई राज्यमंत्री के. एल. राव ने गंगा और कावेरी नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव रखा था, जिसके बाद नदी जोड़ो अभियान को बल मिला।
  • वर्ष 1982 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘नेशनल वाटर डेवेलपमेंट एजेंसी’ का गठन किया था, वहीं वर्ष 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को इस योजना को यथाशीघ्र पूरा करने को कहा था। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि वर्ष 2003 तक इस योजना की रूपरेखा तैयार हो जानी चाहिये और वर्ष 2016 तक इस योजना को असली जामा पहना देना होगा।
  • सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक टॉस्क फोर्स का गठन किया था। टास्क फोर्स द्वारा इस परियोजना पर 560000 करोड़ रुपए की लागत का अनुमान लगाया गया था।
  • एक बार फिर वर्ष 2012 में इस परियोजना पर चर्चा शुरू हो गई, क्योंकि यही वह समय था जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना पर समयबद्ध तरीके से अमल करे, ताकि विलंब के कारण इसकी लागत में और अधिक बढ़ोतरी न हो। गौरतलब है कि अदालत ने इस परियोजना पर अमल करने के लिये एक उच्च स्तरीय समिति भी बनाई थी।
  • वर्ष 2016 में कुछ पर्यावरणीय मंज़ूरियाँ प्राप्त होने के साथ ही सरकार ने केन-बेतवा लिंक परियोजना पर गम्भीरता से अमल करना शुरू किया। इसके साथ ही एक बार से फिर से देश की सभी नदियों को एक-दूसरे जोड़ने की कवायद शुरू हो गई।

वर्तमान घटनाक्रम

  • केंद्र सरकार जल्द ही 87 अरब डॉलर की महत्त्वाकांक्षी परियोजना को प्रारंभ करेगी। यदि इस योजना पर अमल किया जाता है तो फिर बिहार में नेपाल की ओर से आने वाली बाढ़़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकेगा।
  • साथ ही बांग्लादेश की ओर से आने वाले बाढ़ से भी लोगों को निजात मिल सकती है। विदित हो कि इस योजना के तहत करीब 60 नदियों को जोड़ा जाएगा।
  • इन नदियों में गंगा नदी जैसी महत्त्वपूर्ण और बड़ी नदी भी शामिल है। हालाँकि इस परियोजना को लेकर कुछ लोग विरोध भी कर रहे हैं, जिनमें पर्यावरणविद् तक शामिल हैं। मगर माना जा रहा है कि नदी जोड़ो योजना का बड़ा लाभ होगा।
  • उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश के धार्मिक पर्यटन नगर उज्जैन में बहने वाली शिप्रा नदी को नर्मदा नदी से जोड़ा गया है और इसका लाभ यह हुआ है कि पर्याप्त बारिश न होने के बावज़ूद भी इस क्षेत्र में पेयजल का प्रबंध किया जा सकता है।
  • साथ ही केन व बेतवा नदी जोड़ो परियोजना भी सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है।

नदी जोड़ो योजना के लाभ?

1. इससे पीने के पानी की समस्या दूर होगी।
2. आर्थिक समृद्धि आएगी और लाखों परिवारों की आर्थिक बदहाली दूर होगी।
3. नदियों को जोड़ने से देश में सूखे की समस्या का स्थायी समाधान निकल सकता है।
4. सिंचित रकबे में वर्तमान के मुकाबले उल्लेखनीय वृद्धि होगी।
5. जल ऊर्जा के रूप में सस्ती एवं स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त हो सकती है।
6. नहरों का विकास होगा।
7. नौवहन के विकास से परिवहन लागत में कमी आएगी।
8. टूरिस्ट स्पॉट में वृद्धि होगी।
9. बड़े पैमाने पर वनीकरण को प्रोत्साहन मिलेगा।

साथ ही ग्रामीण जगत के भूमिहीन कृषि मजदूरों के लिये रोज़गार के तमाम अवसर पैदा होंगे, जो आर्थिक विकास को एक नई दिशा प्रदान करेगी। 

परियोजना से संबंधित समस्याएँ

नदी जोड़ो परियोजना के संबंध में सरकार ने प्रारंभिक मंज़ूरी सहित कई मोर्चों पर महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। नदी जोड़ो परियोजना जो दशकों से शुरू होने की बाट जोह रही है, के मामले में विशेषज्ञों की राय हमेशा से विभाजित रही है।

इस परियोजना के तहत 3,000 से अधिक जल भंडारण संरचनाओं तथा 15,000 किलोमीटर से अधिक लंबी नहरों के नेटवर्क के निर्माण में करीब 5.6 ट्रिलियन रूपए का खर्च आएगा। ये आँकड़े बताते हैं कि नदी-जोड़ो परियोजना अभियांत्रिकी के इतिहास में अब तक का सबसे साहसी कारनामा साबित हो सकता है। ज़ाहिर है कि जब योजना इतनी बड़ी है तो चुनौतियाँ भी बड़ी होंगी।

  • नदी जोड़ो परियोजना के आलोचकों का कहना है कि यह परियोजना विसंगतियुक्त जल विज्ञान और जल प्रबंधन की पुरानी समझ पर आधारित है। जिसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। आलोचकों के इस विचार के निहितार्थ को समझने के लिये हमें पहले यह जानना होगा कि जल प्रबंधन का वह कौन सा विचार है जिस पर यह परियोजना आधारित है।
  • दरअसल, नदी जोड़ो परियोजना का मुख्य उद्देश्य यह है कि हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों को नहरों के एक नेटवर्क से जोड़ा जाए, ताकि जल अधिशेष वाली नदियों के जल को इन नहरों के नेटवर्क से उन नदियों तक पहुँचा दिया जाए जिनमें जल का स्तर निम्न है।
  • मुंबई और चेन्नई में स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के शोधकर्त्ताओं के एक नए अध्ययन ने एक अलग ही तस्वीर पेश की है। वर्ष 1901 से 2004 तक के बीच के 103 वर्षों के अध्ययन से मौसम संबंधी डेटा का विश्लेषण करने के बाद शोधकर्त्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पहले की तुलना में अब नदियों के जल अधिशेष में 10% से अधिक की कमी आई है।
  • जहाँ तक पर्यावरणीय चिंताओं का सवाल है तो यह माना जाना कि नदी जलापूर्ति का एक माध्यम मात्र है चिंतित करने वाला है। दरअसल, नदी एक संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है और इसमें लाया जाने वाला बदलाव सभी वनस्पतियों और जीवों को प्रभावित करेगा। साथ ही नदियों द्वारा निर्मित उत्तर भारत का विशाल मैदान उपजाऊ बना रहे, इसके लिये नदियों से अत्यधिक छेड़छाड़ को उचित नहीं कहा जा सकता है।
  • यही कारण है कि कुछ हद तक पर्यावरणीय मंज़ूरी प्राप्त करने के बावज़ूद केन-बेतवा परियोजना, पन्ना टाइगर रिज़र्व में संभावित अतिक्रमण को लेकर अटकी पड़ी है।

राजनीतिक चुनौतियाँ

  • कौन सा पानी किसका है? नदी-समुद्र का पानी किसका है? सरकार का नदियों एवं तालाबों के जल पर मालिकाना अधिकार है या सिर्फ़ रख-रखाव की ज़िम्मेदारी? वर्तमान में ये सभी यक्ष-प्रश्न बने हुए हैं।
  • राजनीतिक कारणों से राज्य सरकारें अपने-अपने हितों के लिये अड़ने लगेंगी। कितने राज्यों के बीच पानी का झगड़ा अभी तक अनसुलझा ही है। वे दूसरे राज्यों को पानी देने को तैयार नहीं होते। सतलुज-यमुना और कावेरी जैसे जल विवाद तो शीर्ष न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बावज़ूद सुलझने का नाम नहीं ले रहे हैं।
  • इन परिस्थितियों में इतने बड़े स्तर पर जल हस्तानान्तरण कई विवादों को जन्म दे सकता है। इनमें से कई विवाद तो 50 वर्षों से भी अधिक समय से जारी हैं। यह देखते हुए कि नदियों में पानी की लगातार कमी होती जा रही है शायद ही कोई राज्य अपने हिस्से का पानी किसी अन्य राज्य को देने को तैयार होगा। यदि यही परिस्थितियाँ बनी रही तो नदियों के जल को लेकर राजनैतिक विवाद नदी जोड़ो परियोजना की सबसे बड़ी बाधा साबित हो सकती है।

आगे की राह

  • नदी जोड़ो परियोजना एक बड़ी चुनौती तो है ही, लेकिन साथ में यह जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले जल संबंधित मुद्दों को हल करने का एक अवसर भी है। अतः इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है और यह गंभीरता उस हद तक जायज़ कही जा सकती है, जहाँ नुकसान कम लेकिन फायदे ज़्यादा हों।
  • दुनिया में जितना पानी उपलब्ध है उसका लगभग चार फीसद ही भारत के पास है। इतने से जल में ही भारत को अपनी आबादी, जो दुनिया की कुल आबादी का लगभग 17 फीसद है, की जल संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने का भार है। तिस पर यह कि करोड़ों क्यूबिक क्यूसेक पानी हर साल बहकर समुद्र में बर्बाद हो जाता है।
  • ऐसे में नदी जोड़ो परियोजना वरदान साबित हो सकती है। हालाँकि ज़रूरी यह भी है कि इसे तब अमल में लाया जाए, जब विस्तृत अध्ययन द्वारा यह प्रमाणित हो कि इससे पर्यावरण या जलीय जीवन के लिये कोई समस्या पैदा नहीं होगी।

निष्कर्ष

नदी जोड़ो परियोजना बेशक एक महत्त्वाकांक्षी और महत्त्वपूर्ण परियोजना है और इसे अमल में लाने का समुचित प्रयास होना चाहिये, लेकिन साथ में इसकी भी नितांत आवश्यकता है कि पानी की एक सीमित और खत्म हो रहे संसाधन के रूप में पहचान की जाए।

सरकार को चाहिये कि राज्यों से विचार-विमर्श के बाद तुरंत एक ऐसी राष्ट्रीय जल नीति का निर्माण करे, जो भारत में भूजल के अत्यधिक दोहन, जल के बँटवारे से संबंधित विवादों और जल को लेकर पर्यावरणीय एवं सामाजिक चिंताओं का समाधान प्रस्तुत कर सके। इन सुधारों पर कार्य करते हुए नदी जोड़ो परियोजना की तरफ कदम बढ़ाया जाना चाहिये।

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