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भारतीय राजनीति

कानूनी बचाव का अधिकार

  • 11 Mar 2020
  • 7 min read

प्रीलिम्स के लिये

संवैधानिक उपचारों से संबंधित प्रावधान

मेन्स के लिये 

अभियुक्त का प्रतिनिधित्व न करने को लेकर पारित प्रस्ताव से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि न्यायालय में अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करने के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करना वकीलों के लिये अनैतिक और गैर-कानूनी है। ध्यातव्य है कि बीते महीने स्थानीय बार एसोसिएशन ने देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार 4 छात्रों के प्रतिनिधित्व पर आपत्ति जताते हुए प्रस्ताव पारित किया था।

संविधान में अभियुक्त के बचाव संबंधी अधिकार

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22(1) प्रत्येक व्यक्ति को मौलिक अधिकार देता है कि वह अपनी पसंद के वकील द्वारा बचाव के अधिकार से वंचित न रहे। 
  • वहीं संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के राज्यक्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समता का अधिकार प्रदान करता है।
  • संविधान का अनुच्छेद 39A राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का हिस्सा है, जिसके अनुसार किसी भी नागरिक को आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण से न्याय पाने से वंचित नहीं किया जाना चाहिये और राज्य मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।

इस विषय पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी

  • वर्ष 2010 में ए. एस. मोहम्मद रफी बनाम तमिलनाडु राज्य वाद में जस्टिस मार्कण्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की सर्वोच्च न्यायालय की न्यायपीठ ने इस प्रकार के प्रस्तावों की अवैधता के संबंध में टिप्पणी की थी। न्यायालय ने कहा था कि ‘देश के प्रत्येक व्यक्ति को अदालत में बचाव का अधिकार है और इसी के साथ उसका बचाव करना वकील का कर्त्तव्य है। ध्यातव्य है कि ए. एस. मोहम्मद रफी बनाम तमिलनाडु राज्य मामले का ज़िक्र कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में भी किया है।
  • वर्ष 2006 में कोयंबटूर में एक वकील और पुलिसकर्मियों के बीच टकराव से उत्पन्न हुए विवाद के पश्चात् वकीलों ने पुलिसकर्मियों का प्रतिनिधित्व न करने का प्रस्ताव पारित किया था। मद्रास उच्च न्यायालय ने इस मामले में संज्ञान लेते हुए वकीलों के इस कृत्य को गैर-पेशेवर (Unprofessional) करार दिया था।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि ‘इस तरह के प्रस्ताव पूर्ण रूप से अवैध, बार की परंपराओं तथा पेशेवर नैतिकता के विरुद्ध होते हैं। 

वकीलों की पेशेवर नैतिकता

  • बार काउंसिल ऑफ इंडिया के पेशेवर मानकों को लेकर कुछ नियम हैं, जो कि एडवोकेट्स एक्ट, 1961 के तहत वकीलों द्वारा पालन किये जाने वाले व्यावसायिक आचरण और शिष्टाचार के मानकों का हिस्सा हैं।
  • नियमों के अनुसार, एक वकील न्यायालय या ट्रिब्यूनल में किसी भी मुकदमे को अपने निर्धारित शुल्क के अनुरूप स्वीकार करने हेतु बाध्य है।
  • हालाँकि नियमों में वकीलों द्वारा किसी मुकदमे को न स्वीकार करने को लेकर कुछ ‘विशेष परिस्थितियाँ’ स्पष्ट की गई हैं। 
  • बीते वर्ष उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि नियमों में उल्लिखित ‘विशेष परिस्थितियाँ’ एक व्यक्तिगत अधिवक्ता (Individual Advocate) को संदर्भित करती हैं, जो किसी विशेष मामले में प्रतिनिधित्व न करने का निर्णय ले सकता है, किंतु यह संभव नहीं है कि एक व्यक्तिगत अधिवक्ता बार एसोसिएशन से अपनी सदस्यता समाप्त होने के डर से किसी मामले में प्रतिनिधित्व करने से इनकार कर दे।

संबंधित मामले

  • वर्ष 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले के पश्चात् अजमल कसाब का प्रतिनिधित्व करने के विरुद्ध एक प्रस्ताव पारित किया गया था। प्रारंभ में जिस वकील को यह मामला सौंपा गया उसने मना कर दिया, जबकि एक अन्य वकील को जिसने कसाब का बचाव करने के लिये सहमति व्यक्त की, खतरों का सामना करना पड़ा।
    • इसके पश्चात् कसाब का प्रतिनिधित्व करने के लिये एक वकील को नियुक्त किया गया और उसे पुलिस सुरक्षा भी दी गई।
  • दिल्ली में वर्ष 2012 में हुए सामूहिक दुष्कर्म के पश्चात् साकेत कोर्ट में वकीलों ने आरोपियों का बचाव नहीं करने का प्रस्ताव पारित किया था।
  • बीते वर्ष हैदराबाद में बार एसोसिएशन ने एक पशु चिकित्सक के साथ दुष्कर्म और उनकी हत्या में गिरफ्तार किये गए चार आरोपियों का प्रतिनिधित्व करने के विरुद्ध एक प्रस्ताव पारित किया था।

 आगे की राह

  • भारतीय संविधान के अंतर्गत भारतीय राज्यक्षेत्र में मौजूद सभी लोगों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान किया गया है।
  • ऐसे में बार एसोसिएशन द्वारा प्रतिनिधित्व करने के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करने का निर्णय स्पष्ट तौर पर अनुचित दिखाई देता है, किंतु कई बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिनमें किसी अभियुक्त का प्रतिनिधित्व करना संभव नहीं होता।
  • ऐसे में आवश्यक है कि इस विषय पर बार काउंसिल ऑफ इंडिया के पेशेवर मानकों का पालन किया जाए और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देशों को ध्यान में रखकर उचित कदम उठाया जाए।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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