अंतर्राष्ट्रीय संबंध
सुरक्षा परिषद के विस्तार को लेकर उठते कुछ सवाल
- 24 Oct 2017
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संदर्भ
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की स्थायी प्रतिनिधि निक्की हैली द्वारा दिये गए वक्तव्यों से स्पष्ट तौर पर यह संकेत मिलता है कि वर्तमान में सुरक्षा परिषद के विस्तार को लेकर अमेरिका का रुख यह है कि वह वीटो की शक्ति के बिना भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन कर रहा है। विदित हो कि भारत के आधिकारिक सूत्रों से यह पता चला है कि इस संबंध में भारत के रुख में बदलाव नहीं आएगा क्योंकि सुरक्षा परिषद के मौजूदा स्थायी सदस्यों के समान ही इसके भी कुछ उत्तरदायित्व, ज़िम्मेदारियाँ और विशेषाधिकार हैं।
प्रमुख बिंदु
- जब भारत ने वर्ष 1979 में सुरक्षा परिषद के विस्तार का प्रस्ताव रखा था तो अमेरिका ने इसका खुला विरोध किया था। परन्तु शीत युद्ध की समाप्ति के बाद जब स्थायी सदस्यता के विस्तार का दबाव बढ़ने लगा तो अमेरिका ने केवल एक अथवा दो स्थायी सदस्यों को शामिल करने की इच्छा व्यक्त की थी। हालाँकि उस समय अमेरिका ने उन देशों के नाम से अवगत नहीं कराया था।
- तत्कालीन सचिव जनरल कोफी अन्नान ने अपनी एक रिपोर्ट ‘इन लार्जर फ्रीडम’(In Larger Freedom) में यह बताया था कि वर्ष 2005 में स्थायी सदस्यों ने ‘मॉडल बी’ का समर्थन किया था, जिसमें स्थायी सदस्यता के विस्तार की कोई कल्पना नहीं की गई थी।
- इसमें किसी भी स्थायी सीट का उल्लेख नहीं था, परन्तु इसमें आठ ‘चार वर्षीय नवीकरणीय सीट’(four-year renewable-term seats) और एक ‘द्विवर्षीय गैर-स्थायी सीट’ (two-year non-permanent seat) के सृजन का उल्लेख किया गया था।
- इस रिपोर्ट में ‘मॉडल ए’ को भारतीय प्रतिनिधि जनरल सतीश नांबियार के अनुरोध के तौर पर दर्शाया गया था। इसमें वीटो के बिना स्थायी सदस्यों के छह नए स्थायी सदस्यों तथा तीन नए द्विवर्षीय गैर-स्थायी सीट (जो बड़े क्षेत्रों के मध्य विभाजित हो) का उल्लेख था।
- वर्ष 2010 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान उन्होंने कहा था कि वे सुरक्षा परिषद में सुधार की इच्छा रखते हैं, जिसमें भारत एक स्थायी सदस्य के रूप में शामिल हो। परन्तु अमेरिकी प्रतिनिधि मंडल द्वारा संयुक्त राष्ट्र में इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की गई थी।
- दो वर्ष पहले सदस्य राष्ट्रों के दृष्टिकोणों का संकलन स्पष्ट रूप से इस बात की ओर संकेत करता है कि अमेरिका ने बमुश्किल ही सुरक्षा परिषद में मामूली विस्तार का समर्थन किया था। उस समय फ्रॉस और ब्रिटेन के विपरीत किसी ने भी भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन नहीं किया था।
- स्थाई सदस्यों में फ्रॉस का झुकाव भारत के पक्ष में अधिक था, क्योंकि यह सुरक्षा परिषद में पाँच नए स्थायी सदस्यों (भारत सहित) के शामिल होने का समर्थन करता था। इसे इस पर भी कोई आपत्ति नहीं थी कि वीटो शक्ति का विस्तार इन नए सदस्यों तक कर दिया जाए। ब्रिटेन ने वीटो शक्ति के बिना ही जी-4 सदस्यों का समर्थन किया था। रूस जोकि भारत का एक पुराना समर्थक था उसने इस पर कोई भी प्रतिबद्धता ज़ाहिर नहीं की थी, जबकि चीन का यह कहना था है कि इस मुद्दे पर बात करने के लिये अभी उपयुक्त समय नहीं आया है।
अमेरिका का रुख
- अमेरिकी प्रतिनिधि ने संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों को यह बताया है वह सुरक्षा परिषद में सुधारों के समर्थन में केवल तभी तक है जब तक कि उसका विशेषाधिकार उनके पास है।
- यदि मामला केवल अमेरिका के वीटो के संरक्षण का होता तो सुरक्षा परिषद का विस्तार काफी पहले हो चुका होता, परन्तु किसी ने भी अभी तक यह सुझाव नहीं दिया है कि स्थायी सदस्यों की वीटो शक्ति को समाप्त कर दिया जाना चाहिये। नए उम्मीदवार राष्ट्र केवल अपने लिये भी स्थायी सदस्यों के वीटो के समान शक्तियों की मांग कर रहे हैं और अमेरिका और अन्य स्थायी सदस्य इन मांगों को मानने से इनकार कर रहे हैं।
- मिस हैली का हालिया कथन वीटो के संबंध में अत्यधिक विशिष्ट है। अतः भारत को सुरक्षा परिषद में स्थान देने के लिये यह आवश्यक होगा कि वीटो से संबंधित मुद्दे को उठाया ही न जाए।
- अमेरिका पहले से ही वीटो शक्ति को गवाए बिना सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन कर रहा है, परन्तु यहाँ आवश्यक यह हो गया है कि रूस और चीन पर भी ध्यान दिया जाए। ये दोनों ही देश सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं जो इसमें किसी प्रकार का बदलाव नहीं चाहते हैं।
- यदि मिस हैली के वक्तव्य ट्रम्प प्रशासन की वर्तमान सोच को प्रदर्शित करते हैं तो यह निश्चित ही अमेरिका की नई सोच को प्रदर्शित करता है।
आगे की राह
- ‘मिस हैली के वक्तव्यों से इस बात का पता चलता है कि भारत वीटो के बिना ही स्थायी सदस्यता प्राप्त कर सकता है। अतः स्थायी सदस्यता के उम्मीदवारों द्वारा एक प्रारूप प्रस्ताव को पहले ही स्वीकार किया जा चुका है कि उन्हें 15 वर्ष तक वीटो शक्ति मिलने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये।
- भारत को मिस हैली द्वारा दिये गए आश्वासन का सम्मान करना चाहिये। यदि कुछ नहीं भी होता है तो भी वार्ताओं में विद्यमान वर्तमान गतिरोध समाप्त हो जाएंगे और सुरक्षा परिषद में सुधारों का एक नया दौर आएगा।