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शासन व्यवस्था

उत्तर प्रदेश में उद्योगों को श्रम कानूनों से छूट

  • 08 May 2020
  • 10 min read

प्रीलिम्स के लिये

भारत में प्रचलित विभिन्न श्रम कानून

मेन्स के लिये

श्रम कानूनों का महत्त्व और उनके क्रियान्वयन में चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

उत्तर प्रदेश सरकार ने कोरोनोवायरस (COVID-19) महामारी के मद्देनज़र राज्य की औद्योगिक गतिविधियों को पुनः पटरी पर लाने के एक उपाय के रूप में आगामी तीन वर्षों के लिये सभी व्यवसायों और उद्योगों को श्रम कानूनों से छूट देने वाले अध्यादेश को मंज़ूरी दे दी है।

प्रमुख बिंदु

  • ध्यातव्य है कि COVID-19 के प्रकोप के फलस्वरूप राज्य में आर्थिक गतिविधियाँ काफी बुरी तरह प्रभावित हुई हैं और आगामी समय में इसका और अधिक प्रभाव दिख सकता है।
    • इसका प्रमुख कारण यह है कि महामारी को देखते हुए लागू किये गए देशव्यापी लॉकडाउन के कारण राज्य के सभी उद्योग और व्यवसाय रुक गए हैं।
  • राज्य सरकार द्वारा इस संदर्भ में जारी अधिसूचना के अनुसार, सरकार द्वारा लागू किये गए अध्यादेश के माध्यम से सभी प्रतिष्ठानों, कारखानों और व्यवसायों पर लागू होने वाले श्रम कानूनों से उन्हें छूट प्रदान की गई है।
  • हालाँकि इस अवधि में भी राज्य में भवन तथा अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, 1996; कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम 1923; बंधुआ मज़दूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976; और मज़दूरी भुगतान अधिनियम, 1936 की धारा 5 लागू होंगे।
    • मज़दूरी भुगतान अधिनियम, 1936 की धारा 5 में समय पर मज़दूरी प्राप्त करने के अधिकार का उल्लेख किया गया है।
  • इसके अतिरिक्त श्रम कानूनों में बच्चों और महिलाओं से संबंधित प्रावधान अभी जारी रहेंगे।
  • राज्य सरकार के अध्यादेश के अनुसार, तीन वर्षीय अवधि में अन्य सभी श्रम कानून निष्प्रभावी हो जाएंगे, जिसमें औद्योगिक विवादों को निपटाने, व्यावसायिक सुरक्षा, श्रमिकों के स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति, ट्रेड यूनियन, अनुबंध श्रमिकों और प्रवासी मज़दूरों से संबंधित कानून शामिल हैं।
  • यह अध्यादेश राज्य में मौजूदा व्यवसायों तथा उद्योगों और राज्य में स्थापित होने वाले नए कारखानों दोनों पर लागू होगा।
  • इस अध्यादेश को राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के पास उनकी मंज़ूरी के लिये भेजा गया है।

महत्त्व

  • इस अध्यादेश का प्रमुख उद्देश्य व्यवसायों और उद्योगों को कुछ लचीलापन प्रदान करना है, ताकि उद्योगों और व्यवसायों में कार्य करने वाले श्रमिकों के रोज़गार की रक्षा की जा सके और COVID-19 महामारी के कारण राज्य में वापस आ रहे लोगों को रोज़गार प्रदान किया जा सके।
    • उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कई प्रवासी श्रमिक केरल, दिल्ली, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से वापस लौट रहे हैं और इन्हें रोज़गार उपलब्ध कराना राज्य सरकारों के समक्ष एक बड़ी चुनौती बन गया है।
  • राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के पश्चात् सभी व्यावसायिक गतिविधियों के पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से बंद होने के कारण राज्य सरकारों के राजस्व में भारी कमी देखी जा रही है, जिसके कारण राज्य की अर्थव्यवस्था को भारी झटका लगा है और इससे उबरने के लिये राज्य को काफी अधिक समय की आवश्यकता है। 
    • इसके अतिरिक्त राजस्व में कमी के कारण सरकार के पास स्वास्थ्य सुविधाओं पर अधिक-से-अधिक खर्च करने हेतु भी संसाधन की कमी है।
  • इस संबंध में सरकार द्वारा जारी आधिकारिक सूचना के अनुसार, राज्य में नए निवेश को प्रोत्साहित करने और नए औद्योगिक बुनियादी ढाँचे की स्थापना करने तथा मौजूदा उद्योगों और कारखानों को लाभ पहुँचाने के लिये यह आवश्यक है कि उन्हें राज्य में मौजूदा श्रम कानूनों से अस्थायी छूट प्रदान की जाए।

भारतीय संविधान और श्रम कानून

  • भारतीय संविधान ने देश के श्रम कानूनों में बदलाव और उनके विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। भारतीय संविधान के भाग III को श्रमिक कानूनों के लिये काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। संविधान के भाग III (अनुच्छेद 12 से 35) में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को समाहित किया गया है, जिसमें कानून के समक्ष समानता, अस्पृश्यता का उन्मूलन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कारखानों में बच्चों के रोज़गार पर प्रतिबंध जैसे विषय शामिल हैं। 
  • भारतीय संविधान का भाग IV, जिसे ‘राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व’ के रूप में भी जाना जाता है, का उद्देश्य अपने नागरिकों के कल्याण की दिशा में कार्य करना है। उल्लेखनीय है कि राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को कानून के समक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती है, किंतु यह भारत में श्रम कानूनों को बेहतर बनाने के लिये विधायिका को एक दिशा-निर्देश प्रदान करता है।
  • विदित हो कि चूँकि श्रम भारतीय संविधान के तहत एक समवर्ती सूची का विषय है, इसलिये राज्य अपने स्वयं के कानूनों को लागू तो कर सकते हैं, किंतु उन्हें केंद्र सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होती है। 

आलोचना

  • आलोचकों का मत है कि उत्तर प्रदेश सरकार का यह निर्णय काफी चौंकाने वाला है और इससे राज्य श्रम कानूनों के मामले में तकरीबन 100 वर्ष पीछे चला जाएगा। 
  • उत्तर प्रदेश सरकार का यह अध्यादेश राज्य में श्रमिकों के लिये गुलाम जैसी परिस्थितियों को जन्म देगा, जो कि स्पष्ट रूप से श्रमिकों के मानवाधिकार का उल्लंघन है।
  • राज्य सरकार का यह अध्यादेश राज्य में कारखानों और उद्योगों मालिकों को आवश्यक सुरक्षा तथा स्वास्थ्य मापदंडों का पालन न करने के लिये प्रेरित करेगा, जिससे श्रमिकों के लिये कार्य की स्थिति और अधिक बद्दतर हो जाएगी।
  • उत्तर प्रदेश के विभिन्न ट्रेड यूनियनों ने राज्य सरकार के इस निर्णय को ‘श्रमिक वर्ग पर गुलामी की स्थिति लागू करने के लिये एक क्रूर कदम’ करार दिया है।
  • ट्रेड यूनियनों के अनुसार, इसके पश्चात् अन्य राज्य सरकारें भी अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार का तर्क देते हुए राज्य में विकास और अधिक निवेश आकर्षित करने के नाम पर उत्तर प्रदेश सरकार का अनुसरण करेंगी, जिससे देश भर में श्रमिकों के लिये कार्य की स्थिति काफी बद्दतर हो जाएगी।

आगे की राह

  • श्रम न केवल उत्पादन में, बल्कि अन्य सभी आर्थिक गतिविधियों में भी एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। डेविड रिकार्डो और कार्ल मार्क्स जैसे क्लासिक अर्थशास्त्रियों ने उत्पादन के मुख्य स्रोत के रूप में श्रम को प्रमुख स्थान दिया। 
  • इस प्रकार श्रमिक किसी भी देश के आर्थिक और सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अतः श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करना राज्य और केंद्र सरकार का प्रमुख दायित्त्व बन जाता है। 
  • यदि श्रम कानूनों में बाज़ार और श्रमिकों के ज़रुरी हितों का ध्यान नहीं रखा जाता है तो ऐसे में उद्योगों का विकास काफी सीमित हो जाता है।
  • अतः आवश्यक है कि मौजूदा परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सरकार ऐसे उपाय करे, जिनसे अधिक-से-अधिक विकास किया जा सके और श्रमिकों के अधिकारों का हनन भी न हो।

स्रोत: बिज़नेस स्टैंडर्ड

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