अंतर्राष्ट्रीय संबंध
क्यों महत्त्वपूर्ण है एमओपी और इसे अंतिम रूप देना आवश्यक क्यों?
- 28 Oct 2017
- 7 min read
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में आदेश दिया था कि शीर्ष न्यायपालिका में नियुक्तियों के लिये एक मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) होना चाहिये और इस आदेश को दिये हुए एक साल व दस महीने पहले ही बीत चुके हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय ने शीर्ष न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया से संबंधित इस एमओपी को अंतिम रूप देने में हो रहे विलंब के मुद्दे पर पर केंद्र सरकार से जवाब तलब किया है।
क्या कहा न्यायालय ने?
सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि एमओपी को अंतिम रूप देने के लिये न्यायालय ने कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की थी फिर भी इसे अनिश्चितकाल के लिये नहीं लटकाया जा सकता। जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस यू.यू.ललित की पीठ ने कहा कि 'व्यापक जनहित में एमओपी को अंतिम रूप देने में आगे और देरी नहीं होनी चाहिये’।
क्या है मामला?
- गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद-124 और 219 के तहत की जाती है। दरअसल, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर वर्ष 1993 तक न्यायाधीशों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के आधार पर की जाती थी, जिस पर अंतिम मुहर राष्ट्रपति द्वारा लगाई जाती थी।
- वर्ष 1993 में एक अहम् निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया कि मुख्य न्यायाधीश से परामर्श का अर्थ उनकी कानूनी अनुशंसा है जिसे स्वीकार करने के लिये केंद्र सरकार बाध्यकारी है। तत्पपश्चात् न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के तहत होने लगी।
- वर्ष 2014 में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादलों के लिये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम बनाया था, जिसे वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया था कि ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ अपने वर्तमान स्वरूप में न्यायपालिका के कामकाज में एक हस्तक्षेप मात्र है।
- इसी मामले में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली में व्यापक पारदर्शिता लाने के लिये चल रही सुनवाई के दौरान शीर्ष न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह मुख्य न्यायाधीश के साथ सलाह मशविरा करके नया एमओपी तैयार करे।
- लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभी तक इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है और शीर्ष न्यायपालिका में न्यायधीशों के बहुत से पद रिक्त पड़े हैं।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग से संबंधित महत्त्वपूर्ण बिंदु
- विदित हो कि केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय एवं देश के 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान प्रणाली में बदलाव लाने के लिये 13 अप्रैल को राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 और संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 अधिसूचित किया था।
- उल्लेखनीय है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाले इस आयोग की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश को करनी थी। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केन्द्रीय विधि मंत्री और दो जानी-मानी हस्तियाँ भी इस आयोग का हिस्सा थीं।
- आयोग में जानी-मानी दो हस्तियों का चयन तीन सदस्यीय समिति को करना था, जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल थे। आयोग से संबंधित एक दिलचस्प बात यह थी कि अगर आयोग के दो सदस्य किसी नियुक्ति पर सहमत नहीं हुए तो आयोग उस व्यक्ति की नियुक्ति की सिफारिश नहीं करेगा।
निष्कर्ष
- आज शीर्ष न्यायपालिका में लंबित मामलों की संख्या हज़ारों में है और विडंबना यह है कि देश के 24 में 6 उच्च न्यायालय बिना किसी नियमित मुख्य न्यायाधीश के कार्य करते रहे हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति में नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था बनाए रखने के लिये यह आवश्यक है कि न्यायपालिका को ही न्यायिक नियुक्तियों का सर्वेसर्वा न बनने दिया जाए, जबकि आवश्यकता इस बात की भी है कि न्यायिक नियुक्तियाँ कार्यपालिका के बेजा हस्तक्षेप से मुक्त रहें।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक करार दिया जाना जहाँ न्यायपालिका द्वारा उठाया गया एक प्रतिगामी कदम था, वहीं कार्यपालिका द्वारा एमओपी को इतने दिनों से लटकाए रखना उचित नहीं कहा जा सकता।
- दरअसल, एमओपी द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता सुनिश्चित होगी, जिसमें रिक्तियों का ब्यौरा एवं नियुक्तिओं का विवरण उच्च न्यायालय तथा केंद्र सरकार के न्याय मंत्रालय की वेबसाइट पर प्रकाशित करने, कॉलेजियम के लिये एक सचिवालय तथा शिकायत निवारण प्रणाली की स्थापना करने आदि जैसी महत्त्वपूर्ण बातें शामिल हैं। अतः एमओपी को अंतिम रूप देने में हो रही यह देरी निश्चित ही अवांछनीय है।