अंतर्राष्ट्रीय संबंध
वन्य जीव संरक्षण और बाघों की मौत के बढ़ते आँकड़े : एक विरोधाभास
- 30 Jan 2017
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दुनिया में इस समय सबसे ज्यादा बाघ भारत में हैं | पिछले कुछ सालों में भारत में बाघों की संख्या में वृद्धि भी हुई है लेकिन इसके बावजूद तस्करों और सिकुड़ते जंगलों की वजह से बाघों के सामने अपना अस्तित्व बचाने की चुनौती बनी हुई है | 2017 के पहले ही पखवाड़े में दो बाघिनों और तीन तेंदुओं की मौत से वन्य जीव संरक्षण के प्रयास और भी निरर्थक से लगने लगे हैं | राष्ट्रीय पशु और जंगल का राजा कहलाने वाले ये बाघ, अब जीवन संघर्ष की लड़ाई में बाजी हारते हुए नजर आ रहे हैं |
प्रमुख बिंदु :
- बाघों को बचाने की तमाम कोशिशों के बावजूद 2016 उनके लिए बेहद खराब साबित हुआ है | पिछले साल के शुरुआती 10 महीनों में ही 36 बाघों को तस्करों ने अपना शिकार बनाया |
- 2017 के पहले पखवाड़े में ही दो बाघिनों और तीन तेंदुओं की मौत हो चुकी है | इन्हें अवैध शिकार से जोड़कर देखा जा रहा है |
- हाल ही, में महाराष्ट्र में दो महीने के भीतर बिजली के करंट के कारण होने वाली दो बाघों की मौत के बाद राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority - NTCA) निवारक उपाय के व्यापक प्रावधानों को लागू करने के लिए हरकत में आ गया है ।
- ध्यातव्य है, कि बाघ-तेंदुओं की आबादी दो मुख्य कारणों से कम हो रही है- एक तो तस्करी और दूसरे उनके स्वाभाविक आवास क्षेत्र की कमी ।
- उन्हें बचाने के लिए जो टाइगर रिजर्व बनाए जा रहे हैं, उनसे इन दोनों में से एक भी समस्या का पूरी तरह निराकरण नहीं होता ।
- उलटे सीमित क्षेत्र में विकसित किए गए संरक्षित क्षेत्र शिकारियों और तस्करों के लिए गारंटीशुदा शिकारगाह बन गए हैं ।
- देश में मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र इस क्षेत्र में अव्वल हैं |
- अब जहर देकर व करंट फैलाकर भी बाघों को मारा जाने लगा है। एनटीसीए (राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण) ने इस बात का खुलासा किया है |
- तस्करों और शिकारियों को पता है कि उस क्षेत्र में उन्हें निश्चित रूप से शिकार करने के लिए बाघ मिल जाएँगे।
- आज भी बाघ का खून, दांत, हड्डियां, बाल शक्तिवर्धक पारंपरिक दवाओं के निर्माण और यहां तक कि टोने-टोटके के तौर पर भी इस्तेमाल लाए जाते हैं।
- बाघ की हड्डियों की तो दुनिया भर में खासी मांग है। ये हड्डियाँ गठिया की दवा और दूसरे दर्दनिवारकों में बहुतायत से प्रयोग में लाई जाती हैं।
- असाध्य रोगों की चिकित्सा में भी इनका भरपूर इस्तेमाल होता है।
- दवाओं के बाद फैशन और सजावट की वस्तु के रूप में बाघ की खाल की मांग आज भी एशिया के कई देशों में कायम है ।
- संवेदनशील क्षेत्रों में बाघ सहित अन्य वन्य जीव प्रजातियों की सुरक्षा हेतु गश्त लगाई जाएगी । इसके लिए वन विभाग की ओर से अधिकारियों और सुरक्षा गार्ड सहित विशेषज्ञों की टीमें बनाई जा रही हैं |
- रिजर्व वनों की दूसरी समस्या है छोटे-से वन क्षेत्र में अपने-अपने इलाके के लिए होने वाला संघर्ष। वहाँ उन वन्यजीवों के लिए पर्याप्त भोजन भी नहीं बचा है ।
- इसकी तलाश में वे मानव बस्तियों की ओर चले आते हैं, आदमखोर बन जाते हैं और फिर मारे जाते हैं ।
बाघ परियोजना
वैज्ञानिक, आर्थिक, सौंदर्यपरक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से भारत में बाघों की वास्तविक आबादी को बरकरार रखने के लिए तथा हमेशा के लिए लोगों की शिक्षा व मनोरंजन के हेतु राष्ट्रीय धरोहर के रूप में इसके जैविक महत्व के क्षेत्रों को परिरक्षित रखने के उद्देश्य से केंद्र द्वारा प्रायोजित बाघ परियोजना वर्ष 1973 में शुरू की गई थी।
- राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण तथा बाघ व अन्य संकटग्रस्त प्रजाति अपराध नियंत्रण ब्यूरो के गठन संबंधी प्रावधानों की व्यवस्था करने के लिए वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 में संशोधन किया गया है ।
- बाघ अभयारण्य के भीतर अपराध के मामलों में सजा को और भी अधिक कठोर किया गया है ।
- वन्यजीव अपराध में प्रयुक्त किसी भी उपकरण, वाहन अथवा शस्त्र को जब्त करने की व्यवस्था भी अधिनियम में की गई है।
- सेवानिवृत्त सैनिकों और स्थानीय कार्यबल तैनात करके 17 बाघ अभ्यारण्यों को शत-प्रतिशत अतिरिक्त केंद्रीय सहायता प्रदान की गई है ।
- राज्य स्तरीय संचालन समिति का गठन और बाघ संरक्षण फाउंडेशन की स्थापना की गई है । संसद के समक्ष वार्षिक लेखा परीक्षा रिपोर्ट भी प्रस्तुत की गई है ।
- अभयारण्य प्रबंधन में संख्यात्मक मानकों को सुनिश्चित करने के साथ-साथ बाघ संरक्षण को सुदृढ़ करने के लिए 4-9-2006 से राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण का गठन किया गया ।
- वन्यजीवों के अवैध व्यापार को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए पुलिस, वन, सीमा शुल्क और अन्य प्रवर्तन एजेंसियों के अधिकारियों से युक्त एक बहुविषयी बाघ तथा अन्य संकटग्रस्त प्रजाति अपराध नियंत्रण ब्यूरो (वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो), की स्थापना 6-6-2007 को की गई थी ।
- आठ नए बाघ अभयारण्यों की घोषणा के लिए अनुमोदन स्वीकृत हो गया है ।
- बाघ संरक्षण को और अधिक मजबूत बनाने के लिए राज्यों को बाघ परियोजना के संशोधित दिशानिर्देश जारी कर दिए गए हैं। जिनमें चल रहे कार्यकलापों के साथ ही बाघ अभयारण्य के मध्य या संवेदनशील क्षेत्र में रहने वाले लोगों के संबंधित ग्राम पुनर्पहचान/पुनर्वास पैकेज (एक लाख रुपए प्रति परिवार से दस लाख रुपए प्रति परिवार) को धन सहायता देने, परंपरागत शिकार और मुख्यधारा में आय अर्जित करने तथा बाघ अभ्यारण्य से बाहर के वनों में वन्यजीव संबंधी चीता और बाघों के क्षेत्रों में किसी भी छेड़छाड़ को रोकने संबंधी रक्षात्मक रणनीति को अपना कर बाघ कोरीडोर संरक्षण का सहारा लेते हुए समुदायों के पुनर्वास/पुनर्स्थापना संबंधी कार्यकलाप शामिल हैं।
- बाघों का अनुमान लगाने के लिए एक वैज्ञानिक तरीका अपनाया गया है । इस नये तरीके से अनुमानतः 93697 कि.मी. क्षेत्र को बाघों के लिए संरक्षित रखा गया है। उस क्षेत्र में बाघों की संख्या अनुमानतः 1411 है, अधिकतम 1657 और नई वैज्ञानिक विधि के अनुसार न्यूनतम 1165 है। इस अनुमान/आकलन के नतीजे भविष्य में बाघों के संरक्षण की रणनीति बनाने में बहुत उपयोगी सिद्ध होंगे ।
- भारत ने चीन के साथ बाघ संरक्षण संबंधी समझौता किया है । इसके अलावा वन्यजीवों के अवैध व्यापार के बारे में सीमापार नियंत्रण और संरक्षण के संबंध में नेपाल के साथ भी एक समझौता किया है।
- बाघ संरक्षण संबंधी अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा के लिए जिन देशों में बाघ पाए जाते है उन में एक ग्लोबल टाइगर फोरम का गठन किया गया है ।
आगे की राह :
विशालकाय जंगलों में बाघों, शेरोन या अन्य वन्य प्राणियों की निरंतर घटती संख्या को रोकने के लिए सबकी भागीदारी अपेक्षित है | इस मामले में सिर्फ़ सरकार पर आरोप लगाना ग़लत है | दरअसल, वन्य जीवन को बचाने की इच्छाशक्ति न तो हमारे राजनीतिज्ञों में दिखाई देती है और न ही आम जनता में । जो लोग टाइगर रिज़र्व के पास रहते हैं उन्हें बाघ की नहीं, अपनी रोज़ी और परिवार की सलामती की चिंता है | इसके अतिरिक्त, आमतौर पर बाघ या शेर जैसे वन्यजीवों को बचाने की किसी भी योजना में उस आदिवासी समाज का जिक्र कहीं नहीं होता है जो मुख्य रूप से वनों पर ही निर्भर है । जबकि वन्यजीवों के बचाने के लिए उन्हें वनों से बाहर पुनर्स्थापित करने की बात हमेशा कही जाती है । वास्तव में, अब एक ऐसी योजना बनाने की जरूरत है जिसमें वनों पर निर्भर आदिवासी समाज व वन्यजीव दोनों के बारे में सोचा जाए | साथ ही, इस दिशा में किये जा रहे सभी प्रयासों में ‘नीतिगत और क्रियान्वयन के स्तर पर’ तेजी लाने के लिए , जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है जिससे आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भी इस समस्या से निबटा जा सके |