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सामाजिक न्याय

निजीकरण और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट

  • 23 Oct 2018
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राष्ट्र (UN) द्वारा जारी एक नई रिपोर्ट के मुताबिक, कई समाजों में सार्वजनिक वस्तुओं का व्यापक रूप से निजीकरण मानवाधिकारों को व्यवस्थित रूप से खत्म कर रहा है और गरीबी में रहने वाले लोगों को और अधिक हाशिये पर ले जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र विशेष संवाददाता फिलिप एल्स्टन ने अपनी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्तुत की।

  • निजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से निजी क्षेत्र तेज़ी से  या पूरी तरह से सरकार द्वारा की गई गतिविधियों के लिये परंपरागत रूप से ज़िम्मेदार होता है, जिसमें मानव अधिकारों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिये कई उपाय किये जाते हैं।

मानवाधिकारों पर निजीकरण का प्रभाव

  • निजीकरण का इसलिये समर्थन किया जाता है क्योंकि निजी क्षेत्र को अधिक कुशल, वित्त को संगठित करने में अधिक सक्षम, अधिक नवीन और अर्थव्यवस्था के पैमाने पर पूंजी निर्माण में सक्षम तथा लागत कम करने के रूप में देखा जाता है।
  • हालाँकि, नेशनल ऑडिट ऑफिस ऑफ द यूनाइटेड किंगडम द्वारा किये गए अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया कि निजी वित्त मॉडल सार्वजनिक वित्तपोषण की तुलना में अस्पतालों, स्कूलों और अन्य सार्वजनिक आधारभूत संरचना प्रदान करने में अधिक महँगा और कम प्रभावशाली साबित हुआ।
  • निजीकरण उन मान्यताओं पर आधारित है जो कि मूलभूत रूप से उन लोगों से अलग है जो गरिमा और समानता जैसे मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं।
  • लाभ ही इसका सर्वोपरि उद्देश्य है और समानता तथा गैर-भेदभाव जैसे विचारों को हटा दिया गया है।
  • निजीकरण व्यवस्था मानव अधिकारों के लिये शायद ही कभी हितकर रही है। गरीबी या कम आय वाले लोग निम्नलिखित तरीकों से निजीकरण से नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकते हैंI
  • आपराधिक न्याय प्रणाली का निजीकरण किया गया है, इसलिये गरीबों पर कई अलग-अलग शुल्क और ज़ुर्माना लगाया जाता है।
  • उन सेवाओं की गुणवत्ता जो वे प्राप्त कर सकते हैं, कम हो जाती है, साथ ही न्याय प्राप्त करने की उनकी संभावना भी कम हो जाती है। 
  • सामाजिक सुरक्षा के निजीकरण के परिणामस्वरूप अक्सर गरीबों को एक नए और वित्तीय रूप से कमज़ोर सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन किया जाता है।
  • समाज में श्रमिकों की समस्याओं का हल खोजने के लिये एक मॉडल प्रारूप को व्यक्तियों द्वारा सामना की जाने वाली सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक चुनौतियों को पहचानने के लिये एक अन्य मॉडल द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है जो कि आर्थिक दक्षता संबंधी चिंताओं से प्रेरित होता है।
  • बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ निजी प्रदाताओं के लिये सबसे आकर्षक हैं जहाँ महत्त्वपूर्ण उपयोगकर्त्ता शुल्क लिया जा सकता है और निर्माण लागत अपेक्षाकृत कम होती है।
  • लेकिन गरीब इस प्रकार के शुल्क का भुगतान नहीं कर पाते हैं इसलिये जल, स्वच्छता, बिजली, सड़क, परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, सामाजिक और वित्तीय सेवाओं जैसी अनेक सेवाओं का उपयोग नहीं कर पाते हैं।
  • सोशल सिक्योरिटी सिस्टम का तेज़ी से निजीकरण किया जा रहा है, जो सेवा आउटसोर्सिंग, सोशल इंश्योरेंस, प्रशासनिक विवेकाधिकार का व्यावसायीकरण और अनुकूल परिणाम प्रदान करने में अग्रणी है।
  • यह दृष्टिकोण निजी लाभकारी संस्थाओं को व्यक्तियों की आवश्यकताओं और क्षमताओं के बारे में दृढ़ संकल्पित करने के लिये सशक्त करता है।

अनुशंसाएँ

  • रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि निजीकरण सिद्धांत रूप में न तो अच्छा है और न ही बुरा लेकिन हाल के दशकों में जिस तरह से निजीकरण हुआ है, उसकी जाँच की जानी चाहिये। इसके लिये निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिये:
    ♦ मानवाधिकार प्रभावों पर डेटा एकत्र और प्रकाशित किये जाने के लिये निजीकरण के साथ जुड़े सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के भागीदारों द्वारा उचित मानकों को निर्धारित किया जाना चाहिये।
    ♦ विशिष्ट क्षेत्रों तथा गरीब और हाशिये वाले समुदायों के मानवाधिकारों पर निजीकरण के प्रभाव का व्यवस्थित अध्ययन को शामिल किया जाना चाहिये।
    ♦ संधियों, विशेष प्रक्रियाओं, क्षेत्रीय तंत्र तथा राष्ट्रीय संस्थानों के नए तरीकों का अन्वेषण किया जाना चाहिये जो निजीकरण के संदर्भ में उत्तरदायी रूप से राज्यों और निजी क्षेत्र को ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं।

भारतीय संदर्भ में

  • भारत में कई ऐसी सरकारी परियोजनाएँ हैं जो सार्वजनिक-निजी भागीदारी पर आधारित हैं।
  • हाल ही में नीति आयोग ने सरकार द्वारा संचालित ज़िला अस्पतालों में गैर-संचारी रोगों (NCD) से निपटने के लिये सार्वजनिक-निजी साझेदारी (PPP) के लिये दिशा-निर्देश जारी किये हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट नीति आयोग को अपने दिशा-निर्देशों पर पुनर्विचार करने में मदद कर सकती है।
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