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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारतीय बैंकों द्वारा अपने विदेशी परिचालनों में की जा रही कटौती

  • 05 May 2018
  • 6 min read

चर्चा में क्यों ?
पिछले माह कई भारतीय बैंकों द्वारा उनके विदेशी ऑपरेशनों या परिचालनों में कमी किये जाने संबंधी घोषणाएँ की गईं। वे या तो अपनी शाखाओं या विदेशी सहायक कंपनियों को बंद कर रहे हैं, या फिर कुछ देशों से पूरी तरह अपने ऑपरेशन समाप्त कर रहे हैं। भारतीय बैंकिंग क्षेत्र के कई प्रमुख बैंक इस समय वापसी के मोड में हैं। 

प्रमुख बिंदु 

  • खबरों के मुताबिक भारतीय स्टेट बैंक (SBI) चीन, श्रीलंका, ओमान, सऊदी अरब, फ्राँस और बोत्सवाना में 6 शाखाओं को बंद कर रहा है।
  • कैनरा बैंक अपनी ब्रिटेन, बहरीन और शंघाई स्थित तीन शाखाओं को बंद करने वाला है एवं रूस स्थित एक संयुक्त उपक्रम में अपनी हिस्सेदारी का 50 प्रतिशत एसबीआई को बेचने की तैयारी में है।
  • अपनी विदेशी शाखाएँ बंद करने वाले अन्य बैंकों में बैंक ऑफ इंडिया और आईडीबीआई बैंक भी शामिल हैं।
  • इस वापसी का तात्कालिक कारण पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का खराब प्रदर्शन रहा है।
  • बढ़ते घाटे , बैड लोन की समस्या, नई पूंजी की आवश्यकता, कमज़ोर बजटीय सहायता, स्टॉक मार्केट में कमज़ोर वैल्यूएशन और पिछले दिनों सामने आए धोखाधड़ी के मामलों से ऐसा माहौल निर्मित हुआ, जिसने सरकार को बैंकों के विरुद्ध एक्शन लेने हेतु बाध्य किया है।  
  • भारतीय बैंकों की लगभग 159 शाखाएँ अन्य देशों में संचालित हो रही हैं और उनमें से एक चौथाई घाटे में चल रही हैं।
  • विदेशी परिचालनों में बड़ी मात्रा में धन का व्यय होता है। सर्वप्रथम, कई विदेशी जगहों पर परिचालन हेतु अत्यधिक पूंजी की आवश्यकता होती है। साथ ही, बड़ी मात्रा में लाइसेंस शुल्क देना पड़ता है। 
  • कुछ भौगोलिक क्षेत्रों में तो यह व्यय इतना अधिक होता है कि वहाँ कुछ भारतीय बैंकों को मिलकर मजबूरन संयुक्त उपक्रमों में परिचालन करना पड़ता है। 
  • बुनियादी ढाँचे की लागत, जिसमें श्रमबल संबंधी खर्चे भी शामिल हैं, के कारण भी व्यय में वृद्धि होती है।
  • लंदन, सिंगापुर, टोक्यो या हॉन्गकॉन्ग जैसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय केंद्रों में विशेष रूप से उच्च प्रतिस्पर्द्धा और बहुत कम लाभ के कारण बैंकों की ब्रेक-ईवन अवधि भी बढ़ गई है।
  • विदेशी परिचालनों को संभाल चुके कई अनुभवी बैंकरों का कहना है कि बैंकों को विदेशों में मुनाफा कमाना शुरू करने में कम से कम पाँच साल का समय लगता है, जबकि भारत में यह अवधि 2 से 3 वर्ष के बीच है।
  • यहाँ तक कि अधिकांश सुव्यवस्थित परिचालनों का लाभ भी विदेशों में बहुत अच्छा नहीं रहता है।
  • एसबीआई का विदेशी ऋणों पर अर्जित शुद्ध ब्याज़ मार्जिन घरेलू परिचालनों के 2.61 प्रतिशत के मुकाबले 1.16 फीसदी ही है।
  • एसबीआई के वरिष्ठ अधिकारियों ने पहले भी बताया है कि घरेलू परिचालन में इक्विटी पर रिटर्न आमतौर पर 15 से 18 प्रतिशत होता है, जबकि विदेशी परिचालनों में यह  5 से 7 फीसदी ही होता है।  और लंबे समय से यह पैटर्न व्यापक रूप से अपरिवर्तित रहा है। 
  • इसलिये बैंकों द्वारा विदेशों में कारोबार करने का निर्णय हमेशा बड़ी सतर्कता और चयनात्मकता से ही लिया जाता रहा है।  गुजराती और सिंधी समुदायों द्वारा भारतीय बैंकों के विदेशों में विस्तार हेतु प्रयास किये जाते रहे हैं। इनके कारोबार कई देशों तक फैले हुए रहते हैं।
  • ये समुदाय सामान्यतः बैंकों को एक निश्चित मात्रा में व्यवसाय सौंप कर, वहाँ शाखा खोलने हेतु प्रोत्साहित करते हैं। 
  • कभी-कभी कूटनीतिक और सामरिक कारणों से भी विदेशों में शाखाएँ खोली गई हैं। फिर चाहे वे वहाँ स्थित भारतीय उच्चायुक्तों के सक्रिय समर्थन से खोली गई हों या सहयोगियों के साथ संबंधों और व्यापार को सुधारने के लिये। ऐसा हालिया उदाहरण इज़राइल का लिया जा सकता है।
  • विदेशों में स्थित भारतीय बैंकों की शाखाएँ अभी भी भारतीय कनेक्शन वाले समुदायों को छोड़कर वहाँ के स्थानीय लोगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाई हैं।

आरबीआई का रुख 

  • बैंकरों के अनुसार, आरबीआई वर्ष 2000 तक भारतीय बैंकों को विदेशों में जाने के अनुमति देने के मामले में रूढ़िवादी था। बाद के वर्षों में इसके रुख में नरमी आई और इसने अपने नियमों में बदलाव किया।
  • नियमों में नरमी के कारण वर्ष 2005 से 2011 के बीच कई बैंकों ने विदेशों में अपने परिचालनों  का विस्तार किया।
  • दिलचस्प बात यह है कि निजी बैंकों की विदेशों में केवल सीमित उपस्थिति है। 
  • यह देखते हुए कि विदेशों में रिटर्न कम प्राप्त होता है, निज़ी बैंकों ने विदेशों में पूंजी परिनियोजन में  सार्वजनिक बैंकों की अपेक्षा अधिक सतर्कता बरती है।
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