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तालिबान पर भारत की अवस्थिति (The shift in India position on Taliban)

  • 12 Nov 2018
  • 9 min read

संदर्भ

हाल ही में भारत ने ‘मॉस्को फॉर्मेट’ की बहुपक्षीय बैठक में ‘गैर-आधिकारिक’ प्रतिभागियों के रूप में दो पूर्व राजनयिकों को भेजा था। गौरतलब है कि इस बैठक में तालिबानी प्रतिनिधियों को भी शामिल किया गया था। भारतीय राजनयिकों में अफगानिस्तान के पूर्व राजदूत अमर सिन्हा और पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त टी. सी. ए. राघवन शामिल थे। वर्तमान में सिन्हा और राघवन विदेश मंत्रालय द्वारा वित्तपोषित अलग-अलग थिंक टैंक से संबद्ध हैं।

नए संबंध

  • 1999 में IC-814 के अपहरण के बाद यह पहला मौका था जब भारत सरकार के प्रतिनिधि सार्वजनिक रूप से तालिबान से जुड़े मामलों में शामिल हुए हैं।
  • गौरतलब है कि इससे पहले आईबी के अजीत डोभाल, रॉ (RAW) के सी. डी. सहाय और इस्लामाबाद में भारतीय उच्चायोग के ए. आर. घनश्याम जैसे भारतीय अधिकारियों ने मुतवक्किल की अध्यक्षता में तालिबान शासन के संवाददाताओं से बात की थी।
  • उक्त बहुपक्षीय बैठक में अफगानिस्तान ने विदेश मंत्रालय की बजाय अफगान हाई पीस कौंसिल से दो प्रतिनिधि भेजे जिनके साथ रूस के राजदूत भी शामिल थे।
  • अफगान हाई पीस कौंसिल (HPC) अफगानिस्तान सरकार द्वारा स्थापित किया गया एक ऐसा मंच है जो शांति तथा सुलह सुनिश्चित कराता है।
  • भागीदारी का स्तर तय करने हेतु भारत तथा अफगानिस्तान के मध्य परामर्श पहले ही हो चुका था।
  • भारतीय प्रतिनिधियों ने बैठक के दौरान कोई वक्तव्य नहीं दिया।
  • यह पहली बार था जब भारत सरकार द्वारा नामित प्रतिनिधि तालिबान प्रतिनिधिमंडल के साथ बैठक में शामिल हुए। इसे तालिबान के संदर्भ में भारत की अवस्थिति में बदलाव के रूप में माना जा सकता है।
  • भारत द्वारा किया गया अपने प्रतिनिधियों का चुनाव भारत की गंभीरता को स्पष्ट कर देता है। प्रतिनिधिमंडल में शामिल सिन्हा काबुल की परिस्थितियों से सुपरिचित हैं, जबकि राघवन, जसवंत सिंह के सहायक तथा 2003 से 2007 तक पाकिस्तान के भारतीय उप उच्चायुक्त के रूप में कार्य कर चुके हैं। इसके साथ ही राघवन पाकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान के संयुक्त सचिव के रूप में भी कार्य कर चुके हैं।

पुराने संबंध

  • भारत उन देशों में से एक है जिन्होंने 1996-2001 के तालिबानी शासन को मान्यता देने से इनकार कर दिया था।
  • 1999 में IC-814 के अपहरण के दौरान भारत को समझौते के लिये मजबूर किया गया था, जबकि कई अन्य मामलों में भारत ने तालिबान-विरोधी ताकतों को सहायता भी प्रदान की थी।
  • 1990 के दशक के दौरान भारत ने अफगानिस्तान में पाकिस्तान प्रायोजित तालिबान शासन से लड़ने वाले उत्तरी गठबंधन को सैन्य और वित्तीय सहायता भी प्रदान की थी।
  • तालिबान-विरोधी उत्तरी गठबंधन ताकतों का नेतृत्व कर रहे अहमद शाह मसूद ने 2001 में भारत का भ्रमण भी किया था जिसके कुछ महीनों बाद उनकी हत्या कर दी गई थी।
  • अहमद मसूद ने तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री से भी मुलाकात की थी। मसूद ने उस समय बताया था कि IC-814 के अपहरणकर्त्ता पाकिस्तान से थे तथा इस अपहरण के लिये तालिबान ने सहायता प्रदान की थी।
  • 9/11 का हमला तथा अमेरिकी कार्रवाई के बाद तालिबानी शासन के अंत के उपरांत 2001 में हामिद करजई के शासन की शुरुआत के शुभअवसर पर तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह काबुल गए थे। तत्पश्चात् भारत ने अफगानिस्तान में पुनः अपना राजदूत भेजना शुरू कर दिया था।
  • तालिबान 2006-07 के दौरान एक बार फिर उठ खड़ा हुआ और अमेरिकी सेना के लिये चुनौती बन गया। भारत ने तालिबान से दूरी बनाए रखी।
  • समय के साथ तालिबान की ताकत बढ़ती गई और अंत में अमेरिका ने 2009 में अपनी सेना वापस बुला ली तथा करजई सरकार शांति एवं सुलह हेतु तालिबान के समक्ष पहुँच गई।

हालिया बदलाव

  • 2010 में, लंदन में अफगानिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान भारत ने एक बदली हुई अवस्थिति को अपनाया।
  • भारत ने कहा था कि यह अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह तालिबान के साथ वार्ता हेतु नियम और शर्तें तथा मानदंड तय करे।
  • अफगान सरकार ने कहा था कि ‘तालिबान को अफगान संविधान स्वीकार करना होगा, हिंसा छोड़नी होगी और अल-कायदा तथा अन्य आतंकवादी संगठनों के साथ सभी प्रकार के संबंध तोड़ने होंगे।’ सम्मलेन में इस बात का समर्थन किया गया।
  • हालाँकि ‘मॉस्को फॉर्मेट’ की बहुपक्षीय बैठक में भारत ने तालिबान से प्रत्यक्ष रूप से वार्ता नहीं की लेकिन फिर भी इसने तालिबान द्वारा उक्त शर्तों को अपनाए जाने का अनुमोदन किया।
  • अशरफ घानी की सरकार के सत्ता में आने के बाद, अफगानिस्तान ने तालिबान के साथ सुलह के मकसद से पाकिस्तान से सहायता की उम्मीद की थी। किंतु तालिबान की आतंकी घटनाओं ने इन कोशिशों को असफल कर दिया।
  • पिछले कुछ वर्षों के दौरान अमेरिका, चीन और रूस ने अफगान सरकार तथा तालिबान के बीच सुलह एवं शांति वार्ता की शुरुआत की, इसके साथ ही भारत ने अपनी अवस्थिति में भी बदलाव किया है।
  • भारत ने ऐसे मानदंडों को अपनाने पर ज़ोर दिया जिसमें शांति प्रक्रिया केवल ‘अफगानिस्तान के नेतृत्व वाली’ तथा ‘अफगानिस्तान के स्वामित्व वाली’ होगी।
  • हालाँकि मौजूदा बहुपक्षीय प्रयास को कई लोग अफगानिस्तान के नेतृत्व के तहत नहीं मान रहे हैं क्योंकि इस बैठक का नेतृत्व रुस और अमेरिका कर रहे हैं।
  • गैर-आधिकारिक स्तर पर होने के बावजूद भी इस बैठक में भारत की भागीदारी काफी महत्त्वपूर्ण है, भले ही शुरुआत में पर्यवेक्षक की भूमिका निभानी पड़े। इसका तात्पर्य यह है कि भारत इस पूरी प्रक्रिया में रुचि ले रहा है।

निष्कर्ष

युद्ध के मैदान में कट्टरपंथी विचारधाराओं तथा धर्म से संचालित होने वाले लोगों को पराजित कर पाना मुश्किल है, खासकर तब, जब उनकी सैन्य ताकत को राज्य का समर्थन प्राप्त हो और जैसा कि तालिबान के मामले में है। तेज़ी से बदलते अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के दौर में भारत के लिये यह अनिवार्य हो जाता है कि अफगानिस्तान जैसे देशों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत किया जाए। अगर यह बहुपक्षीय बैठक सफल हो जाती है तो दक्षिणी एशिया में भारत मज़बूत बनकर उभरेगा। हालाँकि भारत इस वार्ता में विश्वास के साथ शामिल हो रहा है, लेकिन इसके नियम और शर्तें क्या हैं यह एक बड़ा सवाल है।

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