नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


आंतरिक सुरक्षा

जम्मू-कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम

  • 17 Sep 2019
  • 9 min read

चर्चा में क्यों?

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को राज्य के गृह विभाग ने सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (Public Safety Act-PSA) के तहत हिरासत में लिया है।

  • उल्लेखनीय है कि यह अधिनियम राज्य प्रशासन को अधिकार देता है कि वह किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा दायर किये 2 वर्षों तक जेल में रख सकता है।

सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम

  • जम्मू-कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 एक निवारक निरोध (Preventive Detention) कानून है, इसके तहत किसी व्यक्ति को ऐसे किसी कार्य को करने से रोकने के लिये हिरासत में लिया जाता है जिससे राज्य की सुरक्षा या सार्वजनिक व्यवस्था प्रभावित हो सकती है।
  • इस अधिनियम के तहत व्यक्ति को 2 वर्षों के लिये हिरासत में लिया जा सकता है।
  • यह कमोबेश राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के समान ही है, जिसका प्रयोग अन्य राज्य सरकारों द्वारा नज़रबंदी के लिये किया जाता है।
  • इस अधिनियम की प्रकृति दंडात्मक निरोध (Punitive Detention) की नहीं है।
  • यह अधिनियम मात्र संभागीय आयुक्त (Divisional Commissioner) या ज़िला मजिस्ट्रेट (District Magistrate) द्वारा पारित प्रशासनिक आदेश से लागू होता है।

अधिनियम का इतिहास

  • जम्मू-कश्मीर में इस अधिनियम की शुरुआत 1978 में लकड़ी तस्करी को रोकने के लिये की गई थी, क्योंकि लकड़ी की तस्करी उस समय की सबसे बड़ी समस्या थी एवं इसके तहत गिरफ्तार लोग काफी आसानी से छोटी-मोटी सज़ा पाकर छूट जाते थे।
  • विदित है कि इस अधिनियम की शुरुआत फारूक अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला ने की थी।
  • 1990 के दशक में जब राज्य में उग्रवादी आंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा तो दंगाइयों को हिरासत में लेने के लिये राज्य सरकार ने सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम का प्रयोग काफी व्यापक स्तर पर किया।
  • ज्ञातव्य है कि वर्ष 2011 से पूर्व तक जम्मू-कश्मीर के इस अधिनियम में 16 वर्ष से अधिक उम्र के किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेने का प्रावधान था, परंतु वर्ष 2011 में अधिनियम को संशोधित कर उम्र सीमा बढ़ा दी गई और अब यह 18 वर्ष है।
  • हाल के वर्षों में भी इस अधिनियम का कई बार प्रयोग किया गया है, वर्ष 2016 में हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी बुरहान वानी की गिरफ्तारी को लेकर हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान PSA का प्रयोग कर तकरीबन 550 लोगों को हिरासत में लिया गया था।

काफी कठोर है यह अधिनियम

  • अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, PSA का प्रयोग कर राज्य के किसी भी व्यक्ति को बिना किसी आरोप या जाँच के नज़रबंद किया जा सकता है या उसे हिरासत में लिया जा सकता है। यह नज़रबंदी 2 साल तक की हो सकती है।
  • PSA उस व्यक्ति पर भी लगाया जा सकता है जो पहले से पुलिस की हिरासत में है या जिसे अदालत से ज़मानत मिल चुकी है। यहाँ तक कि इस अधिनियम का प्रयोग उस व्यक्ति पर भी किया जा सकता है जिसे अदालत ने बरी किया है।
  • महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि सामान्य पुलिस हिरासत के विपरीत, PSA के तहत हिरासत में लिये गए व्यक्ति को हिरासत के 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने की आवश्यकता नहीं होती है।
  • साथ ही हिरासत में लिये गए व्यक्ति के पास अदालत के समक्ष ज़मानत के लिये आवेदन करने का भी अधिकार होता नहीं होता एवं वह इस संबंध में किसी वकील की सहायता भी नहीं ले सकता है।
  • इस प्रशासनिक नज़रबंदी के आदेश को केवल हिरासत में लिये गए व्यक्ति के रिश्तेदारों द्वारा बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus Petition) के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है।
  • उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के पास इस तरह की याचिकाओं पर सुनवाई करने और PSA को समाप्त करने के लिये अंतिम आदेश पारित करने का अधिकार है, हालाँकि यदि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय इस याचिका को खारिज कर देते हैं तो उस व्यक्ति के पास इस संबंध में कोई अन्य रास्ता नहीं बचता है।
  • इस अधिनियम में संभागीय आयुक्त अथवा ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा इस प्रकार के आदेश को पारित करना ‘सद्भाव में किया गया’ (Done in Good Faith) कार्य माना गया है, अतः आदेश जारी करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध किसी भी प्रकार की जाँच नहीं की जा सकती है।
  • उल्लेखनीय है कि बीते वर्ष जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल ने इस अधिनियम में संशोधन किया था, जिसके अनुसार इस अधिनियम के तहत हिरासत में लिये गए व्यक्ति को अब राज्य के बाहर भी रखा जा सकता है।

PSA लगने के बाद

  • सामान्यतः इस अधिनियम के तहत जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो गिरफ्तारी के 5 दिनों के भीतर ज़िले का DM उसे लिखित रूप में हिरासत के कारणों के बारे में सूचित करता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में इस कार्य में 10 दिन भी लग सकते हैं।
  • हिरासत में लिये गए व्यक्ति को इस प्रकार की सूचना देना DM के लिये आवश्यक होता है, ताकि उस व्यक्ति को भी पता चल सके की उसे क्यों गिरफ्तार किया गया है एवं वह इस संदर्भ में आगे की रणनीति तैयार कर सके। हालाँकि यदि DM को लगता है कि यह सार्वजनिक हित के विरुद्ध होगा तो उसे यह भी अधिकार है कि वह उन तथ्यों का खुलासा न करे जिनके आधार पर गिरफ्तारी या नज़रबंदी का आदेश दिया गया है।
  • DM को गिरफ्तारी या नज़रबंदी का आदेश सलाहकार बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करना होता है, इस बोर्ड में 1 अध्यक्ष सहित 3 सदस्य होते हैं एवं इसका अध्यक्ष उच्च न्यायालय का पूर्व न्यायाधीश ही हो सकता है। बोर्ड के समक्ष DM उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व भी करता है और यदि व्यक्ति चाहे तो वह बोर्ड के समक्ष खुद भी अपनी बात रख सकता है।
  • सलाहकार बोर्ड 8 हफ्तों के भीतर अपनी रिपोर्ट राज्य को देता है और रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार यह निर्णय लेती है कि यह नज़रबंदी या गिरफ्तारी सार्वजनिक हित में है या नहीं।

निष्कर्ष

इस अधिनियम की शुरुआत राज्य सरकार द्वारा लकड़ी की तस्करी एवं उग्रवाद से निपटने के लिये की गई थी, परंतु वर्तमान में इस इसका प्रयोग व्यापक स्तर पर मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं, पत्रकारों और राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किया जा रहा है। समस्या के समाधान के लिये निर्मित इस अधिनियम का दुरुपयोग होने के कारण अब यह खुद एक समस्या बन चुका है। अतः आवश्यक है कि इस अधिनियम में जल्द-से-जल्द संशोधन कर इसे पुनः आतंकवाद एवं उग्रवाद के विरुद्ध एक समाधान के रूप में प्रयोग करने हेतु स्थापित किया जाए।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow