गृहकार्य हेतु वेतन | 11 Jan 2021
चर्चा में क्यों?
हाल ही में तमिलनाडु की एक राजनीतिक पार्टी द्वारा अपने चुनावी अभियान प्रचार के दौरान गृहिणियों को वेतन देने का वादा किया गया।
- इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन (International Labour Organization- ILO) की वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर महिलाओं की कुल आबादी पुरुषों की तुलना में तीन गुना से भी अधिक, जो बिना वेतन कार्य करने के कुल घंटों में 76.2% हिस्सेदारी प्रदर्शित करती हैं। एशिया और प्रशांत क्षेत्र में यह आंँकड़ा 80% तक है।
प्रमुख बिंदु:
पृष्ठभूमि:
- गृहकार्यों के लिये वेतन की मांग हेतु आंदोलन:
- वर्ष 1972 में इटली में इंटरनेशनल वेज़ेस फॉर हाउसवर्क कैंपेन (International Wages for Housework Campaign) को एक नारीवादी आंदोलन के रूप में शुरू किया गया, जिसने परिवार में लैंगिक श्रम की भूमिका और पूंजीवाद के तहत अधिशेष मूल्य के उत्पादन से इसके संबंध को उज़ागर किया। आगे चलकर यह आंदोलन ब्रिटेन और अमेरिका तक फैल गया।
- अन्य मांगों के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक समानता हेतु महिलाओं के अधिकारों का प्रचार करने वाले महिला संगठनों द्वारा घरेलू महिलाओं के ‘निजी’ गृहकार्य जिसमें बाल देखभाल तथा घर में किये जाने वाले रोज़मर्रा के कार्य शामिल हैं, का राजनीतिकरण किया।
- भारतीय परिदृश्य:
- वर्ष 2010 में नेशनल हाउसवाइव्स एसोसिएशन (National Housewives Association) द्वारा मान्यता प्राप्त करने हेतु ट्रेड यूनियन (Trade Union) के समक्ष एक आवेदन प्रस्तुत किया गया जिसे ट्रेड यूनियनों के डिप्टी रजिस्ट्रार द्वारा यह कहते हुए खारिज कर दिया गया था कि गृहकार्य व्यापार या उद्योग की श्रेणी में शामिल नहीं हैं।
- वर्ष 2012 में तत्कालीन महिला और बाल विकास मंत्री द्वारा घोषणा की गई कि सरकार पतियों द्वारा पत्नियों को गृहकार्य हेतु आवश्यक वेतन दिये जाने पर विचार कर रही है। इसका उद्देश्य महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना और उन्हें सम्मान के साथ जीने में मदद करना था।
- यह प्रस्ताव कभी अमल में नहीं आया तथा वर्ष 2014 में सरकार बदलने के साथ ही इस विचार पर भी विराम लग गया।
मुद्दे:
- गृहकार्य महिलाओं से वर्ष में 365 दिन, 24/7 श्रम की मांग करता है, बावजूद इसके भारतीय महिलाओं की आबादी के एक बड़े हिस्से को पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं है।
- बड़ी संख्या में महिलाएंँ घरेलू हिंसा और क्रूरता को सहन करती हैं क्योंकि वे आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर हैं, मुख्यतः अपने पति पर।
- राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (National Sample Survey Organisation) द्वारा एकत्र किये गए वर्ष 2019 के टाइम-यूज़ डेटा से पता चला है कि चार-चौथाई महिलाओं की तुलना में पुरुष तथा छह वर्ष से अधिक उम्र के बालकों की कुल एक-चौथाई संख्या अवैतनिक घरेलू कार्यों में संलग्न है।
- प्रतिदिन एक औसत भारतीय पुरुष द्वारा एक महिला द्वारा किये गए लगभग पांँच घंटे के कार्य की तुलना में अवैतनिक घरेलू काम में प्रतिदिन 1.5 घंटे खर्च किये जाते हैं।
गृहिणियों को वेतन देने के पक्ष में तर्क:
- अधिक सटीक राष्ट्रीय आय लेखांकन: महिलाओं के घरेलू श्रम को सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product- GDP) या रोज़गार मेट्रिक्स में शामिल नहीं किया जाता है। इसे शामिल न करने का मतलब है, अर्थव्यवस्था की जीडीपी को कम करके आंँकना।
- महिला को स्वायत्तता प्रदान करना और घरेलू हिंसा को रोकना: राज्य द्वारा महिलाओं को वेतन का भुगतान किये जाने से उन्हें उन पुरुषों से स्वायत्तता प्रदान होगी जिन पर वे निर्भर हैं।
- अधिकांश महिलाएंँ एक अपमानजनक या असहनीय रिश्ते में जीवन व्यतीत करती हैं क्योंकि आर्थिक रूप से अपने साथी पर निर्भर रहने के अलावा उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है।
- महिलाओं की भूमिका को परिभाषित करना: मूल रूप से महिलाओं के गृहकार्य हेतु वेतन संबंधी यह मांग एक वर्ग विशेष की उस धारणा का खंडन करती है, जिसके मुताबिक ‘गृहकार्य’ केवल महिलाओं का दायित्व है। इस प्रकार यह मांग महिलाओं को सौंपी गई उनकी सामाजिक भूमिका के खिलाफ एक विद्रोह जैसी स्थिति है।
- जनसंख्या के एक बड़े अंश का कल्याण: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, घरेलू कार्यों में लगे लोगों को गैर-श्रमिक माना जाता है, जबकि 159.9 मिलियन महिलाओं ने कहा था कि "घरेलू काम" उनका मुख्य व्यवसाय था।
- समानता हेतु पहले कदम के रूप में मान्यता: घरेलू कार्यों को मान्यता प्रदान करना महिला सशक्तीकरण हेतु प्रमुख केंद्रीय प्रक्रियाओं में से एक है। यह उन पितृसत्तात्मक भारतीय परिवारों में महिलाओं के लिये समानता का दावा करती है जिनकी पहचान केवल पुरुषों द्वारा किये गए कार्यों के कारण है।
- एक बार मान्यता प्राप्त होने के बाद महिलाओं के वर्चस्व वाला अवैतनिक घरेलू श्रम क्षेत्र लगभग पूरी तरह से एक प्रमुख श्रम क्षेत्र में तब्दील हो सकता है जहांँ महिलाएंँ समय और ऊर्जा के संदर्भ में कुछ हद तक समानता की मांग कर सकती हैं।
- समय का अभाव (टाइम पावर्टी):
- यदि कार्य हेतु भुगतान की प्रतिबद्धताओं को घर के निम्न श्रेणी के कार्यों तथा घरेलू श्रम के साथ संबद्ध कर दिया जाता है तो गरीब महिलाओं के 'टाइम पावर्टी' से पीड़ित होने की संभावना अधिक हो जाएगी अर्थात् उनके पास समय का अभाव हो जाएगा।
- समय का अभाव मूल रूप से महिलाओं के मानव अधिकारों का हनन करता है क्योंकि यह महिला समूहों और उनके निर्माण क्षमता को कम करती है। काम का अत्यधिक बोझ महिलाओं को आगे की शिक्षा, रोज़गार के अवसरों तक उनकी पहुँच को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है।
- गृहिणियों को वेतन देने के विपक्ष में तर्क:
- ज़िम्मेदारी का बढ़ना: पुरुषों द्वारा महिलाओं को घरेलू कार्यों का भुगतान किये जाने से पुरुषों में पुरुषत्व अधिकारों की भावना और अधिक बढ़ सकती है। इससे पुरुषों पर महिलाओं की ज़िम्मेदारी का अतिरिक्त भार डाला जा सकता है।
- पुरुषों की स्थिति मज़बूत होना: घरेलू कार्यों हेतु पत्नी को भुगतान करने से भारतीय पितृसत्तात्मक परिवार की अवधारणा के और अधिक औपचारिक होने होने का खतरा हो सकता है क्योंकि इन परिवारों में पुरुष को ‘प्रदाता’ के रूप में देखा जाता है।
- स्वीकृति और आवेदन: कानूनी प्रावधानों के बावजूद अधिकांश महिलाओं के लिये समानता का अधिकार दूर की बात है।
- सरकार पर बोझ: अभी भी इस मुद्दे पर बहस चल रही है कि महिलाओं द्वारा किये गए गृहकार्य का भुगतान कौन करेगा, अगर यह राज्य द्वारा किया जाना है तो इससे सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ेगा।
आगे की राह
- हमें महिलाओं के लिये अन्य मौजूदा प्रावधानों जैसे-पति के घर में निवास करने का अधिकार, स्त्री धन और मुस्लिम महिलाओं को मेहर का अधिकार, हिंसा तथा तलाक के मामलों में मुफ्त कानूनी सहायता एवं रखरखाव आदि के बारे में जागरूकता फैलाने, कार्यान्वयन और उपयोग को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
- दैनिक कार्यों में महिलाओं को अधिक सहभागी बनाने हेतु उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, कार्य तक पहुँच और अवसर की समानता, लैंगिक संवेदनशीलता तथा उत्पीड़न-मुक्त कार्यस्थलों, परिवारों के व्यवहार परिवर्तन आदि के माध्यम से प्रोत्साहित एवं मदद करना चाहिये।